शनिवार, 12 मार्च 2011

रेटिंग पर टिकी हिंदी विमर्श की दुनिया

उमेश चतुर्वेदी
हिंदी पत्रकारिता एक रोग से काफी पहले से प्रभावित रही है...उसे खालिस हिंदी के विचारक पसंद नहीं रहे हैं। उसे लगता रहा है कि हिंदी में विमर्श हो ही नहीं सकता। उसे अंग्रेजी में सोचने-विचारने वाले विचारक ही पसंद रहे हैं। इसलिए हिंदी अखबारों के विचार पृष्ठों पर अंग्रेजी विमर्श को प्रमुखता से जगह मिलती रही है। कुछ ऐसी ही हालत इन दिनों हिंदी विमर्श की दुनिया की भी है। गोष्ठियों और समारोहों में इन दिनों टेलीविजन पत्रकारिता के नामचीन चेहरे जगह खूब जगह बना रहे हैं। टेलीविजन के पर्दे पर चमकते रहे चेहरों की मांग गोष्ठियों और समारोहों में खूब बन आई है। इनमें भी एंकरिंग कर रहे लोगों की पूछ-परख कहीं ज्यादा है। पत्रकारिता में एक कहावत कही जाती रही है जैक फॉर ऑल...कुछ इसी अंदाज में नई मीडिया से लेकर दुनिया में आ रहे सामाजिक बदलाव को लेकर जब भी चर्चा हो रही है, टेलीविजन के पर्दे पर नुमाया होते रहे चेहरे इन गोष्ठियों की शान बन रहे हैं। अगर चर्चा महिला आरक्षण को लेकर हुई या फिर विमर्श का विषय महिला सशक्तिकरण...हिंदी की दुनिया को दूसरे अनुशासनों के लोगों पर नजर ही नहीं जाती। विमर्श की दुनिया में महिला एंकरों की मांग भी कुछ ज्यादा है। हिंदी अखबारों के संपादकीय पृष्ठों को देखिए तो लगता है कि अंग्रेजी के बिना हिंदी विमर्श अधूरा है। कुछ इसी अंदाज में लगता है कि हिंदी में अगर कहीं कोई विमर्श हो रहा है तो वह सिर्फ टेलीविजन की दुनिया में ही हो रहा है। दिलचस्प बात यह है कि टीआरपी के दौर में सबसे ज्यादा गाली हिंदी की टीवी पत्रकारिता को ही दी जा रही है। पत्रकारिता का नाश करने के लिए हिंदी का विमर्शशील समाज सबसे ज्यादा हिंदी के खबरिया चैनलों को ही जिम्मेदार ठहरा रहा है। लेकिन जब उसे सार्वजनिक समारोहों में कभी वक्ता की जरूरत पड़ती है तो उसका ध्यान सबसे पहले टेलीविजन की दुनिया पर ही जाता है। ऐसे में विमर्श की पहली पसंद बनते हैं एंकर। नई मीडिया से लेकर हिंदी से होते हुए महिला आरक्षण और महिला सशक्तिकरण तक हर जगह विमर्श के लिए ये लोग उपस्थित हो जाते हैं। इनमें कुछ बड़े नाम हैं तो कुछ नए और बेहद अनचीन्हे भी हैं। गोष्ठियों और सेमिनारों के आयोजकों को उनकी पृष्ठभूमि, उनके पुराने काम तक की जानकारी नहीं होती। अभी हाल ही में न्यू मीडिया पर एक राजधानी दिल्ली में एक गोष्ठी हुई..उसमें बुलाए गए ज्यादातर लोग एक दौर तक न्यू मीडिया का विरोध करते थे। ज्यादातर नई मीडिया के बारे में कोई योगदान नहीं था। इसी तरह राजधानी से सटे एक विश्वविद्यालय में महिला सशक्तिकरण पर सेमिनार हुआ तो महिला एंकरों को बुलाया गया। हालांकि उनमें से एक-दो को छोड़कर अधिकांश का कोई काम महिला सशक्तिकरण की दुनिया में कोई योगदान नहीं था। उनकी कोई परख तक नहीं थी। इसी तरह हिंदी की दुनिया को लेकर भी एक गोष्ठी हुई तो वहां भी टेलीविजन पर नुमाया होने वाले चेहरे भी बुला लिए गए। उनमें हिंदी को बिगाड़ने में महती भूमिका निभाने वाले नाम भी शामिल थे।
ऐसा नहीं कि टीवी पर्दे पर नुमाया होने वाले चेहरे दिमागदार नहीं हो सकते...विमर्श की दुनिया में उनका योगदान नहीं हो सकता...लेकिन यह भी जरूरी नहीं कि टीवी पर नुमाया होने वाले सारे चेहरे सचमुच विमर्शशील ही होंगे। सच तो यह है कि टेलीविजन में पर्दे के पीछे की दुनिया सामने नुमाया होने वाली दुनिया से कहीं ज्यादा बड़ी होती है। कई हाथ मिलकर एक चेहरे के जरिए कोई खबर या प्रोग्राम पेश करते हैं। उनमें कहीं ज्यादा दिमागदार और विमर्शशील लोग होते हैं। यह सच है कि इसकी जानकारी आम लोगों को नहीं है। लेकिन अगर कोई विमर्श करने या कराने जा रहा है तो उसे औरों से अलग होना ही चाहिए..कुछ बेहतर भी होना चाहिए। इसलिए उन्हें तो कम से अपने समारोहों में बुलाने वाले लोगों की पृष्ठभूमि या उनके विषय से संबंधित क्षेत्र में काम कर चुके लोगों की जानकारी तो होनी ही चाहिए। अगर ऐसा नहीं है तो काहे के वे आयोजक और काहे का विमर्श।
हिंदी में दरअसल आजकल ज्यादातर विमर्श का नाटक हो रहा है। सबसे बड़ी बिडंबना यह है कि टीआरपी को गाली देने वाला हिंदी के कथित बौद्धिक समाज को सबसे बड़ी चिंता अपने यहां श्रोताओं को जुटाने की रहती है। उन्हें लगता है कि अगर उनके यहां बोलने के लिए किसी लोकप्रिय टीवी चैनल का लोकप्रिय नाम आएगा तो श्रोताओं की भीड़ जुटेगी और उनका कार्यक्रम कामयाब होगा। जहां विमर्श की बुनियाद ही रेटिंग हासिल करने पर आधारित हो, वहां सार्थक विमर्श की उम्मीद भी बेमानी बनी रहेगी। ऐसे में गंभीर और कुछ रचनात्मक बदलाव लाने वाले श्रोताओं का अभाव बना रहेगा। हां, टीआरपी का खेल जारी रहेगा।

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