शनिवार, 5 नवंबर 2011

पुस्तक समीक्षा

हिंदी आलोचना के छोटे मगर जरूरी अध्याय
उमेश चतुर्वेदी
क्या साहित्य को राजनीति के निकष पर कसा जा सकता है, आदर्श और यथार्थ की साहित्य में कितनी भूमिका होनी चाहिए, हिंदी साहित्य में बहस-चर्चा होती रहती है। साहित्य के बारे में कहा जाता रहा है कि वह समाज से ही मिट्टी-पानी ग्रहण करता है। जाहिर है, इसी मिट्टी पानी के एक रूप राजनीति भी है। इस तर्क के आधार पर तो साहित्य को राजनीति का अनुगामी और दर्पण भी होना चाहिए। लेकिन साहित्य समाज का दर्पण होते हुए भी वैसा दर्पण नहीं है, जो समाज के चेहरे को हू-ब-हू पेश कर दे। साठ के दशक के महत्वपूर्ण साहित्य आलोचक आचार्य नलिन विलोचन शर्मा साहित्य को ऐसा दर्पण मानते हैं, जो कुछ और भी दिखाता है और आगे की बात करता है। वे कहते हैं – साहित्य मिट्टी से पोषक तत्व प्राप्त करता है, किंतु अगर उसे मिट्टी से ज्यादा कुछ बनना है तो उसे आकाश की ओर उपर उठना ही पड़ता है।इस तरह वे साहित्य और राजनीति की सीमाएं भी निर्धारित कर देते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी के प्रोफेसर और आलोचक गोपेश्वर सिंह के संपादन में आई पुस्तकनलिन विलोचन शर्मा- संकलित निबंध से गुजरते हुए नलिन विलोचन शर्मा की ऐसे कई साहित्यालोचन और उसकी सैद्धांतिकता से रूबरू हुआ जा सकता है।

नलिन विलोचन शर्मा ने साहित्य और रचनाओं पर पारंपरिक आलोचकीय दृष्टि और सिद्धांतों से विचार तो किया ही है, दूसरे दार्शनिक उपादानों के जरिए भी साहित्यालोचन किया है। आमतौर पर समाजवादियों का रैडिकल ह्यूमनिज्म से विरोध रहा है। लेकिन नलिन विलोचन शर्मा स्वभाव से समाजवादी थे, लेकिन उनका झुकाव मानवेंद्र नाथ राय के रैडिकल ह्यूमनिज्म की ओर भी था। गांधी की पारंपरिकता में रची वैचारिकता भी उन्हें पसंद थी, लेकिन उनकी अर्थनीति से वे असहमत थे। प्रस्तुत पुस्तक में उनके इन सभी वैचारिक आयामों का उल्लेख मिलता है। अपनी इसी दृष्टि के चलते उन्होंने साहित्य की दुनिया में लीक और धारा से हटकर अपने वैचारिक नजरिए को मजबूती से पेश किया। साहित्य की दुनिया में जब जैनेंद्र कुमार के उपन्यास सुनीताकी नग्नता के लिए आलोचना हो रही थी, नलिन विलोचन शर्मा जैनेंद्र के औपन्यासिक कौशल के साथ खड़े थे। उन्होंने लिखा है – नग्न सुनीता की प्रतिमा गढ़ने में जैनेंद्र ने जैसा तरूण कौशल प्रदर्शित किया है, वह महान उपन्यासों में भी क्वचित ही देखने को मिलनता है।
नलिन जी के मुताबिक साहित्यालोचना में अश्लीलता के सवाल का कोई मतलब ही नहीं है। साहित्यालोचन में आज विषय वस्तु को जितना महत्वपूर्ण माना जा रहा है, अगर नलिन विलोचन शर्मा जिंदा होते तो उन्हें शायद ही यह स्वीकार्य होता। साहित्यालोचन के लिए उनके मुताबिक शिल्प और रचनात्मक स्थापत्य, रचना की विषयवस्तु से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। अपनी इसी अवधारणा को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं – साहित्य का विषय गांधीवाद भी हो सकता है और समाजवाद भी, पर साहित्य उत्कृष्ट या निकृष्ट विषय के कारण नहीं, विषय के बावजूद होगा।
समीक्ष्य पुस्तक में उनके निबंधों को तीन खंडों में बांटा गया है। पहले खंड में जहां आलोचन, इतिहास और शोध से संबंधित निबंध हैं, वहीं दूसरे खंड में कथा साहित्य के इतिहास और आलोचना से जुड़ी रचनाएं हैं। तीसरे खंड में कला, मनोविज्ञान और समाज से जुड़े निबंध हैं। कुल मिलाकर यह पुस्तक नलिन विलोचन शर्मा के आचार्यत्व को समझने की दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास साबित हो सकती है।
पुस्तक- नलिन विलोचन शर्मा: संकलित निबंध
संपादक – गोपेश्वर सिंह
प्रकाशक- नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली
मूल्य – 90 रूपए

कोई टिप्पणी नहीं: