सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

रामजी बाबू की याद

उमेश चतुर्वेदी
नियति ने लेखन और पत्रकारिता की दुनिया में ढकेलने का निश्चय कर लिया था, शायद यही वजह है कि पाठ्यक्रम से इतर किताबें और पत्रिकाओं के पढ़ने का चस्का कम ही उम्र में लग गया था। पूर्वी उत्तर प्रदेश के आखिरी छोर पर स्थित बलिया में राजेंद्र प्रसाद के प्रतिभा प्रकाशन की वजह से देश-विदेश की अहम पत्रिकाएं मिलती रही थीं। इसी बुक स्टाल पर पहली बार हिंदी की स्थिति को लेकर शायद हिंदुस्तान में एक लेख पढ़ा था और उसके लेखक की भाषा ने जैसे मोह ही लिया था। बाद के दिनों में जब कादंबिनी से साबका पड़ा तो उस लेखक के सारगर्भित लेख गाहे-बगाहे पढ़ने को मिलने लगे। रामजी प्रसाद सिंह उर्फ रामजी बाबू से मानसिक परिचय की नींव ऐसे ही पड़ी। उन्हीं दिनों उनसे मिलने की इच्छा होने लगी थी। इसी बीच भारतीय जनसंचार संस्थान में दाखिला मिल गया और दिल्लीवासी हो गया। यहां पढ़ाई के दौरान पता चला कि रामजी बाबू यहां पढ़ा चुके हैं। लेकिन उनसे मुलाकात का सौभाग्य नहीं मिला। उनसे मुलाकात सबसे पहले 1995 में तब हुई, जब बनारस वाले रत्नाकर पांडे ने दिल्ली के विज्ञान भवन में राजीव गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन करवाया। जिसका तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उद्घाटन किया था। सुनहरीबाग मस्जिद के पास बस से उतरकर मैं जब मौलाना आजाद रोड पर विज्ञान भवन के लिए चला तो उसी वक्त मेरे आगे-आगे खद्दर का कुर्ता-पाजामा पहने एक बुजुर्ग शख्स चल रहे थे। मुझे तब तक पता नहीं था कि आगे-आगे चल रहे सज्जन वे रामजी बाबू हैं, जिनसे मिलने की इच्छा बरसों से मेरे मन में दबी हुई है। उनसे परिचय भी कुछ अजीब ढंग से हुआ। विज्ञान भवन में घुसते वक्त जैसी की रवायत है, एसपीजी वालों के रूखे व्यवहार का सामना करना पड़ा। बात इतनी तक होती तो गनीमत थी। लेकिन उस दिन तैनात एसपीजी वाले तकरीबन अपमानजनक व्यवहार ही कर रहे थे। इससे मेरा ठेठ गंवई मन उबाल खा गया और उनसे उलझ पड़ा। दिलचस्प बात यह है कि मेरे ठीक पहले हाथ में पास थामे रामजी बाबू के साथ भी एसपीजी वाले रूखा ही व्यवहार कर रहे थे। लेकिन जैसा कि उनका स्वभाव था, चेहरे पर हल्की मुस्कराहट लिए हुए इस अनपेक्षित व्यवहार को वे ऐसे टाल रहे थे, जैसे इस व्यवहार की उन्हें अपेक्षा ही थी। लेकिन मेरा उबाल खाना उन्हें थोड़ा असहज लगा और पीछे मुड़कर उन्होंने समझाया, ये तो पुलिस वाले हैं, आप क्यों अपना आपा खोते हैं और पीठ पर हाथ रखे मुझे लेकर अंदर चले गए। उनके इस अपनापाभरे व्यवहार ने मुझे अंदर तक भिगो दिया। उनकी सहजता और शालीनता मुझे अंदर तक भिगो गई। इसके बाद से उनका कायल हो गया। पत्रकारिता की दुनिया में वे कम ही विचरण करते थे। लेकिन कभी-कभी किसी मीटिंग-समारोह में आते तो मैं उनसे मिलने जाने की कोशिश कर ही रहा होता कि वे पास चले आते। हर बार मैं उनसे एक ही आग्रह करता था कि कुछ लिखिए। एक बार वरिष्ठ पत्रकार और भाई अवधेश कुमार ने मेरे आग्रह को सुनकर चुटीली टिप्पणी भी कर डाली थी- रामजी बाबू सन्यासी हो गए हैं। इसके जवाब में उनकी निश्छल मुस्कराहट ही रह गई थी।
बाद में जी न्यूज में जब ज्वाइन किया तो वहां एक अक्खड़ किस्म के सहयोगी से पल्ला पड़ा। शुरू के दिनों में उस शख्स से बचने की कोशिश करता। बाद में पता चला कि यह अक्खड़ सहयोगी रोहिताश्व तो अपने रामजी बाबू का ही बेटा है तो उनसे घनिष्ठता बढ़ गई। घनिष्ठता से ही पता चला कि रोहिताश्व की अक्खड़ता की असल वजह तो रामजी बाबू की सादगी और ईमानदारी ही है। जिसका उन्हें कम से कम कोई आर्थिक फायदा कभी नहीं मिला। ईमानदारी की राह पर चलते लोगों के सामने जब बेईमान लोग आगे बढ़ते हैं तो ईमानदार शख्स को भले ही परेशानी नहीं होती, लेकिन उसकी संतानों को ईमानदारी का औचित्य ही परेशान करने लगता है। सवालों का दिन रात का यह सामना ही उन्हें अक्खड़ और बदमिजाज बना देता है। बहरहाल रोहिताश्व से जानपहचान बढ़ने और तमाम वादों के बाद उसके घर नहीं जा सका। रामजी बाबू से उनके घर जाकर नहीं मिल पाया। पत्रकारिता जगत के इस मनीषी को घर जाकर देखने की इच्छा मन में ही रह गई। जो शख्स हिंदुस्तान समाचार जैसी एजेंसी का महाप्रबंधक रह चुका हो, इसके बावजूद वह मौजूदा सांसारिक माया से निर्लिप्त रह पाया हो, ऐसा कम ही होता है। रामजी बाबू उसी धारा के पत्रकार थे। भारतीय पत्रकारिता की आज भी अगर नाक ऊंची है तो उसमें रामजी बाबू जैसे पत्रकारों का योगदान और त्याग सबसे ज्यादा है।

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