रविवार, 23 अक्तूबर 2011

तीज-त्यौहारों पर साहित्यकर्म की याद

उमेश चतुर्वेदीहर साल दीवाली जैसे – जैसे नजदीक आती है...अपने शहर की पत्रिकाओं की दुकान याद आने लगती है...इसलिए नहीं कि वहां हर साल दीपावली खास दीयों की रोशनी में मनाई जाती थी...इसलिए भी नहीं कि वहां दीपावली पर पत्रिकाओं और किताबों की खरीद पर खास छूट मिलती है...पत्रिकाओं की वह दुकान इसलिए याद आती थी कि तब पत्रिकाओं के दीपावली विशेषांकों की बाढ़ रहती थी...हर पत्रिका के दीपावली विशेषांक में एक से बढ़कर एक रचनाएं...लेखों का खजाना...क्या नहीं रहता था। घोर उपभोक्तावाद के इस दौर में पत्रिकाओं की इस तरह से याद ...रचनाओं की आहट की खोज...प्रगतिकामियों को असहज कर सकती है
..उन्हें यह नास्टेल्जिक पीड़ा परेशान कर सकती है..वैज्ञानिकता के युग में पर्व और त्यौहारों को इस तरह याद करना पिछड़ेपन की निशानी मानी जा सकती है। लेकिन सवाल यह है कि जब पश्चिम से आई बाजार की संस्कृति ठेठ देसज भारतीय त्यौहारों को अपने व्यापार-कारोबार को बढ़ावा देने और कमाई के लिए इस्तेमाल कर सकता है तो साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया में इन देसज प्रतीकों के जरिए समाज और संस्कृति से जुड़ने की प्रक्रिया को याद करना और उसकी महत्ता को याद करना अवैज्ञानिक और गलत कैसे हो सकता है...बहरहाल यह चर्चा लंबी हो सकती है और फिलहाल यहां मकसद इस प्रवृत्ति को इंगित करना भर है..
करीब दो दशक पहले तक हिंदी की पत्रिकाओं में दीवाली विशेषांकों की बाढ़ दिखती थी...धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान में उन दिनों बेहतर विशेषांक निकालने की होड़ रहती थी। धर्मयुग तो हिंदी के तीन मूर्धन्य ललित निबंधकारों विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय और विवेकी राय के ललित निबंधों को प्रकाशित करता ही करता था। संयोग देखिए कि उन दिनों पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिस जिले में अपनी रिहायश थी, ये तीनों रचनाकार उसके आसपास के ही थे। कुबेरनाथ राय और विवेकी राय ने घोर शहरी युग में भी अपनी रचनात्मक ताप को गाजीपुर जैसी छोटी जगह में रहकर पूरे देश के साहित्यिक जगत में महसूस कराया था। खासकर हिंदी की ललित निबंध विधा में दोनों ने संस्कृति की गहरी धाराओं के साथ जिस तरह देसज प्रतीकों को जोड़ा...वह दिल को छू जाता था। विद्यानिवास मिश्र की रचनाधर्मिता में भी गांव और उसके प्रतीक बार-बार आते थे। लेकिन उसके साथ संस्कृत साहित्य का अवगाहन भी होता रहता था। कई बार खंडवा के रहने वाले निमाड़ी भाषा के मशहूर रचनाकार रामनारायण उपाध्याय की रचनाधर्मिता और ललित साहित्य के दर्शन भी उन विशेषांकों में होते थे। कभी-कभी नर्मदाप्रसाद उपाध्याय की लालित्य शैली मन को मोहती थी...इन रचनाकारों में से सौभाग्यवश नर्मदा प्रसाद उपाध्याय और विवेकी राय ही हमारे बीच हैं....लेकिन इनकी कलम से रचनात्मकता की वह लालित्य धारा कम ही नजर आती है। हालांकि विवेकी राय कहते हैं – ‘अपनी माटी के रागबोध और हृदय के भावबोध सहित मुक्त चिंतन के उपलब्धि वाले परिवेश समकालीन जीवन में लगातार सिकुड़ते जा रहे हैं। ऐसे में क्या आश्चर्य कि अब साहित्य में निबंध विधा की ललित धुरी खिसकने लगे।....लेकिन यह धारा सूखने नहीं पाएगी...कहीं से मुड़कर किसी और नामरूप में उछल पड़े, यह भी संभव है। ’ लेकिन यह धारा सूख रही है...तीज-त्यौहारों का देसज संस्कार और रूप साहित्य की इस धारा को बचाकर रखे हुए था। लेकिन अब बाजारवाद में सामानों को बेचने और पत्रकारीय कर्म के लिए तीज-त्यौहार फिल्मी कलाकारों के ग्लैमरस विचारों को परोसने का बहाना भर रह गए हैं...। लेकिन जब साहित्य के सवाल उठते हैं तो रोना यह कि हमारे यहां पाठक हैं कहां...यानी हमारा रचनाक्रम पाठकोन्मुखी धर्म निभाने में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझता है। इसीलिए अब तीज-त्यौहार पत्रकारिता और साहित्यकर्म में अपने देसज संस्कारों और परंपराओं को याद करने का बहाना तो है, लेकिन सरोकारी रचनाधर्मिता उससे लगातार दूर हुई है।
लेकिन हम अपने पड़ोस में हो रहे रचनात्मक आंदोलनों की तरफ देखने की कोशिश नहीं करते। इतिहासकार भी मानते हैं कि इस देश में सबसे पहले रेनेसां बंगाल में आया...वामपंथ की तीन दशक की शासन यात्रा भी यहीं रही...सत्तर के दशक में वैचारिक और राजनीतिक भूचाल लाने वाले नक्सलवाद की जन्म और कर्मभूमि भी यह बंगाल ही रहा। लेकिन अभी हाल ही में दुर्गापूजा का त्यौहार बीता है। इतने सारे उपलब्धियों और कमजोरियों वाले इतिहास के बावजूद बंगाल के समाज ने अपने साहित्यकर्म को पूर्ववर्ती अंदाज में बचाए रखा है। पत्र-पत्रिकाओं के पूजा विशेषांक इसके गवाह हैं। इसी दीवाली पर हमें पश्चिमी भारत की उस खिड़की की तरफ भी झांक लेना चाहिए, जो मराठी इलाकों में खुलती है। जहां दीपावली विशेषांकों की लंबी परंपरा रही है और इस बार भी जारी है। वहां त्यौहार सिर्फ जिंदगी को जीने और आगे बढ़ाने के माध्यम नहीं हैं...बल्कि साहित्य कर्म और अपनी रचनाधर्मिता के साथ गहरी एकात्मकता बनाए रखने का जरिया भी हैं। ऐसा नहीं कि मराठी और बंगाली इलाके में खुलने वाली खिड़कियों से आने वाली साहित्यिक बयार हमें लुभाती –ललचाती नहीं, लेकिन हम हिंदी वालों की सबसे बड़ी कमजोरी ये है कि हम पहला कदम उठाने में ही हिचकते हैं। स्वतंत्रता आंदोलन ने हिंदी हृदय से इस हीनताबोध को कम करने में बड़ी भूमिका निभाई थी। इसलिए यह कहना कि साहस के बीज हिंदी हृदयों में नहीं हैं तो यह भी एकालाप ही होगा।

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