रविवार, 6 नवंबर 2011

प्रशासन के लिए अंग्रेजी जरूरी क्यों?

हिंदी और भारतीय भाषाओं के लिए यूपीएससी के सामने 16 साल तक लंबा धरना चला चुके और 29 दिनों तक आमरण अनशन पर बैठे रहे राजकरण सिंह का उनके गांव बाराबंकी जिले के विष्णुपुरवा में 31 अक्टूबर को हो गया। भारतीय भाषाओं और हिंदी की संघलोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में क्या उपयोगिता हो सकती है...उसे लेकर उन्होंने एक लेख लिखा था। वही लेख श्रद्धांजलि स्वरूप यहां पेश है।
राजकरण सिंहयूपीएससी ने सिविल सर्विसेज, प्रीलिम्स 2011 के लिए जो नया पाठ्यक्रम घोषित किया है उसमें अंग्रेजी विषय को अनिवार्य बना दिया गया है। अभी तक इसके दो प्रश्नपत्र होते थे। एक सामान्य ज्ञान का और दूसरा किसी एक ऐच्छिक विषय का जिसे विद्यार्थी अपनी रुचि के अनुसार चुनता था। नई परीक्षा योजना के तहत इस विषय वाले प्रश्नपत्र के स्थान पर 200 अंकों का एक नया प्रश्नपत्र होगा, जिसमें से 30 अंक अंग्रेजी समझने की कुशलता के होंगे।
 हिंदी व भारतीय भाषाओं को इसमें कोई स्थान नहीं होगा। यह प्रश्न पत्र 'क्वॉलिफाइंग' नहीं होगा, बल्कि इसके अंक 'मेरिट' में जोड़े जाएंगे, जहां एक-एक अंक निर्णायक सिद्ध होता है। स्पष्ट है कि इस योजना द्वारा अंग्रेजी भाषा को अनिवार्य रूप से थोपा जा रहा है और हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के लिए दरवाजे अनंत काल के लिए बंद किए जा रहे हैं।
दुनिया के किसी भी स्वतंत्र देश की प्रशासनिक सेवा परीक्षा में विदेशी भाषा ज्ञान की अनिवार्यता नहीं है। भारतीय सिविल सेवा के अधिकारी विभिन्न राज्यों में नियुक्त होते हैं, जहां वे संबंधित राज्य की भाषा सीखते हैं। दक्षिण भारत के अधिकारी उत्तर भारत में नियुक्ति के दौरान सुंदर हिंदी बोलते और लिखते हैं। इसी प्रकार उत्तर के अधिकारी भी दक्षिण या पूर्वोत्तर की भाषाओं में कुशलता से कार्य करते हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यह मुद्दा अनेक बार उठाया गया कि क्या संघ की सिविल सेवा परीक्षा केवल उन थोड़े से लोगों के लिए है जो अंग्रेजी के माध्यम से अध्ययन करते हैं, और उन बहुसंख्यक छात्रों के लिए नहीं है जो भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा ग्रहण करते हैं।
18 जनवरी 1968 को संसद के दोनों सदनों ने सर्वसम्मति से एक संकल्प एफ. 5/8/65 रा. भा. पारित किया था। इसका पैरा 4 इस प्रकार है- और जबकि यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि संघ की लोक सेवाओं के विषय में देश के विभिन्न भागों के लोगों के न्यायोचित दावों और हितों का पूर्ण परित्राण किया जाए, यह सभा संकल्प करती है- कि उन विशेष सेवाओं अथवा पदों को छोड़कर, जिनके लिए ऐसी किसी सेवा अथवा पद के कर्तव्यों के संतोषजनक निष्पादन हेतु केवल अंग्रेजी अथवा केवल हिंदी अथवा दोनों, जैसी कि स्थिति हो, का उच्च-स्तर का ज्ञान आवश्यक समझा जाए, संघ सेवाओं अथवा पदों के लिए भर्ती करने हेतु उम्मीदवारों के चयन के समय हिंदी अथवा अंग्रेजी में से किसी एक का ज्ञान अनिवार्यत: अपेक्षित होगा।
1977 में डॉ . दौलतसिंह कोठारी की अध्यक्षता में एक आयोग गठित हुआ जिस ने संघ लोक सेवा आयोग तथा कार्मिक और प्रशासनिक सुधार विभाग आदि के विचारों को ध्यान में रखते हुए सर्वसम्मति से यह सिफारिश की कि परीक्षा का माध्यम भारत की प्रमुख भाषाओं में से कोई भी भाषा हो सकती है। 1979 में संघ लोक सेवा आयोग ने इन सिफारिशों को क्त्रियान्वित किया और भारतीय प्रशासनिक आदि सेवाओं की परीक्षा के लिए संविधान की आठवीं अनुसूची में से किसी भी भारतीय भाषा को परीक्षा का माध्यम बनाने की छूट दी गई। इस परिवर्तन का लाभ उन उम्मीदवारों को मिला जो महानगरों से बाहर रहते थे या अंग्रेजी के महंगे विद्यालयों में नहीं पढ़ सकते थे। उनके पास प्रतिभा , गुण , योग्यता थी किंतु अंग्रेजी माध्यम ने उन्हें बाहर कर रखा था।
इन सिफारिशों को लागू हुए 30 वर्ष हो चुके हैं। इस अवधि में यह कभी नहीं सुनाई पड़ा कि भारतीय भाषाओं के माध्यम से जो प्रशासक आ रहे हैं , वे किसी भी तरह से अंग्रेजी माध्यम वालों से कमतर हैं। यह स्थिति मैकाले के मानसपुत्रों को सहन नहीं हो रही है। अब चुपके से एक दांव लगाकर कहा जा रहा है कि सेवा में सुधार किया जा रहा है। आज तक किसी भी अध्ययन या अनुसंधान से ऐसा निष्कर्ष नहीं निकाला जा सका है कि प्रवेश परीक्षा के स्तर पर अंग्रेजी का ज्ञान होना भावी प्रशासन के लिए परमावश्यक गुण है। चयन के बाद हर चयनित अभ्यर्थी को 3 वर्ष का आधारिक पाठ्यक्त्रम और प्रशिक्षण दिया जाता है। इसके बाद भी वह अनेक विशेषित पाठ्यक्त्रमों में भाग लेता रहता है और प्रशिक्षण चलता रहता है। जब सिविल सेवा अधिकारी केंद्र की सेवा में आता है , तो यहां राजभाषा हिंदी में काम करने की छूट होती है। फिर सेवा के लिए क्वालिफाइंग स्तर पर ही अंग्रेजी का उच्च ज्ञान जांचने का क्या तात्पर्य हो सकता है ?
इस तथाकथित योग्यता या अभिरुचि की परीक्षा में कुछ भी मौलिक नहीं है। इसका प्रयोग गैर सरकारी संस्थाएं और प्रबंधन संस्थान करते हैं , जहां से इसकी नकल कर ली गई है। प्रबंधन प्रशासन का विकल्प नहीं है। यह विचारणीय है कि क्या लोक प्रशासन और निजी उद्योगों का प्रबंधन एक ही है , या उनमें भिन्न गुणों की अपेक्षा है। क्या एक कल्याणकारी राज्य के प्रशासक केवल प्रबंधक हुआ करते हैं ? और हों भी तो अंग्रेजी ज्ञान का प्रशासनिक कामकाज से क्या रिश्ता है ?
बराबर की टक्कर संघ लोक सेवा आयोग के वार्षिक प्रतिवेदन बताते हैं कि हिंदी और भारतीय भाषाओं के माध्यम से बहुत बड़ी संख्या में परीक्षार्थी उत्तीर्ण हो रहे है और यह संख्या निरंतर बढ़ रही है। इनकी संख्या अंग्रेजी माध्यम वालों के बराबर पहुंच रही है। प्राप्त सूचना के अनुसार 2006 की मुख्य परीक्षा में हिंदी माध्यम से 3360, अन्य भारतीय भाषाओं से 250 तथा अंग्रेजी माध्यम से 3937 परीक्षार्थी बैठे थे। 2007 की मुख्य परीक्षा में हिंदी माध्यम से 3751, अन्य भारतीय भाषाओं से 318 तथा अंग्रेजी माध्यम से 4815 परीक्षार्थी , और 2008 की मुख्य परीक्षा में हिंदी माध्यम से 5117, अन्य भारतीय भाषाओं से 381 तथा अंग्रेजी माध्यम से 5822 परीक्षार्थी बैठे थे। ये आंकड़े यह बताने के लिए काफी हैं कि भारतीय भाषाओं के माध्यम से परीक्षार्थियों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। ऐसे में षड्यंत्र पूर्वक किया जा रहा यह परिवर्तन वर्ग विशेष के लाभ के लिए है और यह कोठारी समिति द्वारा प्रतिपादित वैज्ञानिक और सामाजिक सिद्धांतों के विपरीत है।

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

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