रविवार, 27 फ़रवरी 2011

साहित्यिक चर्चाओं में गालियां

उमेश चतुर्वेदी
भाषा के अब तक दो ही रूप पढ़ाए जाते रहे हैं- लौकिक और साहित्यिक। संस्कृत चूंकि एक दौर में वेदों की पर्याय मानी जाती रही, लिहाजा यह भाषाई वर्गीकरण वहां लौकिक और वैदिक के तौर पर है। साहित्यिक समारोहों ही नहीं, औपचारिक माहौल में हमारे यहां गालियों के इस्तेमाल से परहेज रहा है। लेकिन पिछले दिनों जयपुर में हुए जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में भारतीय मूल के एक लेखक जीत तायल ने अपनी नई अंग्रेजी पुस्तक के कुछ अंश पढ़े तो उनकी किताब में इस्तेमाल हिंदी की ठेठ देसज गालियों के इस्तेमाल ने प्रबुद्ध लेखकों को भले ही नहीं चौंकाया, लेकिन स्थानीय पाठकों को हैरत जरूर हुई। गालियों का सार्वजनिक इस्तेमाल वह भी औपचारिक आयोजनों में होने का जयपुर वासियों के लिए शायद यह पहला अनुभव था। उनकी चिंताओं की वजह यही रही। वैसे अपने यहां मांगलिक कार्यक्रमों में गाली देने का रिवाज रहा है। शादी-विवाह के मौकों पर समधी और रिश्तेदारों की खातिरदारी तब तक पूरी नहीं मानी जाती रही है, जब तक उन्हें गालियों के माहौल में खिलाया-पिलाया न जाए। रामचरित मानस में राम विवाह के वक्त गालियों के इस्तेमाल का चित्रण तुलसीदास ने भी किया है। लेकिन उन गालियों में एक हद तक शिष्टता होती थी। अगर इन गालियों का सामाजिक अध्ययन किया जाय तो पता चलेगा कि गालियों में शिष्टाचार दरअसल जातिगत आधार पर था। नीची जातियों में मंगल मौकों पर गाई जाने वाली गालियां उच्चतर जातियों की गालियों से कहीं ज्यादा फूहड़ होती थीं। तब माना जाता था कि शिक्षा के प्रसार के चलते उच्चतर जातियों में गालियों का शिष्टाचार कुछ दूसरे अंदाज में दिखता है। उत्तर भारत में होली के मौके पर गालियों की बौछार की परंपरा रही है। दुनिया के सबसे पुराने शहर के खिताब से नवाजे जाते रहे वाराणसी में होली का कवि सम्मेलन मशहूर है। इस सम्मेलन में ठेठ गालियों से ही समाज के कुल-शील लोगों का स्वागत होता रहा है। गालियों के स्वागत की साख ऐसी है कि अगर शहर के सम्मानजन्य लोगों का इस सम्मेलन में नाम नहीं लिया जाता तो उसका मतलब यही माना जाता है कि अब उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं रही। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के भोजपुरी इलाके में गोंड़ऊ नाम लोकनृत्य का प्रचलन रहा है। डमरू जैसे बड़े वाद्य हुड़का और मंजीरे की थाप पर इस लोकनृत्य के प्रमुख कलाकार सामाजिक समस्याओं को उभारते रहे हैं। इन लोकनृत्य़ों में भक्ति की धारा भी बहती रही है। लेकिन उनका विदूषक ठेठ और गंदी गालियों से ही लोगों का स्वागत करता रहा है। इन विदूषकों के बारे में भी माना जाता रहा है कि अगर उन्होंने अपनी गालियों में गांव के प्रमुख लोगों का नाम नहीं लिया तो उसका मतलब यह है कि उनकी नजर में उस रसूखदार की कोई खास वकत नहीं है। जाहिर है कि भारतीय समाज में गालियों की परंपरा और गाहे-बगाहे की सामाजिक मान्यता रही है। लेकिन इन गालियों पर आज अगर चर्चा हो रही है तो इसकी बड़ी वजह यह है कि अब इन गालियों ने नागर समाज की सामाजिक परिधि को तोड़ डाला है। वह लौकिक से साहित्यिक गढ़ों में सेंध लगाती जा रही है। इसकी शुरूआत आपको यथार्थवादी रचनाओं में दिखती है। नई कहानियों में जब गांवों और समाज के निचले तबके को रचना का आधार बनाना शुरू किया तो वहां गालियों की बौछार शुरू हो गई। निश्चित तौर पर हंस और कथादेश में छपी कहानियों से इसकी शुरूआत होती है। हिंदी फिल्मों में गालियों की शुरूआत फूलन देवी की जिंदगी पर आधारित फिल्म बैंडिट क्विन में होती है। मां-बहन की गालियां इस फिल्म में धड़ल्ले से इस्तेमाल हुई। विवाद तो तब भी हुआ। कहानियों में गालियों की बौछारों को प्रकाशित करने वाले हंस ने भी इस फिल्म में आई गालियों पर बहस कराई। हाल के दिनों में आई फिल्म इश्किया में भी गालियों की जमकर इस्तेमाल हुआ। हाल के दिनों में आई फिल्म नो वन किल्ड जेसिका और ओंकारा तक में गालियों का जमकर इस्तेमाल हुआ है।
यथार्थवादी साहित्य और सिनेमा ने गालियों के देसज रूपों को भले ही स्वीकार कर लिया है, लेकिन अखबारों और मुख्यधारा की दूसरी पत्रकारिता में अभी इतना साहस नहीं है। हालांकि कौन नहीं जानता कि अखबारों और टेलीविजन के न्यूज रूमों में तनाव के वक्त गालियों का कितनी तेजी से इस्तेमाल होता है। लेकिन यह सिर्फ लौकिक ही रह जाता है, अखबार या पत्रिका के पन्ने और टीवी के पर्दे पर आकर साहित्यिक रूप धारण करने से बच जाता है। और ऐसा होता भी है तो इसलिए, क्योंकि माध्यमों के ये रूप अपने को कम से कम अब भी संस्कारित होने या दिखने का दबाव महसूस करते हैं। यह दबाव ही है कि फिल्मों या साहित्य में ठेठ गालियों की बाढ़ नैतिकता समेत तमाम दूसरे सवालों को उछालने के लिए मजबूर कर रही है। लेकिन यह भी सच है कि लोक संस्कृति का अंग रहने के बावजूद सभ्य समाज गालियों को अपना दैनंदिन साथी नहीं मानता रहा है। वह मांगलिक कार्यों या होली तक ही सीमित रही है। गोंड़ऊ लोकनृत्य में काम करने वाले विदूषक भी सामान्य जिंदगी में गालियों के इस्तेमाल से परहेज करते रहे हैं। कहना न होगा कि यह दबाव समाज पर काम करता रहेगा। इसीलिए साहित्य और फिल्मों में गालियों की बाढ़ पर सवाल उठते रहेंगे।

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