गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

ताकि बन सके रोशनी की नई लकीर

उमेश चतुर्वेदी
"कोई भी बुद्धिमान शासक किसी ऐसे वचन का निर्वाह नहीं कर सकता और न ही उसे करना चाहिए..जिससे उसे नुकसान होता हो और जब उस वचन को पूरा करने के लिए बाध्यकारी कारण समाप्त हो चुके हों " - द प्रिंस  में मैकियावेली।
मशहूर लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता महाश्वेता देवी इन दिनों जिस तरह से ममता बनर्जी पर हमले कर रही हैं. ममता को फासिस्ट कहने से भी अब महाश्वेता देवी को झिझक नहीं रही। इससे मैकियावेली का यह कथन एक बार फिर याद आता है। माओवादी किशनजी की मुठभेड़ में हुई मौत के बाद तो वरवर राव तो ममता का विरोध कर ही रहे हैं, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और दूसरी वामपंथी पार्टियां भी ममता के खिलाफ हो गई हैं।

रविवार, 6 नवंबर 2011

प्रशासन के लिए अंग्रेजी जरूरी क्यों?

हिंदी और भारतीय भाषाओं के लिए यूपीएससी के सामने 16 साल तक लंबा धरना चला चुके और 29 दिनों तक आमरण अनशन पर बैठे रहे राजकरण सिंह का उनके गांव बाराबंकी जिले के विष्णुपुरवा में 31 अक्टूबर को हो गया। भारतीय भाषाओं और हिंदी की संघलोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में क्या उपयोगिता हो सकती है...उसे लेकर उन्होंने एक लेख लिखा था। वही लेख श्रद्धांजलि स्वरूप यहां पेश है।
राजकरण सिंहयूपीएससी ने सिविल सर्विसेज, प्रीलिम्स 2011 के लिए जो नया पाठ्यक्रम घोषित किया है उसमें अंग्रेजी विषय को अनिवार्य बना दिया गया है। अभी तक इसके दो प्रश्नपत्र होते थे। एक सामान्य ज्ञान का और दूसरा किसी एक ऐच्छिक विषय का जिसे विद्यार्थी अपनी रुचि के अनुसार चुनता था। नई परीक्षा योजना के तहत इस विषय वाले प्रश्नपत्र के स्थान पर 200 अंकों का एक नया प्रश्नपत्र होगा, जिसमें से 30 अंक अंग्रेजी समझने की कुशलता के होंगे।

शनिवार, 5 नवंबर 2011

पुस्तक समीक्षा

हिंदी आलोचना के छोटे मगर जरूरी अध्याय
उमेश चतुर्वेदी
क्या साहित्य को राजनीति के निकष पर कसा जा सकता है, आदर्श और यथार्थ की साहित्य में कितनी भूमिका होनी चाहिए, हिंदी साहित्य में बहस-चर्चा होती रहती है। साहित्य के बारे में कहा जाता रहा है कि वह समाज से ही मिट्टी-पानी ग्रहण करता है। जाहिर है, इसी मिट्टी पानी के एक रूप राजनीति भी है। इस तर्क के आधार पर तो साहित्य को राजनीति का अनुगामी और दर्पण भी होना चाहिए। लेकिन साहित्य समाज का दर्पण होते हुए भी वैसा दर्पण नहीं है, जो समाज के चेहरे को हू-ब-हू पेश कर दे। साठ के दशक के महत्वपूर्ण साहित्य आलोचक आचार्य नलिन विलोचन शर्मा साहित्य को ऐसा दर्पण मानते हैं, जो कुछ और भी दिखाता है और आगे की बात करता है। वे कहते हैं – साहित्य मिट्टी से पोषक तत्व प्राप्त करता है, किंतु अगर उसे मिट्टी से ज्यादा कुछ बनना है तो उसे आकाश की ओर उपर उठना ही पड़ता है।इस तरह वे साहित्य और राजनीति की सीमाएं भी निर्धारित कर देते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी के प्रोफेसर और आलोचक गोपेश्वर सिंह के संपादन में आई पुस्तकनलिन विलोचन शर्मा- संकलित निबंध से गुजरते हुए नलिन विलोचन शर्मा की ऐसे कई साहित्यालोचन और उसकी सैद्धांतिकता से रूबरू हुआ जा सकता है।

रविवार, 23 अक्तूबर 2011

तीज-त्यौहारों पर साहित्यकर्म की याद

उमेश चतुर्वेदीहर साल दीवाली जैसे – जैसे नजदीक आती है...अपने शहर की पत्रिकाओं की दुकान याद आने लगती है...इसलिए नहीं कि वहां हर साल दीपावली खास दीयों की रोशनी में मनाई जाती थी...इसलिए भी नहीं कि वहां दीपावली पर पत्रिकाओं और किताबों की खरीद पर खास छूट मिलती है...पत्रिकाओं की वह दुकान इसलिए याद आती थी कि तब पत्रिकाओं के दीपावली विशेषांकों की बाढ़ रहती थी...हर पत्रिका के दीपावली विशेषांक में एक से बढ़कर एक रचनाएं...लेखों का खजाना...क्या नहीं रहता था। घोर उपभोक्तावाद के इस दौर में पत्रिकाओं की इस तरह से याद ...रचनाओं की आहट की खोज...प्रगतिकामियों को असहज कर सकती है

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

इतिहास ब-जरिए ज्ञान-विज्ञान


अब तक इतिहास को सिर्फ दो ही नजरिए से ज्यादा देखा-समझा गया है। इसी नजरिए से उसे लिपिबद्ध भी किया गया है। शासकों की वंशावली और उनके जीत-हार, उनकी शासन व्यवस्था, उनके अत्याचार और उनके जनहित की योजनाओं के आधार पर ही अब तक इतिहास लेखन हुआ है।

रविवार, 9 अक्तूबर 2011

हरियाणवी फिल्म की भावी चुनौतियां

उमेश चतुर्वेदी
हरियाणा अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में हर बार एक सवाल जरूर उठता है...कि जब भोजपुरी जैसी क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों का करोड़ों का बाजार हो सकता है तो हरियाणवी भाषा की फिल्मों का बाजार क्यों नहीं बनाया जा सकता है। यह सवाल इसलिए भी वाजिब है कि भारत में भोजपुरी भाषाभाषियों की संख्या करीब चार करोड़ है, जबकि हरियाणवी या उसकी तर्ज वाली हिंदी बोलने वालों की संख्या इसकी तुलना में कुछ ही कम यानी तीन करोड़ है। जाहिर है कि हरियाणवी सिनेमा का एक बड़ा बाजार बनाया जा सकता है। तीसरे हरियाणा फिल्म फेस्टिवल के दौरान 2010 में हरियाणवी की पहली फिल्म चंद्रावल की नायिका ऊषा शर्मा से लगायत हरियाणा की माटी के फिल्मी लाल यशपाल शर्मा और सतीश कौशिक तक यह सवाल उठाते रहे हैं और इसी तर्ज पर सरकार से मांग करते रहे हैं। यह सवाल चौथे हरियाणा फिल्म फेस्टिवल में भी उठा।

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

हिंदी के गौरव का दिन

उमेश चतुर्वेदी
तीन साल पहले की बात है....दिल्ली के प्रेस क्लब में एक हस्ताक्षर अभियान चलाया जा रहा था...इलाहाबाद में रह रहे एक साहित्यकार के बेटे उन्हें मानव संसाधन विकास मंत्रालय से आर्थिक मदद दिलाने के लिए इस अभियान में जुड़े हुए थे। उन्होंने इन पंक्तियों के लेखक के सामने भी वह चिट्ठी रखी, यह कहते हुए कि अगर उचित लगे तो इस पर हस्ताक्षर कर दो... पता नही उस अभियान ने उन्हें आर्थिक दुश्चिंताओं से मुक्त किया या नहीं...अब अमरकांत को भारतीय साहित्य के सर्वोच्च पुरस्कार मिलने की घोषणा हो चुकी है...लेकिन यह पुरस्कार भी उनकी जिंदगी को आर्थिक तौर पर पूरी तरह सुरक्षित शायद ही बना पाए। श्रीलाल शुक्ल को उनके ही साथ ज्ञानपीठ ने सम्मानित करने का निर्णय लिया है।

मंगलवार, 27 सितंबर 2011

हारूद का रद्द होना

उमेश चतुर्वेदी
कश्मीर घाटी में शांति लाने की बारूदी और राजनीतिक कोशिशों के बीच संस्कृति की धारा अब तक खामोश ही रही है...जिस कश्मीरी भाषा ने ललद्यद जैसी लब्धप्रतिष्ठ और क्रांतिकारी कवियत्री को पैदा किया हो...वहां की संस्कृति और साहित्यिक धारा का शांति के पक्ष में न उतरने की वजह भले ही बारूद की दुर्गंध और संगीनों की छांह रही हो...लेकिन पहली बार घाटी में संस्कृति की धारा उठती नजर आई थी। कश्मीर विश्वविद्यालय के श्रीनगर कैंपस और श्रीनगर के दिल्ली पब्लिक स्कूल में चौबीस से छब्बीस सितंबर तक कश्मीरी साहित्य का अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हारूद होना था।

बुधवार, 21 सितंबर 2011

हिंदी को भी अन्ना का इंतजार

उमेश चतुर्वेदी
हिंदी पखवाड़े की धूम है...हिंदी को लेकर साल भर तक नाक-भौं सिकोड़ने वालों की जुबान बदल गई है...खासतौर पर सरकारी दफ्तरों में गोष्ठियों और सेमिनारों की धूम है...पूरे साल तक कोने में बैठे उंघता-सा दिखता रहा राजभाषा विभाग इन दिनों जा गया है...वैसे पूरे साल सोने और उंघने की ड्यूटी निभाते राजभाषा विभाग को 1951 से ही हिंदी पखवाड़े में जागने की आदत है...हर साल वह संकल्प भी लेता है...अपने कुछ चहेते साहित्यकारों या साहित्य के नाम पर तुकबंदी करने वालों को उपकृत करने का मौसम भी होता है हिंदी पखवाड़ा...लिहाजा लोकप्रिय किस्म के कवियों को बुलाकर उन्हें शॉल-श्रीफल पकड़ा कर उनसे चार-छह कविताएं सुन ली जाती हैं

शनिवार, 30 जुलाई 2011

पच्चीस साल का हंस

उमेश चतुर्वेदी
हिंदी में जब सांस्कृतिक पत्रिकाओं की मौत हो रही थी, धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी पत्रिकाओं के दिन लदने लगे थे, हिंदीभाषी इलाके की बौद्धिक और राजनीतिक धड़कन रह चुकी पत्रिका दिनमान के दम भी उखड़ने लगे थे, उन्हीं दिनों हंस को पुनर्जीवित करने का माद्दा दिखाना ही अपने आप में बड़ी बात थी। लेकिन कथा सम्राट प्रेमचंद का यह बिरवा भले ही पचास के दशक में सूख गया था, उसे फिर से अपनी उम्मीदों के जरिए खाद-पानी देकर ना सिर्फ जिंदा करना, बल्कि उसमें कोंपले निकालना राजेंद्र यादव के जीवट की ही बात थी। 1986 में पुनर्जीवित हुआ हंस अब पच्चीस साल का हो गया है और हिंदी क्षेत्र की सांस्कृतिक धड़कनों के प्रतीक के तौर पर राज कर रहा है। जिस समय आप ये पंक्तियां पढ़ रहे होंगे, दिल्ली के ऐवान-ए-गालिब सभागार में हंस के पुनर्जन्म की पच्चीसवीं सालगिरह की तैयारियां अपने चरम पर होंगी। नई कहानी आंदोलन के जरिए हिंदी कहानी के केंद्र में स्थापित हो चुके राजेंद्र यादव को हंस के बाद पैदा हुई साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्कारों वाली पीढ़ियां उनके विमर्शों के लिए कहीं ज्यादा जानेगी, बनिस्बत उनके कथा लेखन के लिए। राजेंद्र यादव भी मानते हैं कि हंस के संपादन के साथ ही उनका कथा लेखन कहीं पीछे छूट गया। लेकिन उन्हें इसका गम इसलिए नहीं है, क्योंकि उन्होंने जो साहित्य की दुनिया में हस्तक्षेप के लिए हंस का जो बिरवा लगाया था, जरूरी विमर्शों के जरिए उसने ना सिर्फ रचनात्मक हस्तक्षेप किया है, बल्कि हिंदी के वैचारिक धरातल को जरूरी आधार भी मुहैया कराया है। हर महीने संपादकीय के तौर पर छपने वाला उनका स्तंभ मेरी-तेरी उसकी बात की हिंदी क्षेत्र में अगर प्रतीक्षा की जाती है तो इसीलिए कि उसमें हर बार कुछ नया, कुछ ज्यादा बौद्धिक उत्तेजक और खास होता है। कथाकार राजेंद्र यादव की कलम के इस नवोन्मेष ने उन्हें साहित्यिक और सांस्कृतिक ही नहीं, बल्कि राजनीतिक विमर्श के केंद्र में ला खड़ा किया है। इस एक स्तंभ ने उन्हें बौद्धिक लोकप्रियता तो दिलाई ही, इसकी कीमत भी उन्हें चुकानी पड़ी। कई बार उनके विवादित विचारों ने राजनीतिक बवंडर भी खड़ा किया। लेकिन राजेंद्र यादव अपनी बात पर टिके रहे।
राजेंद्र यादव की एक खासियत यह है कि आप उनसे भले ही असहमत हों, लेकिन विमर्श में वे आपके विचारों को भी स्पेस देने का लोकतांत्रिक माद्दा रखते हैं। हंस की सालगिरह पर होने वाले एक कार्यक्रम में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र आर्गनाइजर के संपादक रहे शेषाद्रि चारी को भी बोलने के लिए बुलाया था। हंस की चौबीसवीं साल गिरह के कार्यक्रम में कथाकार और महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति विभूति नारायण राय को बुलाया था। तब विभूति नारायण राय हिंदी लेखिकाओं की आत्मकथाओं पर विवादित बयान देकर अलोकप्रिय हो चुके थे। हंस के मंच पर इसके लिए उनका जोरदार विरोध हुआ। राजेंद्र यादव ने उस वक्त के छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन को भी बुलाया था। तब विमर्श का विषय था – वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति। तब सलवा जुडूम के समर्थन के लिए विश्व रंजन का विरोध होना तय था। लेकिन विश्वरंजन नहीं आए। अकेले विभूति नारायण राय को ही लानत-मलामत झेलनी पड़ी। लानत-मलामत करने वाले वही लोग थे, जिनके विचारों की झलक राजेंद्र यादव के लेखन में भी दिखती है और जिसके समर्थक राजेंद्र यादव भी हैं। लेकिन इस विरोध प्रदर्शन से राजेंद्र यादव दुखी थे। उन्होंने कहा भी कि लोकतांत्रिक समाज में सक्रिय संवाद की गुंजाइश बनी रहनी चाहिए, चाहे वह संवाद विरोधी विचार से ही क्यों न हो।
हंस में प्रकाशित कहानियों की चर्चा के बिना ये लेख अधूरा ही रहेगा। हंस ने सृंजय जैसे कथाकार की कहानी कामरेड का कोट छापकर जैसे हिंदी साहित्य में नया भूचाल ही ला दिया था। उदय प्रकाश की कहानी और अंत में प्रार्थना तो जैसे बदलते दौर का दस्तावेज ही है। इस कहानी को भी पाठकों की कचहरी में लाने का श्रेय हंस को ही जाता है। उदय प्रकाश की ही कहानी पीली छतरी वाली लड़कियां और मोहनदास- जिस पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला- भी हंस ने ही प्रकाशित किया। गीतांजलिश्री, लवलीन, महेश कटारे, प्रियंवद, सारा रॉय जैसे ढेरों कहानीकारों की उद्वेलित करती कहानियों से हिंदी पाठकों को परिचित कराने का जरिया हंस ही बना। साहित्यिक और सांस्कृतिक पत्रकारिता विरोधी माहौल में हंस ने हिंदी पाठकों को संस्कारित करने और उनकी जरूरतें पूरी करने का भी बड़ा काम किया है। आर्थिक और राजनीतिक झंझावातों को झेलने के बावजूद अगर हंस जिंदा है तो उसके लिए राजेंद्र यादव की जीजिविषा ही बड़ी वजह है।

बुधवार, 27 जुलाई 2011

इस राह का अंत नहीं


उमेश चतुर्वेदी
सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू अपने सामाजिक सरोकारों वाले फैसले के लिए जाने जाते हैं। कानून की नीरस किताबों और पेंचीदगियों से उलझने वाले न्यायविद के अलावा भी उनकी एक छवि है। कम से कम मध्य प्रदेश के जिस मालवा इलाके से वे आते हैं, वहां के साहित्यिक और सांस्कृतिक हलकों में उनकी संवेदनशील उपस्थिति नजर आती है तो इसकी वजह यह है कि साहित्य की गंग-जमुनी धारा में उनकी दिलचस्पी है। लेकिन हाल ही में इंदौर में भरोसा न्यास के एक कार्यक्रम की अध्यक्षता करते वक्त उन्होंने जो मांग रखी है, उसे आसानी से स्वीकार नहीं किया जा सकता। इस कार्यक्रम में निदा फाजली जैसे नामचीन शायर की मौजूदगी के बीच उन्होंने हिंदवी संस्कृति के मशहूर शायर गालिब को भारत रत्न देने की मांग दोहरा डाली। दरअसल वे दिल्ली में हर साल होने वाले अंतरराष्ट्रीय मुशायरा जश्न ए बहार में अपनी ये मांग पहले ही कर चुके हैं। मजे की बात यह है कि इंदौर में उन्होंने इसके लिए एक प्रस्ताव भी रख दिया और मालवा के तमाम बड़े पत्रकारों ने इसे लगे हाथों समर्थन भी दे डाला। प्रबुद्ध समझे जाने वाले लोगों ने इस मांग की जरूरत और उसके निहितार्थों को समझे बिना जिस तरह समर्थन दिया, उससे साफ है कि लोग इस मांग के दूरगामी असर को नहीं समझ पा रहे हैं।
गालिब की महानता पर किसी को शक नहीं हो सकता। उनकी शायरी के कायल वे लोग भी हैं, जिन पर देश की गंग-जमुनी संस्कृति को नुकसान पहुंचाने का आरोप है। लेकिन सवाल यह है कि क्या डेढ़ सौ साल पहले जिसने इस दुनिया को अलविदा कह दिया, उसे भारत रत्न जैसे सम्मान की दरकार है। गालिब की मौत 15 फरवरी 1869 को दिल्ली में हुई थी। फाकामस्ती के इस शायर की अहमियत और इज्जत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके गुजरने के डेढ सौ साल बीतने के बाद भी अपनी बात को गहरे तक पैठाने के लिए आज भी हम में से कई लोग उनकी शायरी का सहारा लेते है। ऐसे में क्या भारत रत्न देकर उनके साथ न्याय किया जा सकता है। जस्टिस मार्कंडेय काटजू का तर्क है कि जब सरदार पटेल और भीमराव अंबेडकर को उनकी मौत के बरसों बाद भारत रत्न दिया जा सकता है तो मिर्जा गालिब को क्यों नहीं। सरदार पटेल और अंबेडकर की तुलना मिर्जा गालिब से कम से कम एक स्तर पर नहीं की जा सकती। दोनों हालिया इतिहास की हस्तियां रहे हैं और आजाद भारत के बीच उन्होंने भी सांस ली है। अगर सिर्फ महानता के ही आधार पर ऐतिहासिक हस्तियों को भारत रत्न दिए जाने की परंपरा शुरू हो गई तो यह निश्चित जानिए कि भारतीय इतिहास की अंधेरी और उजली दोनों गलियों से ऐसे इतने नाम निकलने शुरू हो जाएंगे, जिन्हें भारत रत्न देते देते हम थक जाएंगे और शायद यह सूची कभी खत्म नहीं हो सकती। अगर मिर्जा गालिब को भारत रत्न सम्मान दिया गया तो हमारे विद्वत जन और संस्कृति प्रेमी बाल्मीकि से लेकर भास, कालिदास, भर्तृहरि लगायत मध्यकाल में सूर-तुलसी-कबीर और तेनाली राम तक पहुंच जाएंगे। कुछ लोगों के लिए मंगल पांडे और कुंवर सिंह तो कुछ के लिए खुदी राम बोस और बंकिमचंद्र भी भारत रत्न के लिए उपयुक्त व्यक्तित्व नजर आने लगेंगे। चाणक्य और चंद्रगुप्त से लेकर अल्लाउद्दीन खिलजी और न जाने कितने नाम भारत रत्न की इस सूची में शामिल करने की मांगें उठने लगेंगी। आज भी एक तबका ऐसा है, जो बार-बार पृथ्वीराज चौहान की अस्थियां अफगानिस्तान से लाने की मांग करता रहता है। उनकी नजर में पृथ्वीराज चौहान भी भारत रत्न के हकदार हो सकते हैं।
भारत में 1990 के दशक से क्षेत्रीय अस्मिताओं की पुनर्पहचान का एक नया दौर चल पड़ा है। राजनीतिक तौर पर ये अस्मिताएं अपनी ताकत हासिल कर भी रही हैं और अपने लिए नए प्रतीक और महानता के नए व्यक्तित्व भी तलाश भी कर रही हैं। भारतीय संविधान के दायरे में ही उनका अस्मिताबोध जारी है। एक – दो बार दबी जबान से महात्मा फुले और पेरियार को भी भारत रत्न देने की मांग उठी भी है। लेकिन भारत रत्न को लेकर कम से कम एक राष्ट्रीय सहमति के बोध की अंतर्धारा हमारे राष्ट्रीय मानस में बह रही है और वह इन शख्सियतों को महान मानते हुए भी कम से कम उन्हें भारत रत्न के विवाद से दूर रखना चाहती हैं। आम धारा तो यही मानती है कि निकट इतिहास में जिस शख्सियत ने भारतीयता को नए पायदान पर पहुंचाया है और अपनी सार्वजनिक सेवा के जरिए भारतीयता के कल्याण में योगदान दिया है, उसे ही भारत रत्न दिया जाना चाहिए। याद कीजिए, जब अंबेडकर और पटेल को भारत रत्न से नवाजा गया था। तब भी भारत में एक वैचारिक धारा ऐसी थी, जिसका मानना था कि पटेल और अंबेडकर की शख्सियत की पहचान भारत रत्न से भी आगे की है। यह भी सच है कि उन्हें राजनीतिक हितों के लिए भारत रत्न से नवाजा गया था। यही वजह है कि तब सवाल भी उठे थे। बेहतर तो यह होगा कि दूरवर्ती इतिहास की शख्सियत को भारत रत्न की परिधि से दूर ही रखा जाय। इससे नए विवादों से दूर रहने में मदद ही मिलेगी। अन्यथा अगर गालिब और तुलसी को भारत रत्न दिया जाना शुरू हो गया तो यकीन मानिए क्षेत्रीय अस्मिताओं की पहचान तलाश रहे समुदाय अपने इतिहास की शख्सियतों को भारत रत्न दिलाने के अभियान पर निकल पड़ेंगी। निश्चित तौर पर तब इन मांगों से निबटना आसान नहीं होगा और ऐतिहासिक शख्सियतों को भी शायद ही यह विवाद पसंद हो।

गुरुवार, 21 जुलाई 2011

प्रतिरोध का सिनेमा अभियान का पहला बलिया फिल्म फेस्टिवल

2006 से जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित प्रतिरोध का सिनेमा अभियान का उन्नीसवां और बलिया का पहला प्रतिरोध का सिनेमा फिल्म फेस्टिवल आगामी 10 और 11 सितम्बर को बलिया के बापू भवन टाउन हॉल में सुबह 10 बजे से होने जा रहा है। टाउन हॉल बलिया बलिया रेलवे स्टेशन के बहुत नजदीक है। जल्द ही हम अपने ब्लॉग www.gorakhpurfilmfestival.blogspot.comपर कार्यक्रम का विस्तृत ब्यौरा देंगे।
इस फेस्टिवल में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय महत्व के वृत्त चित्र, लघु फिल्म और फीचर फिल्मों के अलावा संकल्प, बलिया द्वारा भिखारी ठाकुर के प्रसिद्ध नाटक बिदेशिया का मंचन भी किया जाएगा। इसके साथ ही गोरख पाण्डेय की कविता पोस्टरों और जन चेतना के चितेरे के नाम से प्रगतिशील चित्रकार चित्त प्रसाद, जैनुल आबेदीन और सोमनाथ होड़ के प्रतिनिधि चित्रों की प्रदर्शनी भी आयोजित की जा रही है। फिल्म फेस्टिवल में प्रमुख भारतीय फिल्मकारों के शामिल होने की भी संभावना है।
प्रतिरोध के सिनेमा अभियान के दूसरे फिल्म फेस्टिवलों की तरह यह फेस्टिवल भी बिना किसी सरकारी, गैर सरकारी और एन जी ओ की स्पांसरशिप के आयोजित किया जा रहा है। प्रतिरोध की संस्कृति के इच्छुक ईमानदार सामन्य जन ही इसके स्पांसर हैं। इसलिए आपसे अनुरोध है कि इस आयोजन में हर तरह से शामिल होकर प्रतिरोध का सिनेमा अभियान को सफल और मजबूत बनाएँ। इस पूरे आयोजन में प्रवेश नि:शुल्क है और किसी भी प्रकार के औपचारिक निमंत्रण की जरुरत नही है। इस बारे में और जानकारी संकल्प ,जन संस्कृति मंच, बलिया के सचिव आशीष त्रिवेदी से उनके फोन नंबर 09918377816 या ashistrivedi1@gmail.com से हासिल की जा सकती है। (प्रेस विज्ञप्ति)

सोमवार, 18 जुलाई 2011

रचनाधर्मिता की नई जमीन

उमेश चतुर्वेदी
हिंदी की युवा रचनाधर्मिता इन दिनों कुछ ज्यादा ही उत्साही हो गई है। युवा उत्साह कई बार नई राह खोजने को प्रेरित करता है और इस दौरान खतरे से खेलने की प्रेरणा भी लेता है। उसे कामयाबी और नाकामयाबी की चिंता कम ही परेशान करती है। राजधानी दिल्ली के साहित्यिक गलियारों में इन दिनों हिंदी के कुछ युवा साहित्यप्रेमियों के इस उत्साह को खासतौर पर रेखांकित किया जा सकता है। ये युवा नई तरह से साहित्य का आलोचन कर रहे हैं और उसका नये-नए पाठों की खोज भी कर रहे हैं। इसमें उन्हें कितनी कामयाबी मिल रही है, इसका मूल्यांकन करना फिलहाल मुश्किल है, लेकिन यह सच है कि उन्होंने साहित्य की रपटीली राह की कंकड़ भरी जमीन को तोड़ कर उसे नई सज्जा देने की कोशिश जरूर की है। वाणी प्रकाशन के पुनर्पाठ कार्यक्रम को साहित्यिक की रपटीली-पथरीली जमीन को तोड़ने की कोशिश के तौर पर ही देखा जाना चाहिए। पिछले दिनों वाणी ने मशहूर कथाकार यशपाल की रचना दिव्या के पुनर्पाठ का आयोजन किया तो उसकी कामयाबी को लेकर चिंताएं भी जताई गईं। क्योंकि इस एक रचना का पाठ दो पीढ़ियों के जरिए होना था। एक ही रचना को लेकर दो पीढ़ियां किस तरह सोचती हैं और एक ही रचना को वे कैसे लेती हैं, इस पुनर्पाठ में आना ही था। और हुआ भी वैसा ही। दिव्या को जिस तरह पुरानी पीढ़ी के श्रीभगवान सिंह और उनसे युवतर कवियत्री अनामिका ने जैसे लिया है, इन दोनों से युवतर पीढ़ी के दो आलोचकों वैभव सिंह और सत्यानंद निरूपम के पाठ अलग ही थे। और यह होना ही था। प्लेटो साहित्य का जब विवेचन करते हैं तो वे त्रिधाअपेत का सिद्धांत देते हैं। उनके मुताबिक एक विचार रचनाकार के मन में जन्म लेता है और उसे वह मूर्त जब बनाता है तो दरअसल वह अपने विचार की कॉपी करने की कोशिश करता है, लेकिन हूबहू ऐसा नहीं होता। और एक बार जब रचना बन जाती है तो वह सार्वजनिक हो जाती है और जरूरी नहीं है कि उसका पाठ करने वाला भी हूबहू रचनाकार के मूल वैचारिक आधार को ग्रहण कर सके। यानी एक रचना का तीन बार विचलन होता है और प्लेटो इसे ही त्रिधाअपेत कहते हैं। त्रिधा अपेत की यह धारणा साहित्य शास्त्र की किताबों में सैद्धांतिक तौर पर तो है। लेकिन हर रचना के लिए यह नियम लागू होता है। जरूरी नहीं कि मैं किसी रचना का पाठ जिस तरीके से करूं और उसके बिम्बों को ग्रहण करूं, उसके संदेश को पकड़ूं, कोई दूसरा शख्स भी ठीक वैसे ही पकड़े। क्योंकि किसी भी रचना की ग्रहणशीलता में ग्रहण करने वाले की पृष्ठभूमि और उसके जरिए विकसित ज्ञान का भी महत्वपूर्ण हाथ होता है। जाहिर है कि सबका ज्ञान भी एक जैसा नहीं होता और सबकी पृष्ठभूमि और किसी ज्ञान को समझने की परिस्थियां भी एक नहीं होतीं। ऐसे में संभव है कि एक ही रचना का हर दूसरा शख्स अपने ढंग से पाठ करे। वैसे यह बेहद गूढ़ और वैचारिकता वाला विषय है। लेकिन कहने का मतलब यह है कि हिंदी में अब ऐसी जमीनें तोड़ने की कोशिशें हो रही हैं। निश्चित तौर पर प्रकाशक भी इस दिशा में आगे आ रहे हैं। लेकिन नई रचनाधर्मिता के बिना इस यज्ञ को पूरा माना भी नहीं जा सकता।
हिंदी की साहित्यिक गोष्ठियों में लोग अगर उंघते और उबासियां लेते हुए देखे जाते हैं तो इसकी खास वजह तुम मुझे मीर कहो- मैं तुझे गालिब कहूं की परिपाटी है। शायद ही कभी हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार गोष्ठियों में नई बात कह कर ऊर्जा का संचार करने की कोशिश करते हों। जहां ऐसा माहौल रहा है, वहां नई रचनाधर्मिता की यह कोशिश निश्चित रूप पर सराही जानी चाहिए। वैसे भी पुनर्पाठ जैसे आयोजनों में नए पाठकों और छात्र-छात्राओं की उपस्थिति ज्यादा ही दिख रही है। किसी रचना के तमाम पाठों से उनका साबका पड़ रहा है और इसे वे अपनी रचनात्मक जिंदगी की उपलब्धि के तौर पर देख रहे हैं। निश्चित तौर पर ऐसे आयोजन साहित्य से ना सिर्फ नई पीढ़ी को जोड़ने का सबब बनेंगे, बल्कि साहित्यिक कद्रदानों को बढ़ावा देने में भी मददगार होंगे। जिसका फायदा अंतत: साहित्य को ही होना है।

रविवार, 10 जुलाई 2011

साहित्यिक रिपोर्टर की डायरी

उमेश चतुर्वेदी
हिंदी साहित्य की आम पाठकों के बीच लोकप्रियता और आदर दूसरी भाषाओं की तुलना में काफी कम है। इस लिहाज से यह मानने में गुरेज नहीं होना चाहिए कि साहित्यिक संसार को लेकर हिंदी में वैसा सकारात्मक और आदरसूचक भावबोध नहीं है, जैसा अंग्रेजी समेत दूसरी भारतीय भाषाओं में दिखता है। इसकी कई वजहें बताई जाती हैं। इसमें एक वजह तो यह भी है कि हिंदी का मीडिया अपनी साहित्यिक संसार की गतिविधियों की गंभीरता पूर्वक ताकझांक नहीं करता और अपने पाठकों को इसके ताईद उतना चौकस नहीं करता, जितना अंग्रेजी समेत दूसरी भारतीय भाषाओं में दिखता है। एक हद तक ऐसा होने के बावजूद हिंदी पत्रकारिता में साहित्यकारों को लेकर एक खास तरह का आदरबोध तो दिखता ही है। जिसका साहित्यकार काफी फायदा भी उठाते हैं। तो कई बार वे खुद को
पत्रकारिता के विषय से उपर की शख्सियत समझने लगते हैं। हिंदी की पत्रकारिता में राजनीति और पुलिस की जितनी खिंचाई होती है, शायद ही किसी और क्षेत्र की खिंचाई होती है। ब्लैंक चेक पत्रकारिता और गिफ्ट चलन के दौर में एक हद के बाद कारपोरेट जगत की खिंचाई करने और उसकी मीन मेख निकालने से भी हिंदी पत्रकारिता नहीं चूकती। बाबाओं तक को मीडिया नहीं बख्शती। एक दौर में बाबा रामदेव की हैसियत इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के टीआरपी मीटर को बढ़ाने में थी। इसलिए हिंदी टेलीविजन का बड़ा से बड़ा खबरिया चैनल भी उनके कदमों में झुका नजर आता था। रामदेव का योग और प्रवचन से अपनी टीआरपी भवबाधा को पार करने की जुगत में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जुटा रहता था। लेकिन दिल्ली के रामलीला मैदान में पुलिस कार्रवाई के बाद बाबा फरार क्या हुए, उनकी स्तुति गाने वाला इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी उनके पीछे पिल पड़ा। बाबा के योग-आसन दिखाने और उनके मुखारविंद से निकले शब्दों को सुनाकर अपने को कृतकृत्य समझने वाले मीडिया के लिए बाबा खलनायक हो गए। लेकिन ऐसा हिंदी में शायद ही दिखता है, जब मीडिया ने किसी साहित्यकार की आलोचना की हो। उलटे साहित्यिक-सांस्कृतिक घटनाओं के साथ ही राजनीतिक घटनाओं तक पर साहित्यकारों के विचार जुटाने के लिए मीडिया जुटा रहता है और पूरे सत्कार समेत यह पुण्य काम करता भी है। इसका फायदा साहित्यकार भी उठाते हैं। पहले उनसे इंटरव्यू के लिए वक्त मांगो तो वे ऐसा व्यवहार करते हैं. जैसे वे दुनिया की सबसे ज्यादा मसरूफ शख्सियत हों। हालांकि उनके दिल में यह उम्मीद बनी रहती है कि रिपोर्टर उनका इंटरव्यू करे और उन पर खबर बनाए। लेकिन दिखावा ऐसे करेंगे, मानो इसकी उन्हें कोई जरूरत ही नहीं रही। कई बार तो सवाल भी दाग देंगे कि उनकी कितनी रचनाएं आपने उस रिपोर्टर ने पढ़ी है। राजनीतिकों और पुलिसवालों की ऐसी-तैसी करने वाले हिंदी रिपोर्टर की ट्रेनिंग ऐसी है या फिर चलन का कमाल कहें कि वह इतने सारे झल्ला देने वाले सवालों के बावजूद साहित्यकार महोदय पर झल्लाता नहीं। उलटे ठंडे दिमाग से धैर्य धारण किए हुए उनके विचारों की अगरबत्ती जलने की प्रतीक्षा करता रहता है। फिर अगर इंटरव्यू दे भी दिया तो उनका रिपोर्टर को एक ही फरमान होगा, इंटरव्यू लिखने के बाद छपने से पहले उन्हें दिखाओ। अब उन्हें कौन समझाए कि अखबार के पास इतना वक्त नहीं होता। उन्हें लिखकर दिखाने और जाहिर है कि वे लिखी हुई चीज में कुछ सुधार करेंगे ही तो उसे ठीक करने के बाद रिपोर्टर के पास वक्त कहां बचता है कि वह रिपोर्ट को उस दिन छपने के लिए अपने दफ्तर को दे सके। इन पंक्तियों के लेखक को भी शुरू में सांस्कृतिक हस्तियों से साक्षात्कार लेने का शौक होता था। इस सिलसिले कई नामी-कमनामी लेखकों का साक्षात्कार लेने का मौका मिला। लेकिन राजेंद्र यादव और पूरन चंद्र जोशी के अलावा अधिकांश साहित्यकारों का एक ही आग्रह था कि इंटरव्यू को लिखने के बाद छपने से पहले उन्हें जरूर दिखाएं। एक सज्जन को इंटरव्यू लिखकर दिखाया भी तो उन्होंने अपनी ही कही हुई बात को यह कहते हुए काट दिया कि उन्होंने तो ऐसा कहा नहीं। राजनेता जिस तथ्य को अपने नाम से नहीं देना चाहते, उसे वे तो जाहिर करते वक्त ताकीद कर देते हैं कि यह ऑफ द रिकॉर्ड है। लेकिन साहित्यकार ऐसी सावधानी भी नहीं बरतते। बहरहाल होना तो यह चाहिए कि साहित्य की दुनिया के लोग भी वैसे ही पत्रकारों का मुठभेड़ करें, जैसे जिंदगी के दूसरे अनुशासनों के लोग करते हैं। लोकतांत्रिक समाज में स्वस्थ संवाद ऐसे ही संभव होता है। निश्चित रूप से इससे साहित्य का भी भला होगा। क्योंकि इन संवादों के जरिए आम लोगों को साहित्य और उसकी अद्यतन गतिविधियों की जानकारी मिलती रहेगी और इस बहाने साहित्य में उनकी दिलचस्पी भी बढ़ेगी।

रविवार, 3 जुलाई 2011

कॉपीराइट के बिना कैसे चले सृजनकर्मी की जिंदगी

उमेश चतुर्वेदी
हिंदी में साहित्यिक मंचों से गंभीर साहित्येत्तर विमर्श की परंपरा नहीं रही है. साहित्यिक मंचों पर सिर्फ और सिर्फ साहित्यिक चर्चाएं ही अब तक हावी रही हैं। लेकिन साहित्यिक घेरेबंदी में अब तक कैद रहे हिंदी विमर्श की पारंपरिक जमीन टूटनी शुरू हुई है। इसी सिलसिले में पिछले दिनों राजधानी में एक विमर्श हुआ – कॉपीराइट को लेकर। कॉपीराइट का मसला भी बेहद संवेदनशील है और साहित्य तो इससे भी जुड़ा है। लेकिन इसे सिर्फ साहित्यिक विषय के दायरे में नहीं बांधा जा सकता। बहरहाल इस चर्चा के बहाने एक सवाल उठा कि आखिर कॉपीराइट हो ही क्यों। सीएसडीएस के सीनियर फेलो रविकांत ने यह कहकर कॉपीराइट का विरोध किया कि रचनात्मकता में मौलिकता की अवधारणा का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि हर रचना किसी पुरानी रचना की पुनर्मिश्रण होती है। यह सच है कि हर रचना में कहीं न कहीं पिछली रचना की छाप या उसके बीज तो होते हैं, लेकिन सिर्फ इस एक तर्क के सहारे कॉपीराइट की अवधारणा को खारिज कर देना भी जायज नहीं है। यह सच है कि अनुपम मिश्र जैसे एक-दो अपवाद हैं, जिनके लिए उनकी रचनाधर्मिता सामने आते ही सार्वजनिक संपत्ति हो जाती है। लेकिन सवाल यह है कि आखिर किसी की जीविका उसकी रचनात्मक क्षमता पर ही टिकी हो तो उसका मानदेय कैसे मिले ताकि उसकी जिंदगी चल सके। भारतीय कॉपीराइट कानून के मुताबिक पहले लेखक या सृजनकर्मी की मौत के पचास साल बाद तक उसका या उसके उत्तराधिकारियों का कॉपीराइट रहता था। गुरूदेव रवींद्र नाथ टैगोर का जब कॉपीराइट खत्म हो रहा था, तब नरसिंह राव सरकार ने इसकी मियाद रचनाकार की मौत के साठ साल बाद तक बढ़ा दी थी। तब से लेकर यही परंपरा चली आ रही है। बहरहाल कॉपीराइट पर सवाल उठाने की शुरूआत अमेरिकी कार्यकर्ता रिचर्ड स्टालमैन जैसे लोग कर रहे हैं। जिनका मानना है कि कॉपीराइट जैसी चीज होनी ही नहीं चाहिए, क्योंकि कोई भी व्यक्ति जब रचनात्मक होता है तो वह दरअसल अपने आसपास और समाज से ही विचारों का खादपानी लेता है। इस तरह से उसकी रचनात्मकता सार्वजनिक संपत्ति हो जाती है। अपने तईं यह बेहद उदार अवधारणा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या जिंदगी के दूसरे अनुशासनों, मसलन खेती-व्यापार, कारपोरेट व्यवसाय या दूसरे व्यवसायों पर ही यह कॉपीराइट व्यवस्था भी लागू होगी। व्यक्ति संपत्ति भी बनाता है तो उसमें खरीददार के तौर पर भी समाज का एक हिस्सा होता है, उत्पादक के तौर पर समाज का एक हिस्सा उसमें शामिल होता है। तो इस हिसाब से खेती-किसानी और व्यापार-व्यवसाय तक सब पर समाज का हक होना चाहिए। अगर जिंदगी के दूसरे अनुशासनों में ऐसा नहीं है तो फिर सृजनकर्म ही ऐसा सवाल क्यों? यह सच है कि प्राचीन भारत में सृजनकर्म पर अधिकार कॉपीराइट की आधुनिक अवधारणा की तरह नहीं होता था। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तब समाज में अपने सृजनकर्मियों को पालने की परंपरा थी। उसके यथेष्ठ मूल्यांकन और उसके साथ उसे कभी राज्याश्रय तो कभी समाजाश्रय देने का चलन था। लेकिन क्या आज के दौर में किसी कवि या संगीतकार को सत्ताश्रय मिलेगा तो आज का समाज उसके लिए तैयार होगा। जाहिर है कि सत्ता से लेकर सृजनकर्मी की विश्वसनीयता दांव पर लग जाएगी। कॉपीराइट को अगर खत्म ही कर दिया जाय तो सृजनकर्मी की जिंदगी की बसर कैसे होगी, इसके लिए कॉपीराइट की अवधारणा के विरोधियों के पास न तो ठोस तर्क है और नही ठोस योजना। जाहिर है कि कॉपीराइट का एक हथियार हाथ में होने के बावजूद आज भी हिंदी जैसी भाषा में सृजनकर्म के सहारे जीवनयापन की परिस्थितियां नहीं बन पाईं हैं। ऐसे में कॉपीराइट की जरूरत को नकारना आसान नहीं होगा।

रविवार, 26 जून 2011

संचालक जी की माया

उमेश चतुर्वेदी
साहित्यिक समरोहों की सफलता के लिए पहले मुख्य अतिथि और अध्यक्ष का नाम ही काफी होता था। लेकिन पिछले कुछ सालों में इसमें एक और हस्ती जुड़ गई है – संचालक की। अव्वल तो सभा-समारोह अध्यक्ष जी की ही अनुमति से आगे बढ़ती है, लेकिन हकीकत में सभा-समारोह में किसे गुलदस्ते देना है और कौन देगा या फिर कौन वक्ता कब बोलेगा और किसको कब बोलने से रोकना है, यह सब संचालक महोदय ही तय करते हैं। कहने का मतलब है कि सभा समारोहों में संचालक महोदय ही चलती है। संचालक का काम वैसे सूत्रधार का होता है। इसके साथ ही अगले वक्ता से पिछले वक्ता के विचारों की कड़ी को जोड़ना या उसे आगे बढ़ाना होता है। इसमें उन्हें दो-चार लाइनें बोलने की छूट रहती है। लेकिन राजधानी दिल्ली में इन दिनों नया चलन दिख रहा है। अब संचालक लोग अपनी इस छूट का फायदा उठाने लगे हैं। मुख्य वक्ता से ज्यादा अब उनके ही मुखारविंद से फूल ज्यादा झड़ते हैं। कई बार इतने ज्यादा कि उनका संचालन ही उबाऊ लगने लगता है। राजधानी में कुछ साल पहले एक संचालक के प्रलाप को रोकने के लिए एक वरिष्ठ सांस्कृतिक पत्रकार ने ऐसी जम्हाई ली कि पूरा हॉल ही हंसने लगा। लेकिन संचालक महोदय पूरे ढीठ थे। फिर भी नहीं रूके।
अभी हाल ही में मशहूर ललित निबंधकार कुबेरनाथ राय पर दिल्ली की हिंदी अकादमी ने एक कार्यक्रम आयोजित किया था। इसमें मुख्य वक्ता के तौर पर रामजन्म शर्मा जैसे आलोचक के साथ ही कई और लोग आमंत्रित थे। मंच पर हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष अशोक चक्रधर भी मौजूद थे। चूंकि कार्यक्रम हिंदी अकादमी का था, लिहाजा उसके कार्यक्रम के संचालक का दायित्व उसके सचिव ने संभाल लिया था। रवींद्र श्रीवास्तव उर्फ परिचय दास इन दिनों हिंदी अकादमी के सचिव हैं। कुबेरनाथ राय की स्मृति में आयोजित कार्यक्रम का संचालन करते वक्त परिचय दास जी राजधानी में जारी संचालन प्रवृत्ति से खुद को रोक नहीं पाए। जो श्रोताओं को पच नहीं रहा था। मुख्य वक्ताओं से ज्यादा संचालक महोदय के मुखारविंद से फूलों का झड़ने पर नियंत्रण नहीं दिखा तो एक श्रोता उनसे गुजारिश करने की भूल कर बैठे कि वे कम बोलें और वक्ताओं को बोलने के लिए आमंत्रित करें। अब परिचय दास जी ठहरे सरकारी अधिकारी। खुली सभा में ऐसा टोका जाना उन्हें नागवार गुजरा और लगे हाथों उन्होंने श्रोता को ही धमका दिया कि आप चुप बैठेंगे या फिर आपको सभा से बाहर फिंकवा दूं। बिल्कुल राजनीतिक अंदाज में उन्हें विपक्षी आवाज पची ही नहीं। कायदे से अशोक चक्रधर जी को इसका विरोध करना चाहिए था। लेकिन उन्होंने नहीं किया। परिचय दास के इस व्यवहार का कुछ युवा पत्रकारों ने विरोध जरूर किया और वे सभा स्थल से बाहर निकल आए। दिलचस्प बात यह है कि हिंदी समाज के प्रबुद्ध जनों को संचालक महोदय का यह व्यवहार नागवार नहीं लगा। वे पूर्ववत परिचय जी की परिचयोक्तियों का बेमन से ही सही स्वाद लेने के लिए रूके रहे।
ऐसा नहीं कि हिंदी में अच्छे संचालक नहीं है। लेकिन जोड़-जुगत और समीकरण साधने के दौर में उनकी पूछ-पहुंच अपने ही खेमे तक है। खेमेबंदी ने विचारबंदी को बढ़ावा दिया है और कहना न होगा कि आज की संचालक नाम की प्रजाति भी इसी विचारबंदी को ही बढ़ावा दे रही है। इसलिए उसे अपने किए पर पछतावा भी नहीं होता। उसे दर्प है कि वह चाहे तो वक्ता को बना सकता है और चाहे तो बिगाड़ सकता है। लेकिन ऐसा करते वक्त वह भूल जाता है कि वक्ता को बनाना और बिगाड़ना उसके लिए क्षणिक तौर पर ही संभव है। हिंदी का व्यापक पाठक और श्रोता समाज जानता है कि किसे सुनना है और किसे नहीं सुनना।

रविवार, 19 जून 2011

महानगर में विमोचन

उमेश चतुर्वेदी
हिंदी में किताबें तो पहले ही आती थीं, लेकिन उनका भव्य विमोचन कम ही होता था। तब लेखकों-कवियों और साहित्य रसिकों की आपसी बैठक में ही कई बार नई रचनाओं और नए प्रकाशनों का विमोचन हो जाता था। बीस – पच्चीस साल पहले तक दिल्ली की सरहद इतनी फैली नहीं थी, कास्मोपोलिटन बनने की राह पर जब तक दिल्ली नहीं रही, रचनाधर्मिता के उत्सवों में एक खास तरह का अपनापन होता था। उनमें आज के जमाने की तरह भव्यता कम ही दिखती थी, लेकिन अपनापे भरे माहौल में रचनाधर्मिता की आत्मीय किस्म की चर्चाएं जरूर हो जाती थीं। 2009 में आई मशहूर लेखिका निर्मला जैन की पुस्तक – दिल्ली- शहर दर शहर- में इस आत्मीय साहित्यिक उष्मा को महसूस किया जा सकता है। विमोचन- माफ कीजिएगा, अब पुस्तकों के लोकार्पण खूब होते हैं। फाइव स्टार होटलों से लेकर गांधी शांति प्रतिष्ठान के उमस भरे हाल तक में पुस्तक लोकार्पणों की बाढ़ आ गई है। लेकिन उनमें वह आत्मीयता नजर नहीं आती। लोकार्पण के आयोजन के स्तर से लेखक की निजी हैसियत को नापा और समझा जा सकता है। लेखक कितना मालदार या कितना प्रभावी है, सत्ता के गलियारे में उसकी कैसी हनक है, इसका अंदाजा लोकार्पण समारोह की भव्यता से लगाया जा सकता है। लेखक की हैसियत लोकार्पण समारोह तय करते हैं। रचनाधर्मिता और पाठकीयता के स्तर पर भले ही लेखक की पूछ कम हो, लेकिन सत्ता के गलियारे में उसकी हनक हुई, किसी ऐसे पद पर हुआ कि वह किताब की खरीद में सकारात्मक भूमिका निभा सकता है तो प्रकाशक महोदय उसके लिए थैली खोलकर किसी फाइव स्टार होटल या थ्री स्टार होटल में लोकार्पण समारोह आयोजित करा देंगे। थोड़ी कम हैसियत हुई तो लोकार्पण समारोह इंडिया इंटरनेशनल सेंटर या फिर उसके नवेले पड़ोसी हैबिटाट सेंटर या फिर फिक्की ऑडिटोरियम के किसी वातानुकूलित हॉल में किताब की चर्चा और लोकार्पण समारोह आयोजित किया जा सकता है। लेखक की हैसियत थोड़ी और कम हुई तो उसके लोकार्पण के लिए त्रिवेणी सभागार, एलटीजी गैलरी या साहित्य अकादमी का हाल मयस्सर हो जाएगा। लेखक प्रभावी लेकिन फाकामस्त किस्म का हुआ तो बाकी उमस भरे हाल उसकी पुस्तक के लोकार्पण के लिए है हीं। इन दिनों रसूखदार सरकारी अफसरों और उनके घर वाले भी लिखने में महारत हासिल करते जा रहे हैं। उनकी किताबों के विमोचन के लिए उनके राज्यों के दिल्ली स्थित निवास आदि के हॉल ही लोकार्पण के नए केंद्र के तौर पर उभर रहे हैं। कहने का मतलब यह है कि लोकार्पण के लिए दिल्ली में रोज हैसियत के मुताबिक किसी न किसी हॉल की बुकिंग हुई पड़ी रहती है। जिसकी जैसी हैसियत, उस स्तर के हॉल में उसका लोकार्पण। लेखक और प्रकाशक की हैसियत लोकार्पण कर्ता की हैसियत से भी तय होती है। बड़े नेता, मंत्री या अफसर ने लोकार्पण किया तो समझो लेखक और प्रकाशक की पौ बारह।
इन लोकार्पण समारोहों में आना और जुटना आत्मीयता से कहीं ज्यादा रस्मी होता है। लोग आते हैं, कुछ रस्मी संवाद अदायगी होती है और अपनी-अपनी मसरूफियत का हवाला देकर चलते बनते हैं। श्रोताओं और दर्शकों की तरह की रस्म अदायगी मंच पर भी होती है। कुछ रस्मी बयानबाजी होती है, तुम मुझे सुनो और मैं तुझे सुनूं की तर्ज पर यह सुनने और सुनाने, बोलने-बोलवाने का खेल होता है। लेकिन इन सबके बीच किताब और उसके विषय को लेकर गंभीर चर्चाएं कहीं गुम हो जाती हैं। कई बार तो होती ही नहीं। लोकार्पण का असल मकसद है – लोकार्पित होने वाली किताब को लेकर गंभीर चर्चा करना और गंभीर टिप्पणियों के जरिए इस किताब की एक तरह से संजीदा पाठकों के लिए मार्केटिंग करना। लेकिन लोकार्पण का आज जो ढर्रा विकसित हो गया है, उसमें यह संजीदापन ही सिरे से गायब है। हिंदी में यह अध्ययन दिलचस्प रहेगा कि रसूखदार लोकार्पणों के बाद उन किताबों की कितनी बिक्री हुई और उसे पाठकों को कितना प्यार मिला। हां, इन सबके बीच दिल्ली में कुछ संजीदा लोग अब भी हैं, जिनके लिए लोकार्पण अपनी व्यस्तताओं के बीच अपने लोगों से मिलने का मौका मुहैया कराते हैं और वे फिर-फिर इसकी तलाश में लोकार्पण की रस्म अदायगी में आना पसंद करते हैं।

सोमवार, 13 जून 2011

क्यों चाहिए तीसरा प्रेस आयोग ?

रामशरण जोशी ने यह आधार लेख तीसरे प्रेस कमीशन की जरूरत को रेखांकित करते हुए तैयार किया है। जिस पर राजधानी दिल्ली में दो दौर की चर्चाएं हो चुकी हैं। इसे लेकर सुझावों और विचारों का स्वागत रहेगा।
विगत दो दशकों से हम वैश्वीकरण के परिवेश में जी रहे हैं। इस अवधि में भारतीय गणतंत्र की लगभग सभी महत्वपूर्ण संस्थाएं वैश्विक पूंजीवाद से कम-अधिक प्रभावित हुई हैं। इन संस्थाओं के चरित्र और कार्यशैली में गुणात्मक परिवर्तन आए हैं। इस संबंध में भारतीय राज्य को ही देखें। कभी इसके कर्ता-धर्ता इसे ‘जनकल्याणकारी राज्य’ घोषित करने में गर्व का प्रदर्शन किया करते थे। नेहरू-काल से लेकर राजीव काल तक ‘समाजवाद’ का जयघोष हुआ करता था। आज यह नारा वैश्वीकरण के व्योम में कहीं गुम हो चुका है। अब कर्ताधर्ताओं का बाजारोन्मुख नारा है- सुविधा आपूर्तिकत्र्ता अर्थात भारतीय राज्य अब ‘फैसीलीटेटर’ की भूमिका निभाएगा। यह ‘मुक्त अर्थव्यवस्था’ को उसके चरमोत्कर्ष बिंदु तक पहुंचाने के लिए और बगैर किसी वर्गीय भेदभाव के सभी को ‘समतल मंच’ की सुविधा उपलब्ध कराएगा तथा इस प्रक्रिया में वह कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा। यदि इससे किसी प्रकार के बहुआयामी विषमता व असंतुलन पैदा होते हैं तो इन्हें वैश्विक पूंजीवाद के अपरिहार्य परिणाम के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। इस नई दृष्टि के कारण अब राजनीतिक-सामाजिक चिंतक भारत को अमेरिका का ‘ग्राहक राज्य’ (क्लाइंट स्टेट) से परिभाषित करने लगे हैं। कभी यह परिभाषा पाकिस्तान के लिए सुरक्षित रहती थी। अब इस पर पड़ोसी राष्ट्र का एकाधिकार समाप्त हो चुका है।
विगत दो दशकों, विशेष रूप से विगत कुछ वर्षों में भ्रष्टाचार की जो सुनामी आई है इससे हम सभी परिचित हैं। इस सुनामी ने राष्ट्र की शिखर संस्थाओं को तल तक लील लिया है। घोटालों-महाघोटालों का विस्फोट इसके उदाहरण हैं। इस सिलसिले पर कब व कहां विराम लगेगा, यह अनिश्चित है। राष्ट्र राज्य के नियंताओं ने इस ‘सुनामी परिघटना’ को वैश्विक पूंजीवादीकरण की स्वाभाविक नियति के रूप में अंगीकार कर लिया है। अतः वैश्वीकृत भारत की जनता को इससे चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है, ऐसा वातावरण सुनियोजित ढंग से निर्मित किया जा रहा है।
हम परंपरागत रूप से प्रेस या मीडिया को लोकतंत्र का ‘चैथा स्तंभ’ या ‘पहरुआ’ के रूप में देखते-समझते आए हैं। तब देश के प्रत्येक संवेदनशील व जागरूक नागरिक का यह सोचना कत्र्तव्य है कि क्या यह प्रहरी वर्तमान परिवेश में भी अपनी अपेक्षित व वांछित भूमिका निभा रहा है? क्या वैश्वीकरण और सुनामी ने इसके मूलभूत चरित्र को परिवर्तित किया है? सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तरों पर आए परिवर्तनों से यह कितना प्रभावित हुआ है? सवाल यह भी है कि प्रेस या मीडिया ने देश के लिए ‘दिशा बोधक’ की भूमिका निष्ठा पूर्वक निभाई या नहीं? क्या यह भी किसी उद्योग का सिर्फ ‘प्रोडक्ट’ और बाजार की ‘वस्तु’ बन कर रह गया है? क्या इसमें इसकी ऐतिहासिक हस्तक्षेपधर्मिता आज भी जीवित है? आज के परिवर्तित परिवेश और भविष्य के संभावित संकटों के मद्देनजर इन प्रश्नों पर चिंतन-मंथन की गंभीर आवश्यकता है। इस प्रक्रिया में हमारा ध्यान एक नए प्रेस आयोग के गठन की तरफ जाना स्वाभाविक है।
I
आखिर आज हमें ‘प्रेस आयोग’ क्यों चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर भारतीय पे्रस की विकास व अनुभव यात्रा पर संक्षिप्त दृष्टिपात और वर्तमान परिदृश्य के तथ्यपरक विश्लेषण में निहित है। किसी भी आयोग का केंद्रीय उद्देश्य समकालीन समस्या या चुनौती विशेष का अध्ययन, परीक्षण और समाधान होता है। इसी आधारभूत उद्देश्य को ध्यान में रखकर स्वतंत्र भारत के विभिन्न कालों में अब तक दो ‘प्रेस आयोगों’ का गठन किया जा चुका है। देश का पहला प्रेस आयोग नेहरू काल में 1952 में अस्तित्व में आया था और दो वर्ष के कड़े परिश्रम के पश्चात 1954 में इसने अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को सौंप दी थी। दूसरे प्रेस आयोग का गठन देश की पहली गैर-कांग्रेसी जनता पार्टी की सरकार ने 1978 में किया था। मोरारजी देसाई काल में गठित इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट 1982 में तैयार की। लेकिन इस चार वर्ष की अवधि में देश का राजनीतिक परिदृश्य पूरी तरह बदल चुका था। 1979 में गैर-कांग्रेसी शासन के प्रयोग की अकाल मृत्यु और 1980 में सत्ता में इंदिरा गांधी की पुनर्वासी हो चुकी थी। यहां हमें यह याद रखने की जरूरत है कि प्रथम आयोग और द्वितीय आयोग के गठन के बीच 26 वर्ष का अंतराल था। इस अंतराल के दौरान भारतीय प्रेस में कई परिवर्तन आ चुके थे। इसकी कार्यशैली बदल चुकी थी। इसमें ढांचागत परिवर्तन आने लगे थे। अतः प्रथम प्रेस आयोग और द्वितीय प्रेस आयोग के गठन की पृष्ठभूमियों की सरसरी पड़ताल यहां प्रासंगिक रहेगी।
वास्तव में प्रेस या मीडिया या अन्य संचार के माध्यम अपने समय का प्रतिनिधित्व करते हैं। काल कोई भी रहे, देश कोई भी रहे, तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक सांस्कृतिक-राजनीतिक घटनाओं व प्रभावों का संचार माध्यमों में प्रतिबिम्बन होता आया है। इतिहास के अनुभव इसके साक्षी हैं। तब भारतीय प्रेस इस सार्विक प्रक्रिया व यथार्थ की अपवाद कैसे हो सकती है? इसका ज्वलंत उदाहरण है 1780 के औपनिवेशिक भारत से शुरू हुई और 2011 के स्वतंत्र भारत तक पहुंची प्रेस-यात्रा की अनुभव कहानी। इस यात्रा में तीन महत्वपूर्ण मोड़ आए हैं पहला मिशनवाद, दूसरा प्रोफेशनलवाद, और तीसरा काॅमर्शियलवाद। मेरे मत में आज की प्रेस या मीडिया अपनी यात्रा के तीसरे चरण में है। प्रत्येक चरण के अपने अनुभव और प्रभाव हैं। संक्षेप में, भारतीय प्रेस की ऐतिहासिक यात्रा (1780-2011) का अध्ययन एक स्वतंत्र विषय है। यहां सिर्फ इतना कहना पर्याप्त होगा कि भारतीय प्रेस कभी निरपेक्ष नहीं रही, समय सापेक्ष रही है। समय व घटना विशेष के अच्छे या गलत प्रभाव इस पर पड़ते रहे हैं, अर्थ तंत्र और सत्ता तंत्र इसे कम-अधिक प्रभावित करते रहे हैं। आज कामर्शियलवाद, जिसे मैं ‘नग्न धंधवाद’ कहता हूं, के चरण में नकारात्मक प्रवृतियों का वर्चस्व है। यह सर्वविदित और निर्विवाद है।
प्रथम प्रेस आयोग का गठन स्वतंत्र भारत के विकास व निर्माण के महाएजेण्डे की पृष्ठभूमि में किया गया था। यद्यपि यूरोप, विशेष रूप से ब्रिटेन और अमेरिका के समाचार पत्रों के स्थिति-अध्ययन ने भी भारतीय प्रेस आयोग के गठन में भूमिका निभाई थी। इस संदर्भ में ब्रिटेन की प्रेस का ‘royal कमीशन’ का उल्लेख किया जा सकता है। इसी तरह अमेरिका प्रेस की स्थितियों के अध्ययन के लिए ‘हुचिन आयोग’ गठित किया गया था। यहां यह उल्लेखनीय है कि द्वितीय विश्व युद्ध ने यूरो-अमेरिकी प्रेस को गहराई तक प्रभावित किया था। नई परिस्थितियां पैदा हो गई थी। प्रेस का स्वामित्व चरित्र भी बदलने लगा था। कई अखबार बंद हुए, जबकि कुछ एक-दूसरे में समाहित हुए या बिक गए। पत्रकारों, गैर-पत्रकार कार्मिकों और कार्य-स्थितियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े। अतः परिवर्तित स्थितियों का अध्ययन और तद्जनित समस्याओं का समाधान आवश्यक हो गया था। समुद्रपारीय प्रेस अध्ययनों की रिपोर्टें उदाहरण के रूप में भारतीय प्रेस जगत के समक्ष मौजूद थीं।
भारतीय प्रेस भी युगांतकारी दौर से गुजरा था। गुलाम भारत की स्थितियां और चुनौतियां स्वतंत्र भारत से भिन्न थीं। स्वतंत्रता पूर्व की प्रेस की अंतर्धारा मुख्यतः मिशनवादी, मूल्यवादी और जन उद्देश्यवादी हुआ करती थी। 15 अगस्त 1947 के पश्चात भारतीय प्रेस के कार्य चरित्र में गुणात्मक परिवर्तन आया। स्वतंत्र भारत की लोकतांत्रिक व धर्मनिरपेक्ष राजनीति और मिश्रित अर्थव्यवस्था में किस प्रकार की भूमिका निभाए, यह मुख्य चुनौती भारतीय प्रेस के समक्ष थी। नव उत्पन्न चुनौतियों के क्या माकूल रेसपांस हो सकते हैं, भारतीय प्रेस को इसकी भी तलाश थी।
अतः देश और प्रेस व्यवसाय की नई परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए जी.एस. राजाध्यक्ष की अध्यक्षता में प्रेस आयोग बनाया गया। गौरतलब यह है कि अध्यक्ष के चयन में ‘इंण्डियन फेडरेशन आॅफ वर्किंग जर्नलिस्ट’ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, और एक प्रकार से राजाध्यक्ष को पत्रकारों ने ही मनोनीत किया था। इससे स्वतः स्पष्ट है कि उस समय प्रेस और पत्रकारों का क्या महत्व था। इस 10 सदस्यीय आयोग के अन्य सदस्यों में डॉॅ. जाकिर हुसैन, डॉ. सी.पी. रामास्वामी अय्यर, पी.एच. पटवर्धन, चेलापति राव, आचार्य नरेंद्र देव, डॉ. वी.के.आर.वी. राव, जे. नटराजन जैसी हस्तियों को शामिल किया गया था। यह अकारण नहीं था। सरकार चाहती थी कि भारतीय प्रेस भारतीय राष्ट्र राज्य की नई आकांक्षाओं को समझे और राज्य व जनता के बीच उत्तरदायित्वपूर्ण सेतु की भूमिका निभाए।
स्वातंत्र्योत्तर भारत के प्रथम दशक के प्रेस परिदृश्य को निम्न बिंदुओं से रेखाकिंत किया जा सकता हैः
1. अंग्रेजी प्रेस का वर्चस्व।
2. भाषायी प्रेस की दोयम स्थिति।
3. मूलतः त्रिस्तरीय ढांचा- (क) राष्ट्रीय,
(ख) प्रदेश राजधानी स्तरीय और
(ग) संभागीय स्तरीय
4. भाषायी प्रेस में निम्न पूंजी और पिछड़ी मुद्रण व्यवस्था। निम्न स्तरीय संपादन व समाचार संकलन और वितरण व्यवस्था।
5. महाजनी पृष्ठभूमि का स्वामित्व व पूंजीतंत्र।
6. स्वः प्रशिक्षित पत्रकार और प्रभावशाली संपादक संस्था।
7. स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों की विरासत। मिशन-प्रोफेशन मिश्रित कार्यशैली।
8. राजसत्ता, प्रेस, नौकरशाही और उद्योग के बीच जन विरोधी और अर्थवादी गठबंधन की अनुपस्थिति।
9. राज्य का कल्याणकारी चरित्र और प्रेस की रचनात्मक व वस्तुनिष्ठ भूमिका।
10. विचार व समाचार तथा विज्ञापन के बीच समानुपातिक संतुलन।
11. प्रबंधक हस्तक्षेप नगण्य। संपादक नेतृत्व की सशक्तता।
12. सीमित एकाधिकारवादी चरित्र।
13. पत्रकारों और गैर-पत्रकारों का निम्न वेतन व आय और सादा जीवन। श्रमिक संगठनों की सक्रिय उपस्थिति। वेजबोर्ड का न होना।
14. सीमित घटनाचक्र व मुद्दे। धीमी गतिशीलता। अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा का अभाव। वांछित लाभ का लक्ष्य और बेलगाम मुनाफाखोरी से संकोच।15. प्रेस की समीक्षा व निरीक्षण के लिए किसी केंद्रीय संस्था का अभाव।
15. प्रेस-टाइटलों के पंजीकरण व नियमन का अभाव।
16. भाषायी समाचार एजेंसी की कमी और एजेंसी की आर्थिक आत्मनिर्भरता का अभाव। अंगे्रजी एजेंसियों का वर्चस्व।
17. भारतीय प्रेस का स्वदेशी पूंजी आधारित होना। मटमैली व चिटफंडी पूंजी का अभाव। विदेशी पूंजी-नियोजन को अनुमति नहीं।
18. प्रेस का मूलतः बड़े नगर और मझोले नगर आधारित होना। मेट्रो संस्कृति या संस्करण का उदय न होना।
19. प्रेस की उजली छवि और ऊंची विश्वसनीयता।
सामान्य रूप से इन बिंदुओं की पृष्ठभूमि में प्रथम प्रेस आयोग का जन्म होता है। यह आयोग तत्कालीन प्रेस की सेहत का जायजा लेता है। अपने दो वर्ष के कार्यकाल में इस आयोग का वरिष्ठ पत्रकारों, संपादकों, पे्रसपतियों, पत्रकार-कर्मचारी संगठनों तथा विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिनिधियों के साथ संवाद होता है। सरकारी क्षेत्र के प्रतिनिधि भी इसमें शामिल रहते हैं। दो वर्ष के गहन डाइग्नोसिस के पश्चात राजाध्यक्ष आयोग रोग निदान के लिए कई ऐतिहासिक सुझाव सरकार को देता है। आयोग की अनेक सिफारिशों में से दो महत्वपूर्ण सिफारिशें थींः भारतीय प्रेस परिषद और भारतीय समाचार पत्र पंजीकरण की स्थापना। इन सिफारिशों को ध्यान में रखकर जुलाई 1956 में आर.एन.आई और जुलाई, 1966 में प्रेस काउंसिल आॅफ इंडिया की स्थापना कर दी जाती है। इसके अतिरिक्त अन्य सिफारिशों को ध्यान में रखकर 1962 में प्रेस परामर्श समिति गठित की जाती है। प्रेस स्वामित्व एकाधिकारवाद को रोकने का सुझाव भी स्वीकार कर लिया जाता है, लेकिन आधे अधूरे मन से। 1971 तक इस मुद्दे पर कोई कार्रवाई नहीं हो पाती है। इस दिशा में तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री नन्दनी सतपथी और इन्द्र कुमार गुजराल कुछ प्रयास करते भी हैं, और प्रेस को उद्योग से ‘डीलिंक’ करने का प्रस्ताव रखा जाता है। लेकिन प्रेसपतियों के भारी विरोध के कारण इंदिरा सरकार का उत्साह ठंडा पड़ जाता है।
आज 40 वर्ष बाद स्वामित्व एकाधिकार के विकराल और बहुमुखी रूप नजर आ रहे हैं। प्रेस परिषद भी दंतहीन है। इसकी स्थापना का उद्देश्य नेक था, लेकिन जन्म से आज तक यह दंतहीन-पंजाहीन शेरनी से ज्यादा कुछ नहीं है। इसकी दुखभरी गाथा सर्वविदित है।
आयोग ने भारतीय प्रेसपतियों और पत्रकारों को उत्तरदायित्वपूर्ण बनाने की दृष्टि से कई महत्वपूर्ण सुझाव भी दिए थे। प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा, प्रेस व्यवसाय में उच्च मानदंडों का पालन, संपादक महत्व की रक्षा, वेज बोर्ड का गठन, पृष्ठ मूल्य निर्धारण, सार्वजनिक हितों से संबंधित समाचारों को प्राथमिकता व अबाध प्रसारण, पत्रकारों की उच्चस्तरीय चयन प्रक्रिया, समय-समय पर प्रेस विकास की समीक्षा करना, प्रपंचपूर्ण विज्ञापनों के प्रकाशन को दण्डनीय अपराध घोषित करना, ज्योतिष-भविष्यवाणियों के प्रकाशन को अवांछनीय मानना, पीत व सनसनीखेज पत्रकारिता के विरुद्ध चेतावनी, अंग्रेजी और भाषाई अखबारों के बीच विज्ञापन असंतुलन जैसे कई पहलुओं पर कदम उठाने की सिफारिशें नेहरू-सरकार से की गई थी। उस समय सूचना और प्रसारण मंत्री डाॅ. बी.वी. केसकर हुआ करते थे।
यदि प्रथम प्रेस-आयोग की सिफारिशों पर अमल का गंभीरतापूर्ण विश्लेषण किया जाए तो परिणाम सुखद नहीं निकलेंगे। क्या सरकार समाचार संस्थानों में पृष्ठ मूल्य निर्धारण करा सकी? क्या प्रेस संस्थानों में विज्ञापनदाताओं के निरंतर बढ़ते वर्चस्व को रोक सकी? क्या अखबारों के बीच मूल्य जंग व अस्वस्थ व अनैतिक प्रतिस्पर्धा को रोका जा सका। क्या संपादक संस्था की रक्षा हो सकी? क्या भविष्यवाणियां और अंधविश्वासों के प्रकाशन में कमी लाई जा सकी? क्या पत्रकारों व गैर-पत्रकारों के वेतनमान के लिए गठित विभिन्न वेज बोर्डों की सिफारिशों को प्रेस पतियों से लागू करवाया जा सका? इस प्रकार के कई प्रश्न हैं जो कि प्रथम प्रेस आयोग की दीर्घ कालीन भूमिका की सार्थकता पर सवालिया निशान लगाते हैं। आखिर प्रेस आयोग की अधिकांश सिफारिशों को निष्प्रभावी बनाने के लिए कौन लोग जिम्मेदार है ै? यह प्रश्न उठेगा ही। इसका सहज व स्वाभाविक उत्तर यह है कि यदि तत्कालीन सरकार लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ को लोकोन्मुखी, पूंजी वर्चस्व व विषमता मुक्त और सेहतमंद रखने के प्रति प्रतिबद्ध रहती तथा अपनी राजनीतिक इच्छा शक्ति का प्रदर्शन करती तो कालान्तर में भारतीय प्रेस में ‘नानारूपी फिसलनें’ पैदा नहीं हुई होतीं। फिर भी सीमित सफलताओं और अनेक विफलताओं के बावजूद प्रेस-आयोग के गठन की पहल को एक स्वागत योग्य प्रयोग कहा जाएगा।
II
सन् 1954 से 1978 के बीच देश की राजनीति और प्रेस जगत में द्रुतगामी परिवर्तन हुए। घटनाओं की फ्रीक्विंसी में तेजी आई। प्रथम आयोग और द्वितीय आयोग के बीच की प्रेस-यात्रा को समझने के लिए यहां चंदेक ऐतिहासिक घटनाओं का स्मरण उपयोगी रहेगा। इस कालावधि में भारत ने 1962 से 1965 और 1971 में क्रमशः चीन तथा पाकिस्तान के साथ युद्धों का सामना किया; संसद में प्रमुख विपक्षी दल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का 1964 में विभाजन हुआ; 1964 में नेहरू के निधन के पश्चात उनके उत्तराधिकारी के रूप में पहले लाल बहादुर शास्त्री और बाद में 1966 में इंदिरा गांधी ने देश की सत्ता संभाली; डाॅ. राममनोहर लोहिया का गैर-कांग्रेसवाद का दबदबा और 1967 में कांग्रेस का विभाजन; इसी दौर में पश्चिम बंगाल में नक्सलबाड़ी आंदोलन का विस्फोट; 1972-73 में जे.पी. आंदोलन की शुरूआत; 1974 में पोखरण विस्फोट; 1975 में चुनाव याचिका में इलाहाबाद हाईकोर्ट का प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के विरुद्ध फैसला; 25 जून का देश में इमरजंसी लागू करना; प्रेस-सेंसरशिप की घोषणा; राजनेताओं व पत्रकारों की गिरफ्तारियां; 1977 के आम चुनावों में इंदिरा गांधी और कांग्रेस की करारी पराजय; और मोरारजी भाई देसाई के नेतृत्व में केंद्र में जनता पार्टी का सत्तारूढ़ होना।
इन राजनीतिक घटनाओं के समानांतर भारतीय प्रेस में भी कई परिवर्तन दर्ज हुए। साक्षरता बढ़ने लगी और भाषाई पत्रकारिता का विस्तार होने लगा। समाचार पत्रों और पत्रकारों एवं कर्मचारियों की संख्या बढ़ने लगी; समाचार कवरेज के नये क्षेत्र (पंचवर्षीय योजनाएं, सहकारी आंदोलन, पंचायती राज आंदोलन, बांध निर्माण व औद्योगीकरण, युद्ध कवरेज, नक्सलबाड़ी आंदोलन; नवभारत निर्माण, मुशहरी-आंदोलन, संपूर्णक्रांति, 1971 में शरणार्थी समस्या आदि) अस्तित्व में आए। प्रदेशों से नए समाचारपत्र प्रकाशित होने लगे। क्षेत्रीय प्रेस समानान्तर शक्ति के रूप में उभरने लगी। भाषाई संपादकों व पत्रकारों के महत्व को सत्ता-गलियारों में मान्यता मिलने लगी। प्रेस की कार्य स्थिति और पत्रकार व कर्मचारियों के वेतनमानों में आंशिक सुधार दर्ज हुए। हिंदुस्थान समाचार, समाचार भारती जैसी भाषाई न्यूज एजेंसियां शुरू हुईं। मुद्रण में काफी परिवर्तन हुए। आॅफसेट प्रिटिंग की शुरूआत हुई।
महानगरीय और शहरी पाठकों के साथ-साथ कस्बाई व ग्रामीण पाठकों का वर्ग भी धीरे धीरे उभरने लगा। अखबार पहले से अधिक प्रोफेशनल होने लगे। उन्हें विभिन्न माध्यमों से आकर्षक बनाया जाने लगा। यह वह संक्रमण काल था जब भाषाई प्रेसपति अपनी पुरानी महाजनी पूंजी पृष्ठभूमि से उभरकर आधुनिक औद्योगिक पंूजी के युग में प्रवेश के लिए लगभग तैयार हो चुका था। वह परिवर्तित संदर्भों में सोचने लगा था। प्रेस प्रतिष्ठानों में पूंजी नियोजन बढ़ने लगा था। एकाधिकारवादी व बड़े प्रेस प्रतिष्ठान अपना तेजी से आधुनिकीकरण कर रहे थे। मझोले क्षेत्रीय अखबार भी इस दौड़ में पीछे नहीं रहना चाहते थे। मिशनवादी पत्रकारिता नेपथ्य में लगभग खो चुकी थी। इसका स्थान व्यावसायिक पत्रकारिता ने ले लिया था। यही मुख्यधारा की पत्रकारिता थी। सारांश में, इस दो-ढ़ाई दशक के काल में भारतीय प्रेस जगत में ‘पेराडाइम शिफ्ट’ दिखाई देता है।
अलबत्ता इसी काल में 1975 के आपातकाल से भारतीय प्रेस की चारित्रिक निर्बलताएं भी उजागर हुईं हैं। जहां इमरजंसी से देश की राजसत्ता का अलोकतांत्रिक चेहरा सामने आता है, वहीं सेंसरशिप भारतीय प्रेस की अन्तर्निहित नमनीयता व अवसरवादीता को भी बेपर्द करती है। यह स्थापित कर देती है कि प्रेस प्रतिष्ठानों के मालिक और प्रतिष्ठित संपादक व पत्रकार भीतर व बाहर से कितने दनयीय हैं। सत्ता के विरुद्ध डटे रहने की उनकी प्रतिरोधी ऊर्जा कितनी क्षीण है। इमरजेंसी काल में पत्रकारिता के बड़े-बड़े स्तंभ बालू के निकले। इससे प्रेस की प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगा। इससे यह भी स्पष्ट हो गया कि आधुनिक भारतीय प्रेस ने स्वतंत्रता संघर्ष की पत्रकारिता की विरासत से स्वयं को ‘डी लिंक’ कर लिया है। इस पैराडाइम शिफ्ट का ठोस लाभ प्रेस के प्रभु वर्ग को मिला। सत्ताधीशों और प्रेस स्वामियों को इस बात का अहसास हो गया कि प्रेस के समाचार-विचार नेतृत्व अर्थात् संपादक व पत्रकारों का अनुकूलन किया जा सकता है। इनका आवश्यकतानुसार इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके साथ ही संपादकीय नेतृत्व की नमनीय स्थिति के मनवांछित दोहन के युग की शुरूआत हो गई। प्रेस में नई-नई प्रवृतियां उभरने लगीं। प्रबंधन और विज्ञापन संस्था ‘एस्सेर्ट’ करने लगीं। यद्यपि, अपवाद स्वरूप ऐसे संपादक व पत्रकार भी थे जो जेल भी गए और अंत तक पत्रकारिता के उच्च मानदंडों का परचम थामे रखा। उन्होंने सुविधानुसार चोला नहीं बदला। बस! एक ही बाना पहने रखा और वह था दबाव मुक्त व लोकप्रतिबद्ध पत्रकारिता का।
इस घटनाचक्र की पृष्ठभूमि में 1978 में दूसरे प्रेस आयोग का जन्म होता है। इस आयोग ने करीब चार वर्षों तक भारतीय प्रेस, उसके स्वामित्व, उसकी संरचना, व्यावसायिकता, औद्योगिक-व्यापारिक संबंध, भाषाई प्रेस, समाचार एजेंसी, पत्रकारों की कार्य स्थिति, प्रेस का सामाजिक उत्तरदायित्व, प्रेस-स्वतंत्रता, भारतीय प्रेस परिषद की भूमिका, प्रेस बनाम संसद के विशेषाधिकार, प्रबंधकों के हस्तक्षेप के विरुद्ध सुरक्षा व संपादकीय स्वतंत्रता, बड़े अखबारों में प्रबंधकों और संपादक के मध्य ‘बोर्ड आॅफ ट्रस्टी’ की व्यवस्था, समाचार और विज्ञापन के बीच आनुपातिक संबंध, मझौले व लघु समाचार पत्रों की विज्ञापन स्थिति जैसे पक्षों का अध्ययन किया और कई महत्वपूर्ण सिफारिशें कीं, लेकिन सबसे अधिक ऐतिहासिक व युगांतकारी सिफारिश थी प्रेस का उसके प्रेसेतर उद्योग धंधों से पूर्णरूपेण ‘डीलिंक’ करने की। आयोग का मत थाः

“We think that in the interest of the public, it is necessary to insulate the press from the dominating influence of the other business interests. We propose the enactment of a law in the interest of the general public making it mandatory for persons carrying on the business of publishing a newspaper to severe their connections with other business to the extent indicated hereinafter by us. In this context we are using the expression ‘person’ in its legal sense so as to bring within its ambit individuals, companies, trusts, etc… The central idea underlying the legislation would be that a person carrying on the businesses of publishing a newspaper should not have directly or indirectly, an interest in excess of the prescribed interest’ in any other business, or be in a position of being controlled, directly or indirectly, by any other person or persons having an interest, in excess of the prescribed interest, in any other business. The expression ‘business’ should be defined to mean any thing which occupies the time, atteniton and labour of a person for the purpose of profit but not any activity in the nature of exerciese of a profession.
The commission further said:
“We are conscious that it would be impracticable to make the proposed legislation applicable to all persons carrying on the business of publishing a newspaper one stroke. We are of the view that in the first instance it should be enforced in the case of all persons who are in a position of controlling the publications of one or more daily newspapers with the same or different titles, in one or more languages, the circulation of which, taken single or cumulatively, exceeds one lakh copies per day…”
यह सर्वविदित है कि देश की प्रतिष्ठानी प्रेस या प्रभुवर्गीय समाचार घराने ‘जूट प्रेस’ के रूप में भी विख्यात रहे हैं। महानगरीय स्थित इन बहुसंस्करणीय समाचार-पत्र समूहों के स्वामियों के औद्योगिक व व्यापारिक हित जूट, बैंकिंग, टैक्सटाइल, शुगर, सीमेंट, आॅटो मोबाइल, प्लांटेशन, स्टील रोलिंग, रबड़, सीमेंट, पेपर मिल, इलेक्ट्रोनिक्स, कृषि-आधारित उद्योग, आयुर्वेदिक दवाइयां जैसे प्रेसेतर औद्योगिक क्षेत्रों से जुड़े रहे हैं। 21वीं सदी में तो इस सूची का और भी विस्तार हो चुका है; रीयल इस्टेट, कंस्ट्रक्शन, शराब-बीयर निर्माण, चिटफंड-सीरियल प्रोडक्शन, फिल्म प्रोडक्शन, आई.टी. सेक्टर जैसे ढेरों नामी-बेनामी उद्योग धंधे इसमें जुड़ गए हैं। लेकिन दुर्भाग्य से इस सुझाव पर आयोग के सदस्यों के बीच सर्वसम्मति का अभाव रहा। आयोग के चार प्रतिष्ठित सदस्यों ने इस सुझाव का कड़ा विरोध किया। इन सदस्यों में शामिल थे सर्वश्री गिरीलाल जैन, राजेन्द्र माथुर, डाॅ. एस.के. परांजपे और जस्टिस एस.के. मुखर्जी। इस असहमति को लेकर कई प्रकार के विवाद उठे। इसकी कई व्याख्याएं हुईं। लेकिन सच्चाई यह है कि दोनों आयोग स्वामित्व के केंद्रीकरण को रोकने, और प्रेस तथा ट्रेड व इंडस्ट्री के परस्पर संबंधों का विच्छेद करने में दयनीय रूप से नाकाम रहे हैं। द्वितीय आयोग ने तो इतना स्पष्ट मत व्यक्त किया था कि ‘‘एकाधिकारवादी घरानों से प्रेस को ‘डीलिंक’ करने के लिए’’ सरकार को चाहिए कि देश के ‘‘उच्च आठ समाचार प्रतिष्ठानों का सार्वजनिक अधिभार ग्रहण करे।’’ लेकिन क्या नतीजा निकला? नाकामियां ही हाथ लगीं। संक्षेप में प्रेस सामंतों की शक्ति के समक्ष नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी (1954-1982) तक की सरकारें इस मुद्दे पर सिर्फ नतमस्तक होती रहीं हैं।
इसके अलावा अन्य सुझावों के आलोक में समाचार पत्र विकास आयोग का अभी तक गठन नहीं किया गया; बोर्ड आॅफ ट्रस्टी की स्थापना भी नहीं हुई; समाचार-विचार और विज्ञापनों के बीच असंतुलन बढ़ रहा है; भविष्यवाणियां प्रचण्डता से प्रकाशित हो रही है; छवि प्रोजेक्शन के लिए विज्ञापन-दुरुपयोग जारी है, एक स्थायी राष्ट्रीय विज्ञापन नीति नहीं है, पत्र सूचना कार्यालय (पी.आई.बी) का पुनर्गठन शेष है।
संक्षिप्त और स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो प्रेस सामंतों ने 1954 से लेकर अब तक पहले से हजार गुना अधिक अपनी सरहदों का विस्तार किया है। वे अधिक शक्तिशाली हुए हैं और भारतीय राष्ट्र राज्य को ललकारने की हैसियत अर्जित कर चुके हैं?
III
अब हमंे पहले और दूसरे आयोग के सुझावों, अनुभवों और परिणामों के परिप्रेक्ष्य में तीसरे आयोग के गठन के कारणों को रेखाकिंत करने की जरूरत है। 1954 से लेकर 2011 तक के 57 वर्ष के काल में देश और प्रेस में काफी कुछ घट चुका है। अब भारतीय राज्य परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र बन चुका है; 2020 तक विश्व की प्रमुख आर्थिक शक्ति बनने के स्वप्न से यह समृद्ध है; अगले कुछ वर्षों में हम चांद पर दस्तक देने वाले हैं। अब परंपरागत भारतीय प्रेस का संबोधन नेपथ्य में खिसक रहा है। इसके स्थान पर भारतीय मीडिया का संबोधन पत्रकारिता क्षितिज पर अपने पूरे ग्लैमर के साथ स्थापित हो चुका है। वास्तव में पांचवें व आठवें दशक की प्रेस और नवउदारवादी अर्थतंत्र की पैदाइश वर्तमान भारतीय मीडिया के बीच समानताएं खोजना लगभग निष्फल कवायद होगी। दोनों के चाल, चरित्र और चेहरे नितान्त भिन्न हैं।
अलबत्ता, स्वामित्व वर्ग की निरतंरता अवश्य बनी हुई है। यह वर्ग नए साधनों, नई टेक्नोलॉजी समुद्रपारीय पूंजी संबंध और नई बहुआयामी गठबंधन शक्ति से निश्चित ही लैस हुआ है। यह स्वयं में स्वतंत्र व दिलचस्प अध्ययन का विषय है।
फिलहाल 21वीं सदी की चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए तीसरे आयोग के गठन की, जमीन निम्न आधारों पर तैयार की जा सकती हैः
सर्वप्रथम
1. प्रेस प्रतिष्ठानों में विदेशी पूंजी नियोजन की अनुमति 26 प्रतिशत तक। नेहरू से लेकर इन्द्र कुमार गुजराल तक, किसी भी प्रधानमंत्री ने यह अनुमति नहीं दी थी। वैश्वीकरण के दवाब में वाजपेयी सरकार ने अनुमति प्रदान की।
2. प्रेस व मीडिया में उच्च पूंजी का वर्चस्व/ विज्ञापनवाद का प्रभुत्व। ब्रांड मैनेजर का निर्णायक उदय।
3. संपादक संस्था का परोक्ष विलोपीकरण।
4. अनुबंधित पत्रकार व कर्मचारी प्रथा को प्रोत्साहन। वेज बोर्ड नियमित मानव-शक्ति का क्रमिक लोप। निष्प्रभावी श्रमिक संगठन।
5. ऊंचा वेतन व सुविधावादी जीवन शैली लेकिन प्रतिष्ठान में असुरक्षा व अनिश्चितता का वातावरण।
6. प्रशिक्षित पत्रकार व उत्पीड़क प्रतिस्पर्धा।
7. समाचार पत्रों के बीच अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा और घातक ‘मूल्य जंग’ ‘(प्राइस वार)’। मटमैली पूंजी का समाचार।
8. क्षेत्रीय भाषाई प्रेस व मीडिया की सत्ता का उदय।
9. बहु व अंतर्राज्यीय संस्करणों का विस्फोट।
10. पंचस्तरीय समाचार संरचनाः 1. राष्ट्रीय, 2. प्रदेश राजधानी, 3. संभागीय, 4. जिला स्तरीय और 5. ताल्लुक या तहसील या प्रखंड स्तरीय।
11. केंद्रीय समाचार डेस्क और परोक्ष केंद्रीय नियंत्रण।
12. समाचार व मुद्दों का अति स्थानीयकरण। समाचारपत्र का विखंडीकरण और उभरता अलोकतांत्रिक व्यक्तित्व। संवादहीनता व अपरिचितपन की प्रवृतियों का उभरना।
13. समाचारपत्रों में उभरती विद्रूपता।
14. प्रेस या मीडिया का प्रोडक्ट में रूपांतरण।
15. समाचार व विचार और विज्ञापन के बीच गहराता प्रतिशत असंतुलन।
16. पैसा वसूल समाचार परिघटना। (पेड न्यूज) अर्थात् प्रायोजित समाचार व विचार सामग्री का फलता फूलता व्यापार।
17. लांबिंग का कारोबार।
18. स्टिंग आपरेशन।
19. विदेशी अखबारों का भारतीय फेक्सीमिली संस्करण।
20. भारतीय लोकमत को प्रभावित करने की रणनीति।
21. एक व्यक्ति या परिवार या समूह का बहु आयामी संचार माध्यम पर नियंत्रण (प्रेस, चैनल, केबल, आदि।)
22. अखबारों के इंटरनेट संस्करण और साइबर पत्रकारिता।
23. अखबार और पत्र-पत्रिकाओं में सेक्स, ग्लैमर, अपराध, अंधविश्वास आदि का बढ़ता प्रभाव।
24. सूचना-मनोरंजन परिघटना।
25. आचार संहिता की योजनाबद्ध उपेक्षा।
26. विकलांग भारतीय प्रेस परिषद।
27. प्रायोजित व दिखावटी पत्रकार और छद्म स्वतंत्रता।
28. प्रेस में आंतरिक उपनिवेश का परिवेश।
29. सोशल मीडिया का उदय।
30. ओम्बड्समेन की व्यवस्था नहीं।
31. भाषाई समाचार एजेंसियों का अवसान।
32. पत्रकारों पर बढ़ते हमले और राज्य की उदासीनता।
33. जन संघर्षों की खबरों को दबाना।
34. पेज थ्री संस्कृति को प्रोत्साहित करना।
35. बडे़ प्रेस घरानों द्वारा संभागीय व जिला स्तरीय संस्करण निकालने के कारण स्थानीय स्तर के अखबारों की दयनीय स्थिति।
36. पत्रकारों को गैर-पत्रकारीय कार्यों में जोतना।
37. प्रेस प्रतिष्ठानों में ‘शोध एवं विकास’ पर न्यूनतम ध्यान। संदर्भ विभाग व पुस्तकालय का अभाव।
38. औद्योगिक व व्यापारिक हितों की रक्षा की दृष्टि से काॅरपोरेट घरानों द्वारा ग्लैमरीकृत पत्रिकाओं का आक्रामक प्रकाशन। बौद्धिक जगत व लोकतंत्र को प्रभावित करने की कोशिशें।
39. एकाधिकारवादी प्रेस व मीडिया घरानों में देश के लिए ‘एजेंडा निर्धारण’ की उग्र होती प्रवृत्ति।
40. नवउदारवादी वैश्विक आर्थिक शक्तियों की अविवेकपूर्ण पक्षधरता। स्वदेशी हितों व आवश्यकताओं के प्रति सुनियोजित उदासीनता।
ऐसे और भी अनेक आधार हो सकते हैं जिन्हें चिन्हित करने की आवश्यकता है। लेकिन तीसरे आयोग के केस को आगे बढ़ाने के लिए फिलहाल चिन्हित आधारों पर सोचा जाना चाहिए। क्योंकि मुख्य मुद्दा है लोकतंत्र को जीवित, जीवंत और समतावादी बनाए रखने के लिए ऐसी प्रेस या मीडिया का होना आवश्यक है जोकि हर दृष्टि से दबावमुक्त, जवाबदार और लोकोन्मुखवादी हो। दूसरे प्रेस आयोग का स्पष्ट मत था।
“The press being a prime needs of society, when its machinery is concentrated only in the hands of a few, some of whom indulge in practices which are harmful to the health of society, freedom of the press is in danger as it is employed for a purpose for which it was never indeed. In a system of adult suffrage, freedom of the press becomes meaningless when it is not known on whose behalf and whose benefit this freedom is exercised…”
पिछले वर्षों में हम देख चुके हैं कि किस प्रकार प्रेस की स्वतंत्रता की दुहाई देकर कतिपय प्रेस सामंतों ने अपने औद्योगिक अपराधों, विदेशी मुद्रा विनिमय उल्लंघन तथा अन्य घोटालों को छुपाने की कुचेष्टाएं की थीं। उन्होंने अपने निजी अपराधों को प्रेस स्वतंत्रता के साथ नत्थी कर दिया था।
यह सर्वविदित है कि प्रेस सामंत और क्षेत्रीय प्रेसपति किस प्रकार केंद्र व राज्य सरकारांे पर विभिन्न प्रकार के दबाव डालकर अनगिनित सुविधाएं हथियाते हैं। दूसरे आयोग के बाद इस प्रकार की गतिविधियों में तेजी आई है। एक प्रकार से चुनिंदा तरीके से प्रेस की स्वतंत्रता पर सौदेबाजी की जाती है। इस खेल के खिलाड़ी होते हैं प्रेस प्रभु वर्ग, राजनीतिक दल, काॅरपोरेट घराने, नौकरशाह, बिल्डर, कांट्रेक्टर, भू-माफिया तथा अन्य नवउदित संगठित धनिक व प्रोफेशनल वर्ग। इन तत्वों के कारण लोकहित व जनकल्याण के समाचारों को या तो रोका जाता है या किसी मामूली कोेने में प्रकाशित कर दिया जाता है। 2009 के आम चुनावों में पेड न्यूज या न्यूज फिक्ंिसग के महाकांड से हम सभी परिचित हैं। हम यह भी जानते हैं कि इस मामले में किस प्रकार प्रेस सामंतों ने भारतीय प्रेस परिषद को प्रभावित करने की कुचेष्टाएं की थीं। पेड-न्यूज के महाकांड में लिप्त समाचार पत्रों के सभी नामों को उजागर नहीं होने दिया गया। परिषद की जांच समिति इस मुद्दे पर विभाजित रही। कतिपय प्रतिबद्ध व जागरूक सदस्यों के कारण नामों का खुलासा हो सका। इस तरह की हरकतों से प्रेस की स्वतंत्रता संकटग्रस्त होने लगती है।
आज भाषाई प्रेस का युग है। देश में दस चोटी के अखबार हिंदी समेत भारतीय भाषाओं के हैं। आने वाले दशक में भारतीय भाषाओं के पाठकों की संख्या में असाधारण वृद्धि की घोषणाएं की जा रही हैं क्योंकि साक्षरता तेजी से बढ़ रही है। हिंदी राज्यों में पाठकों का बड़ा बाजार, विशेष रूप से ग्रामीण व कस्बाई क्षेत्रों में, तैयार हो रहा है। बहुराष्ट्रीय निगमों और देशी-विदेशी विज्ञापन इस परिघटना पर नजर गड़ाए हुए हैं क्यांेकि पाठक वर्ग उपभोक्ताओं भी होता है। अतः प्रेस व मीडिया के माध्यम से नए सिरे से सांस्कृतिक आक्रमण, उपभोक्ताकरण और लोकमत अनुकूलन का कारोबार चलाया जाएगा। कुल मिलाकर प्रेस व मीडिया में ग्राहक वर्ग पर आधिपत्य स्थापित करने के लिए बहुआयामी निरंकुशता दिखाई देगी। इस संभावित अराजकता, उच्छृंखलता, निरंकुशता जैसी प्रवृत्तियों से निपटने के लिए कोई तो बंदोवस्त करना होगा। इसके लिए राज्य, पत्रकार वर्ग, लोकवृत के नेता, संवेदनशील प्रेसपति, विधि विशेषज्ञ जैसे व्यक्तियों को सक्रिय होना होगा। इस दृष्टि से तीसरे आयोग की स्थापना की दिशा में बहुस्तरीय कदम उठाने होंगे। यहां इस सच्चाई को गहराई से स्वीकारना होगा कि भविष्य में भाषाई प्रेस की भूमिका काफी चुनौतीपूर्ण रहेगी। अतः इस तथ्य की तरफ खास ध्यान देने की जरूरत है।
यहां यह भी विचारणीय विषय है कि आयोग का कार्यक्षेत्र किस प्रकार का होना चाहिए? चूंकि आज मीडिया त्रिआयामी है अर्थात पिं्रट या प्रेस, दो इलेक्ट्राॅनिक या चैनल व केबल और तीन इंटरनेट या साइबर। सूचना, समाचार, विचार और मनोरंजन के इन तीन माध्यमों की आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखते हुए आयोग होना चाहिए। आयोग एक से अधिक भी हो सकते हैं या बहुसमावेशी आयोग बैठाया जा सकता है। लेकिन मेरे मत में इन तीनों माध्यमों की अपनी अपनी विशिष्टताएं, समस्याएं और चुनौतियां हैं। तीनों की कार्यशैलियां भी भिन्न हैं। अतः मुद्रण माध्यम या प्रेस या पत्र-पत्रिकाओं के लिए अलग से स्वतंत्र आयोग का गठन उपयुक्त रहेगा।
अलबत्ता आयोग के कार्याधिकार के लिए तात्कालिक तौर पर निम्न लक्ष्य प्रस्तावित किए जा सकते हैं:
भारतीय प्रेस परिषद को वैधानिक दृष्टि से शक्ति सम्पन्न बनाना। कार्रवाई और दण्ड के अधिकारों से लैस करना।
प्रेस स्वामित्व स्थिति का गंभीर अध्ययन।
एकाधिकार और केंद्रीकरण को समाप्त करने के लिए राष्ट्रीय कानून।
समाचार-विचार और विज्ञापन में समानुपातिक संतुलन स्थापित करना/कानून बनाना।
एक व्यक्ति या एक समूह या परिवार को एक ही माध्यम रखने का अधिकार।
राष्ट्रीय और बड़े प्रेस प्रतिष्ठानों में प्रबंधक और संपादक के बीच प्रबुद्ध वर्ग या नागरिक समाज के प्रतिनिधियों का न्यास मंडल की स्थापना करवाना।
संपादक संस्था को पुनर्जीवित करना। प्रबंधक, ब्रांड मैनेजर और विज्ञापन दाताआंे के कार्यक्षेत्रों का वैधानिक रूप से निर्धारण और संपादन कार्य क्षेत्र की स्वतंत्रता की बहाली।
प्रेस और उद्योग-व्यापार को सख्ती से ‘डीलिंक’ करना।
अनुबंध-व्यवस्था की समीक्षा। वेज बोर्ड के प्रावधानों को लागू करवाना।
स्थानीय लघु व मझौले समाचार पत्रों को सुरक्षा।
विदेशी शक्तियों व पूंजी द्वारा भारतीय अभिमत को प्रभावित करने की कोशिशों की रोकथाम।
भाषायी समाचार एजेंसियों की पुनस्र्थापना।
कस्बों व ग्रामीण क्षेत्रों में पत्रकारिता शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था।
प्रेस विकास आयोग की स्थापना। भाषाई प्रेस पर विशेष ध्यान।
डी.ए.वी.पी., पी.आई.बी., आर.एन.आई. और प्रदेशों के जनसंपर्क कार्यालय आदि के कार्यों की विवेचनात्मक समीक्षा आवश्यक है।
संस्करणों की संख्या व सीमा क्षेत्र निर्धारण।
सोशल ऑडिटिंग की व्यवस्था। प्रेस की जवाबदारी निर्धारण।
पत्रकारों की सुरक्षा, स्वतंत्रता और स्थायित्व की व्यवस्था।
पूर्व के दोनों आयोगों के सुझावों की समीक्षा और अधूरे कार्यों को पूरा कराने का उत्तरदायित्व।
प्रेस में विदेशी पूंजी नियोजन की अनुमति की जांच और भविष्य में इसके रोकथाम के उपाय।
मनमोहन सिंह सरकार द्वारा मनोरंजन क्षेत्र में 74 से 100 प्रतिशत और प्रेस में 26 से 49 प्रति की विदेशी पूंजी नियोजन का मार्ग साफ करने की परिस्थितियांे और विदेशी दबावों का अध्ययन।
राष्ट्रीय प्रेस आयोग के साथ-साथ क्षेत्रीय आयोगों के गठन की आवश्यकता।
प्रेसपत्ति, प्रबंधक (विज्ञापन, वितरण मैनेजर आदि) तथा मान्यता प्राप्त संपादक और अन्य वरिष्ठ पदों (संयुक्त संपादक) स्थानीय संपादक, ब्यूरो प्रमुख, चीफ रिपोर्टर आदि) पर आसीन पत्रकार प्रति तीसरे वर्ष अपनी चल-अचल संपत्ति की घोषणा करें।
संदर्भ सामग्री
1- J.P.Chaturvedi: The Indian press at the Crossroads.
2. Robin Jeffry : Indian’s Newspaper Revolution
3. Sevanti Ninan : Headlines from the Heartland
4. समयांतर : मीडिया विशेषांक, फरवरी, 2011
5. रामशरण जोशी: मीडिया विमर्श।
6. रामशरण जोशी: मीडियाः मिशन से बाजारीकरण तक।
7. रामशरण जोशी: मीडिया, मिथ और समाज।

बुधवार, 8 जून 2011

मीडिया या बाजार

यह लेख एक अनाम व्यक्ति ने भेजा है। लेखक लगता है कि मीडिया में ही हैं।

ग्लोबल इंडिया में सब कुछ बाजार तय करता है और कर रहा है। बात किसी उत्पाद को बेचने की हो या फिर अपने तय क्षेत्रों में आगे बढ़ने की, मार्केटिंग जरूरी है। यानी फंडा साफ है। अगर करियर में कामयाबी, सफलता की बुलंदियों को हासिल करना है तो खुद को पहले एक प्रोडक्ट मानना होगा, उसे चमकाना होगा। वैसे, जरूरी ये भी नहीं है कि चमक लाई ही जाए क्योंकि चाटुकारिता के सामने काबिलियत कहीं नहीं ठहरती। इसलिए जिसने ये हुनर सीख लिया, उसे कुछ और सीखने की जरूरत नहीं है। खबरों के बाजार में उसे मोटी कीमत मिलनी लगभग तय है। मीडिया का काम है सच सामने लाने, बिना लाग लपेट हकीकत बयां करना। मगर, समाज को रौशन करने का जज्बा दिखाने वाले मीडिया के भीतर कितना अंधेरा है, क्या इसे देखने की कभी कोशिश होती है। कम वेतन, न्यूनतम सहूलियतों के साथ सैकड़ों-हजारों नौजवान मीडिया की मंडी में जुझारू बैल की तरह जोते जा रहे हैं। फिर भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि उसकी महीने की तनख्वाह पक्की ही है। कहने का मतलब ये कि मंदी के छंटने के बावजूद मीडिया में कृत्रिम मंदी बनी हुई है। लिहाजा नौकरी बची रहे इसके लिए बॉस की गाली भी लोरी समझना मजबूरी बन चुकी है। हां, ये अलग बात है कि कुछ लोग ये कथित लोरी सुनने को न राजी हैं और मजबूर। ये भी नहीं है कि भीड़ में शामिल इन लोगों का कोई गॉड फादर या गॉड मदर है। बल्कि इन्हें हौसला और उम्मीद देने वाले कुछ मुट्ठी भर लोग हैं। पारिवारिक परिवेश इनकी मजबूती का एक बड़ा कारण है, जिसके बल बूते ये डटे हुए हैं बिना डरे और बिना हारे। सिफारिश किस पेशे में नहीं चलती। लेकिन जो हाल मीडिया घरानों का है, वो भी किसी से छिपा नहीं है। इन दिनों एक और अजीबो गरीब ट्रेंड चल पड़ा है खेमों का। कौन किस खेमे से आता है, किसका खेमा कब किस पर भारी पड़ जाए किसी को नहीं मालूम। पल भर में मीडिया संस्थान में रक्तविहिन सत्ता परिवर्तन हो जाता है। विकेट गिरने लगते हैं। मगर, इस बदलाव से क्या संस्थान को, पत्रकारिकता को कोई फायदा होता है। ये जानने या समझने की शायद ही कोई कोशिश होती है। ये खेल उन संस्थानों में ज्यादा खेला जा रहा है, जिनका न पत्रकारिता से कोई लेना देना है और न ही मीडिया के सामाजिक-आर्थिक दायित्वों से। इन कथित टीवी चैनलों में बेरोजगार होने का खौफ इतना ज्यादा है कि इंसानियत भी शर्मसार हो जाए। कह सकते हैं कि यहां भविष्य संवरता नहीं बल्कि लोग डिप्रेशन, गुस्से, कटुता के दलदल में फंस कर रह जाते हैं। शीर्ष चैनलों में हालत थोड़ी ठीक कही जा सकती है। लेकिन यहां भी खेल कम नहीं होता। एक बड़े चैनल में दाखिला पाने के लिए जितनी बड़ी पैरवी होगी, आपका काम उतनी ही आसानी से होगा। परीक्षा या इंटरव्यू तो महज ढोंग है। नौकरी चुटकियों में आपके पास होगी। एक और बड़े चैनल का ये हाल है कि प्रोग्राम बनाने वाले को प्रश्न तैयार करने के लिए चैनल के बाहर के लोगों से मदद लेनी पड़ती है। यानी सवाल और रिसर्च बाहर वाले करते हैं, जबकि श्रेय प्रोग्राम के प्रोड्यूसर को मिलता है या फिर चैनल को। कहने का आशय ये कि बड़े मीडिया घरानों में इसकी कोई गारंटी नहीं है कि वहां का मानव संसाधन उत्कृष्ट ही होगा। फिर भी आपकी सीवी में किसी बड़े मीडिया हाउस का टैग होगा, तो समझिए बल्ले-बल्ले। जबकि सिक्के का दूसरा पहलू ये है कि छोटे संस्थानों में भी मेरिट बसता है। काबिल लोग होते हैं। दिक्कत सिर्फ ये कि उन्हें जो मौका मिलना चाहिए नहीं मिलता। वे चाहे तो वहीं सड़ते,घुटते रहते हैं या फिर अपना पेशा ही बदल देते हैं। आखिर कब बदलेगी मीडिया की ये सूरत। कब समझेंगे लोग कि पत्रकारिता कारोबार नहीं और न पत्रकार नेता। इसलिए कृपा कर कारोबार का काम व्यापारियों को संभालने दें और राजनीति नेताओं को ही करने दें। नौजवानों का भविष्य न बिगाड़ें।

सोमवार, 6 जून 2011

क्यों नहीं चमक सकता हिंदी किताबों का बाजार

उमेश चतुर्वेदी
विलायत में भले ही अंग्रेजी किताबों का बाजार दो से तीन फीसदी की दर से बढ़ रहा हो, लेकिन उदारीकरण के दौर के भारत में यह विकास दर 15 से 20 प्रतिशत सालाना है। एक अंग्रेजी अखबार का दावा है कि भारत में अंग्रेजी किताबों का व्यापार करीब आठ हजार करोड़ का हो गया है। यानी उदार भारत के लोगों की उदारता विलायती भाषा की तरफ तेजी से बढ़ रही है। आर्थिक दुनिया में इतना बड़ा बाजार होगा तो खबर भी होगी ही। यही वजह है कि अब अंग्रेजी प्रकाशनों की दुनिया में लोगों की नौकरियां बदलने या फिर नई जिम्मेदारी संभालने की खबरें मुख्यधारा की पत्रकारिता की बड़ी खबरें बन रही हैं। अगर डेविड दाविदार जाने-माने प्रकाशक रूपा द्वारा स्थापित एलेफ नामक प्रकाशन संस्थान के प्रमुख बनते हैं और उसकी खबर अंग्रेजी के जाने-माने अखबारों की सुर्खियां बनती है तो इसी से पता लगाया जा सकता है कि भारत में अंग्रेजी किताबों का कितना बड़ा बाजार खड़ा हो गया है। अभी तक अंग्रेजी लेखन की ही धूम की चर्चा होती थी। अमिताभ घोष, अरूंधती रॉय, विक्रम सेठ, झुंपा लाहिरी, शिव खेड़ा जैसे लेखकों के बहाने अंग्रेजी लेखन की धूम की ही चर्चा रहती थी। लेकिन अब अंग्रेजी के बढ़ते बाजार के चलते अंग्रेजी प्रकाशनों के प्रमुखों के नौकरियां बदलने और मोटे प्रस्तावों को खबर बनाया जाने लगा है। हाल ही में हार्पर कॉलिन्स के प्रबंध संपादक और राइट्स एडिटर सुगत मुखर्जी ने पिकाडोर के प्रकाशक और संपादक का दायित्व संभाला है। पिकाडोर की योजना अगले साल तक 30 शीर्षकों को प्रकाशित करना है। कुछ इसी तरह पिकाडोर की मार्केटिंग और संपादकीय प्रमुख रहीं श्रुति देव ने अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक एजेंसी ऐटकिन एलेक्जेंडर एसोसिएट्स के दिल्ली दफ्तर का कामकाज संभाल लिया है। इसी तरह अंग्रेजी की दुनिया का जाने-माने प्रकाशन संस्थान रैंडम हाउस के बारे में कहा जा रहा है कि वह भारत में अपना कारोबार बढ़ाना चाहता है। इसी तरह चिकी सरकार पेंगुइन के प्रमुख संपादक का दायित्व संभालने जा रहे हैं। इसके पहले यह दायित्व रवि सिंह के पास था, ऐसा माना जा रहा है कि रवि सिंह रूपा की नई सहयोगी कंपनी एलेफ को ज्वाइन कर सकते हैं। अंग्रेजी प्रकाशन की दुनिया में इतनी तेजी इसलिए देखी जा रही है, क्योंकि माना जा रहा है कि भारतीय लेखकों की तरफ दुनिया देख रही है। लेकिन ये भारतीय लेखक असल में अंग्रेजी के ही लेखक हैं। देसी भाषाओं के लेखकों की तरफ दुनिया का ध्यान खास नहीं है। अपने बेहतर या टुटपूंजिए संपर्कों के जरिए भारतीय भाषाओं के एक-आध लेखकों ने अंग्रेजी या पश्चिम के बाजार में दखल देने की कोशिश जरूर की है, लेकिन उनकी पहचान चींटीप्रयास से ज्यादा कुछ नहीं है।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाएं बोलने वालों का विशाल इलाका होने के बावजूद उनकी पूछ और परख या बाजार में उनकी वैसी धमक क्यों नहीं बन पा रही है। कारपोरेटीकरण का हिंदी का बुद्धिजीवी समाज सहज विरोधी रहा है। उसे पारंपरिकता की दुनिया ही पसंद आती है। यात्रा बुक जैसे एक-दो प्रयासों को छोड़ दें तो हिंदी प्रकाशन में कारपोरेट संस्कृति विकसित नहीं हो पाई है। यहां अब भी लेखक की वही हैसियत है, जो श्राद्ध के वक्त दान पाने वाले ब्राह्मण की होती है। श्राद्ध पक्ष के ब्राह्मण को दान देकर जैसे दानदाता एक तरह के एहसान करने के बोध से भर जाता है, हिंदी प्रकाशन की दुनिया का अपने लेखक के प्रति भी कुछ वैसा ही हाल है। उसे लगता है कि उसने किताब छापकर लेखक पर एहसान ही किया है। हिंदी का प्रकाशक पाठकों को ध्यान में रखकर लेखक की कृति को प्रकाशित करने से कहीं ज्यादा ध्यान किताब बिकवाने या सरकारी खरीद कराने में लेखक की हैसियत पर होता है। यानी हिंदी प्रकाशन का बाजार सिर्फ और सिर्फ सरकारी या अकादमिक खरीद पर ही टिका है। पाठक से सीधे संवाद से हिंदी प्रकाशन जगत हिचकता है। ऐसे में हिंदी प्रकाशकों और उनके यहां काम करने वाले लोगों की हैसियत वैसी नहीं बन पाती, जो रैंडम, पिकाडोर या पेंगुइन के साथ ही डेविड देविदार या सुगत मुखर्जी की है। चूंकि हैसियत नहीं है, इसलिए मीडिया भी उस पर ध्यान नहीं देता और मीडिया ध्यान नहीं देता तो पाठकों तक सूचना नहीं पहुंचती और जब सूचना पहुंचेगी ही नहीं तो पाठकीयता का निर्माण कैसे होगा। सवाल तो कठिन है, इस पर विचार तो हिंदी वालों को ही करना होगा।

सोमवार, 30 मई 2011

फिर-फिर मीडिया विशेषांक

हिंदी की साहित्यिक पत्रिका रचना क्रम के यूं तो अभी दो ही अंक प्रकाशित हुए हैं। लेकिन इन्हीं दो अंकों के जरिए साहित्यिक पाठकों के बीच रचनाक्रम ने जो उपस्थिति बनाई है, साहित्य की विदाई के कथित दौर में संतोष का विषय है। पाठकों का रचनाक्रम को जो सहयोग मिल रहा है, वह रचनाक्रम के प्रकाशक और संपादक अशोक मिश्र की रचनाधर्मिता और संपादकीय दृष्टि को बेहतर बनाने एवं पत्रिका साहित्यिक तौर पर पाठकोपयोगी बनाने में मदद देगा। रचनाक्रम का उद्देश्य अपने पाठकों को सोद्देश्य और मूल्यपरक साहित्यिक एवं वैचारिक सामग्री पेश करना रहा है। इसी कड़ी में पत्रिका ने अपना तीसरा अंक मीडिया पर केंद्रित किया है। उदारीकरण के दौर में मीडिया के विस्फोटक विस्तार ने मीडिया पर सोचने और विचारने के साथ ही चर्चाओं का एक बड़ा प्लेटफार्म मुहैया कराया है। अब तक मीडिया को लेकर जो चर्चाएं होती रही हैं, उनमें अतिवादिता का बोलबाला रहा है। इन चर्चाओं और मीडिया के जबर्दस्त विस्तार के बीच पाठक और लोक कहीं खोता जा रहा है। इसे ध्यान में रखते हुए रचनाक्रम ने अपना अगला विशेषांक मीडिया में लोक पर केंद्रित किया है। सच तो यही है कि आज का चाहे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो या फिर प्रिंट मीडिया, लोक और आम आदमी और उसकी चिंताएं लगातार गायब हो रही हैं। इन्हीं चिंताओं के बहाने भारतीय मीडिया पर विमर्श दृष्टि डालने का रचनाक्रम का यह प्रयास है। इस प्रयास को बतौर लेखक और रचनाकार आप सुधीजनों के सहयोग की जरूरत है। आप मीडिया में हों या मीडिया के बाहर, मीडिया में प्रचलित धारणाओं और प्रवृत्तियों को लेकर आपकी सोच क्या है, या आपको मीडिया कैसा दिखता है। इसे लेकर क्या सोचते हैं, आपकी सोच रचनाओं-लेखों, मीडिया हस्तियों के साक्षात्कार के तौर पर आमंत्रित हैं। अपनी रचना हमें मेल कर सकें तो हमारे लिए सहूलियत रहेगी। हमारा मेल आईडी है – uchaturvedi@gmail,com, editorrachnakram@gmail.com। वैसे आप अपनी रचनाएं डाक-कोरियर से भी अग्रलिखित पतों पर भेज सकते हैं –

1. संपादक, रचनाक्रम, पॉकेट डी -1/104 डी, डीडीए फ्लैट्स, कोंडली, दिल्ली – 110096, फोन - 9958226554

2. उमेश चतुर्वेदी, अतिथि संपादक, मीडिया विशेषांक, रचनाक्रम, द्वारा जयप्रकाश, एफ-23 ए, दूसरा तल, कटवारिया सराय, नई दिल्ली -110016, फोन - 9899870697

शनिवार, 28 मई 2011

वैचारिक रचनाधर्मिता और हिंदी प्रकाशन व्यवसाय

उमेश चतुर्वेदी
हिंदी प्रकाशन जगत पर आरोप रहा है कि यहां वैचारिक पुस्तकों की गुंजाइश नहीं है। वैसे हिंदी प्रकाशकों की प्रवृत्ति कहानी-उपन्यास और बहुत हुआ तो संस्मरण-जीवनी तक की पुस्तकें प्रकाशित करने की रही है। वैचारिकता और विमर्श के अलावा शोध और सूचना प्रधान रचनाओं के लिए हिंदी में गुंजाइश कम ही रही है। अगर हिंदी प्रकाशकों को लगा कि वैचारिक किताबें भी छाप देनी चाहिए तो वे पाठ्यक्रम से जुडी किताबों को प्रकाशित करने में आगे रहे हैं। लेकिन उच्चकोटि का प्रकाशन कम ही प्रकाशक सामने ला पाने में कामयाब हुए। इस सिलसिले में वाराणसी के हिंदी प्रचारक संस्थान, इलाहाबाद के लोकभारती प्रकाशन, दिल्ली के मोतीलाल बनारसी दास और राजपाल एंड संस का नाम लिया जा सकता है। हां, कहानी-कविता और उपन्यास आदि प्रकाशित करने के लिए मशहूर दिल्ली के कुछ प्रकाशक इन दिनों वैचारिक किताबों को प्रकाशित करने में दिलचस्पी ले रहे हैं। हिंदी में ऐसे प्रकाशनों को गति देने में पेंगुइन यात्रा बुक्स के योगदान को सराहा जाना जरूरी है। जिसने पिछले साल पाल एस फ्रीडमैन की किताब दुनिया गोल नहीं के साथ ही कई महत्वपूर्ण किताबें प्रकाशित की हैं और उन्हें पाठकों ने हाथोंहाथ लिया है। इस कड़ी में वाणी प्रकाशन, राजकमल प्रकाशन, राधाकृष्ण प्रकाशन, सामयिक प्रकाशन और ग्रंथशिल्पी का नाम काफी आदर के साथ लिया जा सकता है। लेकिन यह बात और है कि इनके प्रकाशनों की पूछ और परख वैसी नहीं बन पाई है, जैसी पेंगुइन के हिंदी यात्रा बुक की है। इसलिए उसकी किताबें इन दिनों पाठकों के बीच पूछ और परख बना रही हैं। दुनिया गोल नहीं हो या उभरते भारत की तस्वीर, नई सदी से जुड़े विचार, भारतीयता की ओर जैसे पेंगुइन प्रकाशकों ने हिंदी पाठकों की दुनिया में अपने प्रोडक्शन और सामग्री के चलते पैठ बनाई है। इस कड़ी में खालिस देसी हिंदी प्रकाशकों के प्रयास सराहनीय तो हैं, लेकिन कम से कम पेंगुइन जैसा प्रोफेशनलिज्म उनमें नजर नहीं आता। यही वजह है कि उनकी किताबें पेंगुइन यात्रा बुक की तुलना में कम ही बिक पाती हैं। वैसे यह जमाना टीआरपी यानी टैम रेटिंग प्वाइंट का है। टेलीविजन की लोकप्रियता के ग्राफ को नापने वाली इस प्रणाली में बिकने वाली चीजों का महत्व बढ़ा है। यहां बिक्री की वजह बनी है सनसनी और ऐसी ही चीजें। हिंदी के नामचीन प्रकाशकों को बिक्री के लिए अब सनसनीखेज मसाले ही पसंद आते हैं। यानी कोई पत्रकार इराक की यात्रा रिपोर्टिंग के सिलसिले में कर आया तो वह अनुभव हिंदी प्रकाशक को बिकाऊ लगता है। हिंदी प्रकाशक को विदर्भ की मिट्टी में कर्ज के बोझ तले जान गंवाते किसानों का दर्द कम ही सालता है। अगर उसे विदर्भ से कोई विषय पसंद आता है तो वह होता है विदर्भ की कलावती और शशिकला जैसा चरित्र, जिन्हें कभी राहुल गांधी का सहयोग और सहानुभूति मिली। कहने का मतलब यह है कि हिंदी प्रकाशकों को वैचारिक आधार वाले वही विषय पसंद आते हैं, जो पाप्युलर हों। लेकिन कम से कम पेंगुइन या हिंदी के ग्रंथ शिल्पी जैसे प्रकाशनों के साथ ऐसी स्थिति नहीं है। वे ऐसे गंभीर साहित्य भी प्रकाशित करते हैं, जिनका पाप्युलर कल्चर से कोई वास्ता नहीं है। फिर भी उन्हें वे बेच लेते हैं और यह सब होता है उनकी सामग्री की गुणवत्ता और बेहतरीन प्रोडक्ट के दम पर। हिंदी के बड़े से बड़े प्रकाशक के सामने इस स्थिति की चर्चा करें तो उसका एक ही जवाब होता है कि उसके पास पूंजी नहीं है। हालांकि उनकी कमाई बढ़ती जा रही है, अब वे हवाई यात्राएं करते हैं। लेकिन उनके दफ्तर भी चमक-दमक भरे होते जा रहे हैं। लेकिन उनका पुराना रूदन जारी है। एक दौर में मध्य प्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, बिहार ग्रंथ अकादमी जैसे सरकारी प्रकाशनों ने गंभीर और साहित्येत्तर प्रकाशनों के जरिए हिंदी के बौद्धिक जगत को बदलने का प्रयास किया था। लेकिन अब वहां भी पहले जैसी हालत नहीं रही। राजनीतिक नियुक्तियों ने इन संस्थानों की गंभीर छवि और उसके प्रकाशनों की गुणवत्ता को खत्म कर दिया है। तो क्या यह मान लिया जाय कि हिंदी में गंभीर रचनाधर्मिता और प्रकशनों की दुनिया सिमट गई है। इसका जवाब हिंदी के अखबार हैं, जिनके दिल्ली और लखनऊ जैसे राजधानी केंद्रित संस्करणों में अब बौद्धिक किताबों की समीक्षाएं छापने का चलन बढ़ा है। जाहिर है कि वे हिंदी में लगातार बढ़ रहे बौद्धिक पाठकों की मानसिक खुराक देने की कोशिश में हैं। हिंदी के बौद्धिकता आधारित प्रकाशन जगत के लिए फिलहाल इससे ज्यादा सकारात्मक बात क्या होगी।

सोमवार, 23 मई 2011

हाशिए का साहित्य

उमेश चतुर्वेदी
हाशिए के साहित्य की जब भी चर्चा होती है, हमारे सामने उन रचनाओं का बिंब सामने आ जाता है, जिनकी गुटीय आलोचना के चलते चर्चा नहीं हो पाती या स्तरीय होने के बावजूद उनकी वाजिब नोटिस नहीं ली जाती। लेकिन यहां उस हाशिए की रचनाओं की दुर्दशा पर चर्चा का मकसद है, जो दिल्ली-पटना या लखनऊ-भोपाल से काफी दूर दूर-दराज के गांवों – कस्बों और ढाणियों में रचा जा रहा है। लेकिन दिल्ली-भोपाल, लखनऊ- पटना की समीक्षात्मक निगाहें इन रचनाकारों और उनकी रचनाधर्मिता पर नहीं पड़ रही है। साहित्य के गणतंत्र में हाशिए की इस रचनाधर्मिता की हैसियत कुछ वैसी ही हो गई है, जैसी भारतीय राजनीतिक गणतंत्र में राजधानी और शहरों के सामने गांवों-ढाणियों की हो गई है। राजधानी और राज्यों की राजधानियों में जिस तरह चमक-दमक भरी है और उनके सामने गांव-गिरांव और उनके लोग फीके हो गए हैं। उनकी आवाज की धमक सिर्फ चुनावों तक ही सुनाई पड़ती है, उनकी औकात सिर्फ चुनावी वक्त के दौरान ही बढ़ती है। लेकिन जैसे ही चुनाव बीत जाता है, हाशिए के लोगों की हैसियत पहले की ही तरह तीन कौड़ी की हो जाती है। लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि साहित्य में कोई राजनीतिक वरिष्ठताक्रम और सत्ता चुनने-गुनने की कोई परंपरा नहीं है, लिहाजा वहां चुनाव की जरूरत ही नहीं है, इस लिहाज से हाशिए के रचनाकार के लिए आम लोगों की तरह कभी चुनाव जैसा वक्त भी नहीं आता कि उनकी हैसियत कुछ पल के लिए ही बढ़ सके।
इस दर्द का जिक्र इसलिए कि अभी हाल ही में राजधानी दिल्ली से हजार-ग्यारह सौ किलोमीटर दूर की एक नितांत निजी यात्रा का संयोग बना। इस यात्रा के दौरान ऐसी रचनाधर्मिता से पाला पड़ा। लेकिन उन्हें कोई जानने की कोशिश करने वाला नहीं मिला। लेकिन उनका दुर्भाग्य देखिए कि उन्हें अपनी पहचान और हैसियत बढ़ाने के लिए वैसे ही दिल्ली की तरफ देखना पड़ रहा है, जैसे आम लोग दिल्ली-लखनऊ में बैठे राजनेताओं और सरकार के बड़े लोगों की रहमोकरम की बाट जोहते रहते हैं। लेकिन जैसे राजनेताओं के पास आम लोगों के लिए वक्त नहीं होता, कुछ ऐसा ही नखरा दिल्ली- लखनऊ के वे साहित्यकार दिखा रहे हैं, जो कथित साहित्य के केंद्र में हैं। अपनी रचनाधर्मिता को मान्यता दिलाने के लिए वे चिट्ठियों और पत्रियों के जरिए दिल्ली के साहित्यिक केंद्रों को बुलाने के लिए रिरियाते रहते हैं, अपने सीमित संसाधनों के बावजूद उनके रसरंजन का इंतजाम करने का भी वादा करते हैं, छोटे शहर के बेहतर होटल में ठहराने की तैयारी करते हैं। हालांकि आमतौर पर परोक्ष रूप से और एक-आध बार प्रत्यक्ष तौर पर ऐसी मांग केंद्र के आलोचकीय और साहित्यिक हस्तियों की तरफ से रखी जाती है, लेकिन फुर्सत होने के बावजूद उनके पास स्थानीय रचनाधर्मिता की पीठ थपथपाने का वक्त नहीं है। इसका दो तरह का असर हो रहा है। एक तो दिल्ली-लखनऊ केंद्रित रचनाधर्मिता के चलन के दौर में स्थानीय रचनाधर्मिता कुंठित हो रही है। उनके सामने चूंकि साहित्यिक गतिविधियों से आर्थिक फायदे का विकल्प भी नहीं है, लिहाजा ज्यादातर ऐसे आयोजन निजी खर्चों में कटौती के जरिए किए जाते हैं। लेकिन घर फूंक लगातार तमाशा देखना किसी के लिए आसान और लगातार करते रहने वाला काम नहीं है। लिहाजा कुंठाओं का असर बढ़ रहा है। यह तो हुई प्रत्यक्ष असर की बात। लेकिन इसका दूरगामी और अंत: असर कहीं ज्यादा गहरा है। हाशिए की यह रचनाधर्मिता दरअसल अनुभवों के आकाश का अनंत विस्तार अपने आप में समेटे हुए है। लेकिन हाशिए की रचनाधर्मिता को प्रोत्साहन नहीं मिलने के कारण अनुभवों के इस विस्तारित आकाश और उसके जरिए हिंदी समाज में हो रहे स्थानीय बदलावों को जानने-समझने की दुनिया सिकुड़ती जा रही है। लोगों को पता नहीं चल पा रहा है कि बापूधाम मोतीहारी के आम जन की सोच क्या है और बांसवाड़ा के किसान और मजदूर की जिंदगी में क्या घटित हो रहा है। हिंदी साहित्य के गणतांत्रिक स्वरूप में इस कमी का असर भी नजर आता है। जब कथित तौर पर दिल्ली-लखनऊ की ज्यादातर रचनाओं में अनुभवों का दुहराव, सामाजिक परिवर्तनों की फिर-फिर वही दुनिया नजर आती है। ऐसी रचनात्मक आस्वाद फीका ही रहता है। ऐसे में क्या हिंदी समाज का यह दायित्व नहीं बनता कि हिंदी के गणतांत्रिक विकास को गति देने और उसकी गणतांत्रिक हैसियत को मजबूत बनाने के लिए हाशिए पर पड़ी स्थानीय रचनाधर्मिता को मुख्यधारा में लाने और उन्हें मांजने की कोशिश करे। हिंदी में घटती पाठकीयता को जोड़ने में भी इसी गणतांत्रिक सोच से मदद मिल सकती है।

रविवार, 15 मई 2011

मैं बपुरा बूड़न डरा, रहा किनारे बैठि

उमेश चतुर्वेदी
कबीर की ये पंक्तियां जिंदगी की जद्दोजहद में अध्यात्म से दूर रही आत्माओं की बेबसी को अभिव्यक्त करती हैं। लेकिन पांच सौ साल पहले की ये पंक्तियां आज के दौर में हिंदी क्षेत्र में सक्रिय बुद्धिजीवियों पर सटीक बैठती हैं। हिंदी के बुद्धिजीवी को जगति गति कम ही व्यापती है। भट्ठा-पारसौल गांव में चलती पुलिस की गोलियां हों या गोरखपुर में मजदूरों पर फैक्टरी मालिकों की शह पर हो रहा लाठी चार्ज, उन्हें प्रभावित नहीं करता। वे राजधानी या राज्यों की राजधानियों के वातानुकूलित कक्षों में साहित्यिक रसपान में व्यस्त रहते हैं। अगर उनसे इन समस्याओं की चर्चा कर भी लो तो उनका एक ही जवाब होगा, भई हम तो ठहरे साहित्यिक जीव, राजनीति और आंदोलन की दुनिया में हमारा क्या काम। हिंदी साहित्य से आंदोलनकारी धर्म का लोप होता जा रहा है। सिर्फ ड्राइंगरूमी सभ्यता और उसके साथ रसपान की अभिव्यक्तियों में डूब जाता है। हिंदी के समादृत कवि नागार्जुन की जन्मशताब्दी चल रही है। शताब्दी आयोजनों के सिलसिले चल रहे हैं। लेकिन उनके आंदोलनकारी रूप को कम ही याद किया जा रहा है। अगर बाबा आज होते तो वे भट्ठा पारसौल गांव में पुलिस की लाठियों के खिलाफ धरने पर बैठे होते, अन्ना के आंदोलन के मंच पर उनकी मौजूदगी होती। विचारधाराओं की बंदिशें उनके मानवीय और आंदोलनकारी सरोकारों को उनसे दूर नहीं रख पाती। अगर विचारधाराओं की बंदिशें में वे बंधे होते तो 1974 के जयप्रकाश आंदोलन में मंच पर नहीं जा पाते। क्योंकि वे कार्ड होल्डर कम्युनिस्ट थे और जयप्रकाश आंदोलन के साथ वामपंथी धड़ों का सहयोग नहीं था। इसके बावजूद जयप्रकाश आंदोलन में मंचों से गाते फिर रहे थे – आओ रानी ढोएं हम तुम्हारी पालकी, यही हुई है राय जवाहर लाल की। बाबा यहीं नहीं रूके। उस दौर की तानाशाह प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ खुलेआम कविता सुनाने से नहीं रूके – इंदु जी, इंदु जी, क्या हुआ आपको, सत्ता की मस्ती में भूल गईं बाप को। जिसकी कीमत उन्हें भी चुकानी पड़ी। आपातकाल में जेल यात्रा उन्हें करनी पड़ी। लेकिन आज हिंदी का साहित्यकार की जन आंदोलनों में ऐसी उपस्थिति नहीं दिखती। गजानन माधव मुक्तिबोध की एक मशहूर रचना है – पार्टनर आपकी पॉलिटिक्स क्या है? मुक्तिबोध की ये रचना दरअसल हिंदी क्षेत्र के बुद्धिजीवियों से खासतौर पर मौजूदा दौर में बार-बार पूछ रही है। हिंदी क्षेत्र के बौद्धिक लोगों की सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों में इस उदासीनता की चर्चा की वजह है पश्चिम बंगाल में आई बदलाव की आंधी। सिंगूर और नंदीग्राम के आंदोलन और वहां पुलिस दमन के बाद पश्चिम बंगाल के बौद्धिक वर्ग सड़कों पर उतर आया था। जिसमें सिनेमा की मशहूर हस्ती अपर्णा सेन भी थीं तो मशहूर कवि शंखो घोष, नवारूण भट्टाचार्य और महाश्वेता देवी जैसे कितने ही नाम पुलिस की लाठियों के खिलाफ मैदान में उतर पड़े थे। इन्हें अपने वातानुकूलित घर मैदान में उतरने से रोक नहीं पाए। जनता के बीच उनकी उपस्थिति ने बंगाल की हवा को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बुद्धिजीवियों का यह सहयोग बंगाल की राजनीति की बदलाव का भागीदार बना। क्या ऐसा दावा हिंदी क्षेत्र के बौद्धिक कर सकते हैं। जाहिर है, इसका जवाब ना में है।
जनांदोलनों-सामाजिक करवटों से दूर रहने का ही खामियाजा है कि हिंदी समाज अपने बौद्धिकों के प्रति वह लगाव और सम्मान नहीं दिखा पाता, जो बांग्ला, मलयालम या मराठी में दिखता है। वहां का बौद्धिक पूरे दमखम के साथ अपने लोगों के सामाजिक संघर्षों में साथ देता है। उनके साथ खड़ा रहता है तो बांग्ला या मराठी मानुष को भी लगता है कि उसका साहित्यकार सिर्फ कागज-कलम से ही रिश्ता नहीं रखता, बल्कि रोजमर्रा की जिंदगी की जद्दोजहद में भी उसके साथ है। लोगों से जुड़ने का यह तार ही वहां साहित्यिक गरिमा और विस्तार का माध्यम बनता है। जिससे राग और सम्मान दोनों हासिल होते हैं। दूसरी बात यह है कि राजनीति की सत्ताओं से मोह ना होने का दिखावा हिंदी के बौद्धिकों में खूब नजर आता है, इसी बहाने वे राजनीतिक आंदोलनों से समान दूरी बनाए रखने की कोशिशों में जुटे रहते हैं। लेकिन हकीकत तो यह है कि सत्ताओं की बदलती भूमिका में अपनी जगह पक्की रखने की जोड़जुगत में वे जुटे रहते हैं। इसीलिए सत्ताएं बदलने के बावजूद सत्ता तंत्र में ज्यादातर की भूमिकाएं नहीं बदलतीं।
क्या हिंदी बौद्धिक समाज अपनी इन सीमाओं पर चिंतन की तरफ बढ़ने की कोशिश करेगा ?

सोमवार, 9 मई 2011

हिंदी ब्लॉगिंग की चुनौतियां

उमेश चतुर्वेदी
वेब पर लॉगिंग यानी ब्लॉगिंग को लेकर 2010 में हिंदी में मिली-जुली प्रतिक्रिया देखने को मिली। एक तरफ जहां नए ब्लॉगरों ने हिंदी की दुनिया में दस्तक दी तो दूसरी तरफ पुराने लोगों की सक्रियता कम हुई। यहां गौर तलब यह है कि नए ब्लॉगरों में वे लोग शामिल हैं, जो अभी हाल के ही दिनों में इंटरनेट की साक्षरता हासिल किए हैं। एक अंदाज के मुताबिक इन दिनों हिंदी में बमुश्किल तीन हजार ब्लॉगर ही सक्रिय हैं। जबकि हिंदी ब्लॉगों की संख्या एक अनुमान के मुताबिक बारह हजार के आंकड़े को पार कर चुकी है। ऐसे में उम्मीद तो की जानी चाहिए थी कि इंटरनेटी साक्षरता की बढ़ती दर के साथ हिंदी में ब्लॉगिंग की दुनिया का विस्तार भी होगा। लेकिन 2010 की गतिविधियों से यह उम्मीद परवान चढ़ती नजर नहीं आई। यह हालत तब है, जब देश में इंटरनेट के उपभोक्ता आठ करोड़ की संख्या को पार कर चुके हैं। एक अमरीकी संस्था 'बोस्टन कंस्लटिंग ग्रुप' की पिछले साल आई रिपोर्ट 'इंटरनेट्स न्यू बिलियन' के मुताबिक भारत में इन दिनों 8.1 करोड़ इंटरनेट उपभोक्ता हैं। इनमें मोबाइल फोन धारकों की संख्या शामिल नहीं है। ट्राई की रिपोर्ट के मुताबिक दिसंबर 2010 तक देश में मोबाइल फोन धारकों की संख्या बढ़कर 77 करोड़ हो गई है। इनमें कितने लोग इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं. इसका सही-सही आंक़ड़ा मौजूद नहीं है। लेकिन इतना तो तय है कि इनमें से करीब आधे उपभोक्ता अपने मोबाइल फोन पर ही इंटरनेट का इस्तेमाल तो कर ही रहे हैं। बहरहाल बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप की रिपोर्ट पर ही ध्यान दें तो देश और हिंदी में ब्लॉगिंग की संभावना ज्यादा है। बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप की रिपोर्ट के मुताबिक 2015 तक भारत में इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या बढ़कर 23.7 करोड़ हो जाएगी। इस रिपोर्ट के अनुसार मौजूदा भारतीय इंटरनेट उपभोक्ता रोजाना आधे घंटे तक इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहा0 है। जिसके बढ़ने की संभावना बढ़ती जा रही है। इसी रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ 2015 तक ही भारत का आम उपभोक्ता रोजाना आधे घंटे की बजाय 42 मिनट इंटरनेट का इस्तेमाल करने लगेगा। तकनीक की दुनिया में क्रांति प्रतीक्षित है। तीसरी पीढ़ी के संचार माध्यमों का इस्तेमाल बढ़ रहा है। ऐसे में तो ब्लॉगिंग की दुनिया बढ़नी चाहिए थी। ऐसे में ब्लॉगरों की सक्रियता कम होने का सवाल भी नहीं उठना चाहिए था। लेकिन ऐसा हो रहा है। भारतीय समाज- खासकर नौजवान पीढ़ी के लिए अमेरिकी तौर-तरीकों को अपनाना आसान रहा है। 2008 के अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में देश की अर्थव्यवस्था और सामाजिक चुनौतियों की असल तसवीर न तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पेश कर रहा था, नही प्रिंट मीडिया। ऐसे माहौल में हकीकत से दुनिया को रूबरू कराने की जिम्मेदारी ब्लॉगरों ने संभाली। जिसका असर यह हुआ कि बराक हुसैन ओबामा से बेहतर उम्मीदवार होने के बावजूद जॉन मैकेनन चुनाव हार गए। क्योंकि उनके पूर्ववर्ती रिपब्लिकन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश की नीतियों की कलई ब्लॉगरों ने खोद कर रख दी थी। होना तो यह चाहिए था कि भारत में अमेरिका की तरह ब्लॉगर भी मैदान में उतरते ...लेकिन गिने-चुने प्रयासों के अलावा ऐसा कुछ खास नजर नहीं आया।
सच तो यह है कि जिन आर्थिक नीतियों के चलते भारत में तकनीकी क्रांति हुई, तकनीक के स्तर पर उसने ब्लॉगिंग के लिए तकनीकी मंच मुहैया कराकर जितनी सहायता की है, उतनी ही दुश्मन भी बन गई है। आर्थिक नीतियों के चलते भारत में निम्न मध्यवर्ग की जिंदगी दुश्वार हुई है। निम्न मध्यवर्ग एक दिन की भी बेगारी बर्दाश्त नहीं कर सकता। लेकिन हिंदी की ब्लॉगिंग की दुनिया में एक भी रूपए की कमाई होती नहीं दिख रही है। हिंदी ब्लॉगर को अपनी कमाई से ही अपना यह शौक पूरा करना पड़ रहा है। लेकिन यह भी सच है कि इंटरनेट मुफ्त नहीं है, कंप्यूटर या लैपटॉप मुफ्त में नहीं मिल रहे हैं। लेकिन ब्लॉगरों को मुफ्त में ब्लॉगिंग की दुनिया में सक्रिय रहना पड़ रहा है। सच तो यह है कि अब तक भारतीय भाषाओं में ब्लॉगिंग के जरिए कमाई के लिए कोई आर्थिक मॉडल नहीं बन पाया है। ले-देकर विज्ञापन के लिए गूगल एडसेंस का सहारा है। लेकिन उसके नियम कानून हिंदी ब्लॉगर विरोधी हैं। जिनकी वजह से गूगल की जेब तो भर रही है। लेकिन ब्लॉगर बेचारा ठन-ठन गोपाल बनकर घूम रहा है। अपने यहां कहावत कही जाती रही है कि भूखे भजन न होंहिं गोपाला। तो कब तक भूखे भजन होगा।
ब्लॉगिंग दरअसल वैयक्तिकता का विस्तार होता है। लेकिन इस विस्तार पर भी सांस्थानिकता की नजर टिक गई है। इसकी भी वजह है। दरअसल ब्लॉगरों की दुनिया की साफगोई ने उनके लिए पाठक वर्ग भी तैयार किया है। लेकिन इन पाठकों पर संस्थानिक मीडिया की भी नजर लगी हुई है। यही वजह है कि अपनी वेबसाइटों पर उन्होंने अपने यहां ब्लॉगरों के लिए एक कोना स्थापित कर दिया है। इस कोने पर ब्लॉगर आकर अपना खून-पसीना बहा रहे हैं। उन्हें पढ़ने पाठक भी आ रहे हैं। लेकिन इसका फायदा संस्थानिक पत्रकारिता को हो रहा है। संस्थानिक मीडिया के ब्लॉग कोनों में कुछ ऐसा ही लिखा मिलता है, जैसा सरकारी पत्रिकाओं में लिखा रहता है – पत्रिका में व्यक्त विचार लेखकों के अपने हैं, उनसे सहमत होना अमुक पत्रिका के संपादक के लिए जरूरी नहीं है। यानी पाठकों का फायदा तो संस्थानिक मीडिया उठा रहा है, लेकिन ब्लॉगर को कुछ हासिल नहीं हो रहा, सिवा चंद टिप्पणियों में प्रोत्साहन के। यानी हिंदी में ब्लॉगिंग की वैयक्तिक धारा पर संस्थानिकता का दावा बढ़ता जा रहा है। ब्लॉगिंग की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसमें वैयक्तिक विचारों को स्पेस मिलता है। लेकिन संस्थानिकता की खोल देर-सवेर ब्लॉगिंग की इस खासियत को ही खा जाएगी। जिसका संकट मौजूदा हिंदी ब्लॉगिंग के सामने सबसे ज्यादा दिख रहा है।
हिंदी में 2008 में जब ब्लॉगिंग तेज हुई तो आपस में सिर फुटौव्वल तक की हालत आई। मोहल्ला और भड़ास के बीच गालियों का आदान-प्रदान हुआ। इस तरह हिंदी में ब्लॉगिंग तार्किकता और संयम की गलियों से बाहर निकल कर मुक्त छंद की तरह बहने लगी। लेकिन एक दौर ऐसा आया कि यह मुक्त छंद पारंपरिक मीडिया को भारी लगने लगा और ब्लॉगरों पर हमला बढ़ गया। निश्चित तौर पर इसमें ब्लॉगरों का एक वर्ग भी जिम्मेदार था। जिसके लिए अपनी भड़ास निकालना ब्लॉगिंग की मुख्यधारा बन गया। खासकर मीडिया में सक्रिय लोगों ने अपनी कुंठाएं और भड़ास निकालने शुरू किए। बेहद अश्लील ढंग से लिखे गए इन ब्लॉगों ने हिंदी ब्लॉगिंग को काफी नुकसान पहुंचाया। मुक्त छंद का यह भी मतलब नहीं कि किसी को गाली दी जाय या किसी को सीधे जिम्मेदार ठहराया जाय।
दूसरी चीज यह है कि हिंदी में ज्यादातर ब्लॉगर अपनी वैचारिक भूख और कसक को अभिव्यक्त करने आए तो हैं, लेकिन ज्यादातर का भाषाई संस्कार बेहद कमजोर है। इसने ब्लॉगिंग के स्वाद को बेहद कड़वा बनाया है। ब्लॉगर यह क्यों भूल जाते हैं कि सिर्फ तथ्यों का खुलासा ही ब्लॉगिंग की सफलता के लिए जरूरी नहीं है। बल्कि भाषाई चमत्कार भी उतना ही आवश्यक है। भाषाई चमत्कार भी कई बार रचनाधर्मिता को पढ़ने के लिए मजबूर करते हैं। कभी-कभी किसी पोस्ट को ज्यादा पाठकीयता हासिल हो पाती है तो इसकी एक बड़ी वजह यह है कि भाषाई कौशल के जरिए विगत में छूट गए दर्द को याद करना रही है। यहां हमें ध्यान रखना चाहिए कि हिंदी ब्लॉगरों का एक बड़ा पाठक वर्ग अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया या ऐसी ही जगहों पर खाई-अघाई जिंदगी जी रहे हैं। लेकिन उनके अंदर एक कसक बाकी है, वे अपनी माटी और विगत में छूट गए दर्दों को सहलाते हुए जीना चाहते हैं। मजे की बात यह है कि आज के हिंदी ब्लॉगर के सामने इन पाठकों की भूख को भी तृप्त करने की चुनौती भी है। ऐसा नहीं कि इन चुनौतियों की जानकारी आज के ब्लॉगर को नहीं है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि इनका सामना करने के लिए ब्लॉगर समुदाय में कोई तैयारी नहीं दिख रही।

रविवार, 1 मई 2011

ऐसे ही चलती रहेगी हिंदी !

उमेश चतुर्वेदी
क्या सचमुच हिंदी के ढेर सारे शब्दों को लोग अब नहीं समझते...क्या पत्रिका की जगह सिर्फ मैगजीन ही लोग समझते हैं, क्या कुतिया जैसा शब्द सिर्फ गाली ही है, कुत्ते का स्त्रीलिंग नहीं, क्या कंपीटिशन ही लोग जानते हैं, प्रतियोगी परीक्षा को लोगों के दिमागी शब्दकोश से निकल गया है, न्यूज को अब बिहार से लेकर उत्तर प्रदेश वाया दिल्ली मध्य प्रदेश का पाठक जानता है, उसके लिए समाचार का कोई मतलब नहीं है। स्वीकार या स्वीकृति लोगों के जुबानी चलन से बाहर हो गया है, सिर्फ वेलकम या इस्तेमाल ही अब हिंदी जुबान को मंजूर है...लीडर ही अब दुनिया को समझता है, नेता और अगुआ की कोई वकत नहीं रही, मध्यस्थ को कोई पूछता नहीं, सिर्फ मीडियेटर ही अब आगे रह गया है.....पत्रकारिता की दुनिया में लगातार ऐसे सवालों से जूझते और दो-चार होना जैसे हम जैसे लोगों की नियति बन गई है। इन सवालों के बहुसंख्यक जवाब निश्चित तौर पर निराशा के बोधक हैं। शब्दों की दुनिया के अधिकारियों की नजर में इन और इन जैसे सवालों के जवाब निश्चित तौर पर हां हैं। लेकिन मेरा मन है कि मानने को तैयार ही नहीं है। क्योंकि व्यवहारिक दुनिया से जुड़े इन सवालों का जवाब तभी सटीक हो सकता है, जब उनके लिए व्यवहारिक दुनिया पर आधारित मानदंड भी तय किए गए हों। लेकिन हकीकत तो यह है कि इन जवाबों को सिर्फ सुनी-सुनाई बातों के आधार पर ही स्वीकृत कर लिया गया है। सूचना और संचार क्रांति के इस दौर में ऐसे आधारों ने अपनी भाषा का कितना अवमूल्यन किया है, इसका अंदाजा अब लगना शुरू हो गया है। दूसरी और तीसरी श्रेणी तक के नगरों-शहरों से पढ़कर निकल रही पीढ़ी की हिंदी का भाषाई ज्ञान निश्चित तौर पर निराश करने वाला है। अधिकांश छात्रों की एक ही समस्या है, व्याकरण और भाषाई अनुशासन के नजरिए से एक पैराग्राफ भी अच्छी हिंदी नहीं लिख पाना। अगर किसी से आपने अच्छी हिंदी की उम्मीद पाल ली तो वह मक्षिका स्थाने मक्षिका वाली दुरूह और कठिन हिंदी लिखने लगे। सहज होने को कहिए तो उसके लिए उपयोग शब्द बदलकर सहज होते हुए इस्तेमाल बन कर रह जाएगा, प्रतीक्षा सिर्फ इंतजार बन कर रह जाएगी, विश्वास सिर्फ भरोसा बन जाएगा और ऐसे में विश्वासपात्र का भरोसामंद बन जाना ही है। कहने का मतलब यह है कि सहजता के बारे में मान लिया गया है कि सिर्फ भाषा की उर्दूकरण ही सहज भाषा होने की निशानी है। इस चलन को टेलीविजन मीडिया ने सबसे ज्यादा बढ़ावा दिया है। जब से हिंदी में खबरिया चैनलों की शुरूआत में दो तरह के प्रयोग शुरू हुए, हिंदी के साथ चलन के नाम पर अंग्रेजी के तमाम ऐसे शब्दों का भी प्रयोग, जिनके लिए सहज और आसान हिंदी के शब्द चलन में हैं और दूसरी धारा उर्दू मिश्रित हिंदी की थी। उर्दू मिश्रित हिंदी की परंपरा अपने यहां पारसी थियेटर में भी रही है। याद कीजिए पाकीजा, मुगल ए आजम और रजिया सुल्तान के संवाद, वहां भारी-भरकम उर्दू शब्दावली का जमकर प्रयोग हुआ था। कहना न होगा कि चाक्षुष माध्यम होने के चलते खबरिया टेलीविजन चैनलों को भी अपने लिए भाषा गढ़ते वक्त पारसी थियेटर की वही शैली पसंद आई। लेकिन इन चैनलों की भाषा नीति तैयार करने वाले लोग भूल गए कि यह माध्यम भविष्य में पूरी तरह बाजार के हवाले होने वाला है। क्योंकि बाजारवाद की शुरूआत के साथ ही सूचना क्रांति के ये औजार भारत में भी विकसित होना शुरू हुए थे। लिहाजा एक दिन ऐसा आएगा कि बाजार भाषाओं की समृद्ध संस्कृति को अपने कब्जे में ले लेगा और फिर हम बेचारा की तरह भाषाई समृद्धि और परंपरा को तहस-नहस होते देखने के लिए मजबूर हो जाएंगे। मजे की बात यह है कि इस परिपाटी को शुरू करने वाले लोग अपने पेशेवर संवादों के अलावा जब भी मंचासीन होते हैं तो भाषा की दुर्गति पर विलाप करने से नहीं चूकते।
अब बाजार भाषाओं को बदल रहा है। सहज होने के नाम पर वह हिंदी को अत्यधिक उर्दू अनुरागी बना रहा है या फिर हिंग्रेजी की संस्कृति में ढाल रहा है। मजे की बात यह है कि सब कुछ गांधी जी की उस कल्पना के नाम पर हो रहा है, जिसके तहत उन्होंने गंग-जमुनी संस्कृति और भाषा के स्तर पर जिस हिंदोस्तानी की कल्पना की थी, ये सारा बदलाव उसी नाम पर हो रहा है। दिलचस्प बात यह है कि इस रोग से सबसे ज्यादा हमारा मीडिया ही ग्रस्त है। 1991 के आसपास जब इस चलन की शुरूआत हुई तो भाषा के जानकारों और संस्कृति के अध्येताओं को आशंका थी कि भावी पीढ़ियों की जुबानी घुट्टी से अपनी मां जैसी भाषाएं दूर होती जाएंगी। कहना न होगा कि अब ऐसा ही होता दिख रहा है। ऐसे में सवाल यह है कि इस बदहाल परंपरा पर रोक कैसे लगेगी। या फिर इसमें सकारात्मक बदलाव के लिए इंतजार किया जाता रहा है। सोचना तो हम हिंदी वालों को ही है।