रविवार, 8 अगस्त 2010

भला हो हम हिंदी वालों का

उमेश चतुर्वेदी
राजधानी दिल्ली में इन दिनों तकरीबन रोज ही कहीं हलकी और तेज बारिश हो जाती है। बरसाती फुहारों के बीच मौसम में ठंडक का अहसास होना स्वाभाविक है। लेकिन यहां राजभाषा के साहित्यिक गलियारे में इन दिनो गरमी की तासीर कुछ ज्यादा ही महसूस की जा रही है। गरमी की वजह बना है देश के सबसे प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्थान भारतीय ज्ञानपीठ की पत्रिका नया ज्ञानोदय में प्रकाशित शहर में कर्फ्यू के उपन्यासकार विभूति नारायण राय का एक इंटरव्यू। जिसमें उन्होंने हिंदी की कुछ लेखिकाओं की आत्मकथाओं के बहाने असंसदीय किस्म की टिप्पणी कर दी है। चूंकि विभूति नारायण राय गांधी जी के नाम पर बने अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति और उत्तर प्रदेश कैडर के पूर्व पुलिस अधिकारी हैं, इसलिए उनकी लानतें-मलामतें का दौर तेज हो गया है। हिंदी के अतिजनवादी एक्टिविस्ट पत्रकारों, लेखकों और संस्कृतिकर्मियों का ग्रुप राय को हिंदी विश्वविद्यालय से बर्खास्त कराने को लेकर अभियान जारी रखे हुए है।
इस लड़ाई को लेकर बहसबाजियों का दौर तेज है। क्या गलत है और क्या सही, इस पर विचार किया जाना यहां उद्देश्य भी नहीं हैं। इस पूरे बहस में एक तथ्य पर ध्यान नहीं दिया गया कि यह मसला उछला कैसे। दरअसल राय के इंटरव्यू को लेकर सबसे पहले अपनी आक्रामकता के लिए मशहूर अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने खबर बनाई। अगस्त महीने के पहले दिन इस खबर के छपने से करीब हफ्ताभर पहले से नया ज्ञानोदय का अंक बाजार में मौजूद था। लेकिन उसे किसी ने नोटिस नहीं लिया, नोटिस लिया भी गया तो तब, तब एक्सप्रेस में यह खबर साया हुई। तब से देश के अति जनवादी साहित्यिक-सांस्कृतिक खेमे का हरावल दस्ता विभूति नारायण राय के खिलाफ पिल पड़ा है। ऐसा कैसे हो सकता है कि हिंदी में एक्टिविस्ट की भूमिका निभा रहे इस हरावल दस्ते के किसी सदस्य की नजर मूल हिंदी में हिंदी की प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं में शुमार नया ज्ञानोदय पर नहीं पड़ी होगी। उनकी नजर में विभूति का इंटरव्यू विवादास्पद तभी बना, जब एक्सप्रेस में इसकी खबर हुई। यहां इस तथ्य पर भी ध्यान दिए जाने की जरूरत है कि क्या एक्सप्रेस का रिपोर्टर हिंदी की पत्रिकाओं से उतने ही सहज तरीके से बाबस्ता होते हैं, जितना वे अंग्रेजी प्रकाशनों के साथ होते हैं। अगर ऐसा है तो हिंदी के लिए यह सुखद बात है। लेकिन इसकी उम्मीद कम ही नजर आती है। जाहिर है ऐसे में शक की सूई ज्ञानपीठ के आकाओं पर भी उठती है कि कहीं पत्रिका को चर्चा में लाने के लिए उन्होंने ही इस इंटरव्यू की कॉपी एक्सप्रेस रिपोर्टर को मुहैया कराई हो।
इस मसले पर पूरी बहसबाजी और उठाने-गिराने की साहित्यिक-सांस्कृतिक पहलवानी में हिंदी-अंग्रेजी का मुद्दा शामिल करना प्रगतिवादियों को बुरा लग सकता है। लेकिन हकीकत यही है। इस मुद्दे ने अंग्रेजी मानसिकता को हिंदी वालों का मजाक उड़ाने का बैठे-बिठाए मौका ही दे दिया है। जैसा की टेबलायड पत्रकारिता का चरित्र है, अंग्रेजी के एक नवेले टेबलायड अखबार ने इस पूरे मसले को चटखारे लेकर तफसील से प्रकाशित किया। अगर इतना ही होता तो गनीमत थी। लेकिन लगे हाथों उसने टिप्पणी भी कर दी कि हिंदी वालों के इसी चरित्र के ही चलते हिंदी की यह हालत बनी हुई है। यानी हिंदी आज भी अगर चेरी की भूमिका में है तो उस अंग्रेजी अखबार के मुताबिक विभूति जैसे लोगों की सतही टिप्पणियां और उस पर बवाल मचाने वाले प्रगतिवादियों की आपसी जोरआजमाइश का भी हाथ है। लगे हाथों उस अखबार ने हिंदी वालों को सुझाव भी दे डाला कि हिंदी को आगे ले जाना है तो ऐसी ओछी हरकतों से बचो। हिंदी वाले चाहे जितना क्रांतिकारी बनने का दावा करें, अपने भाषाई स्वाभिमान की चर्चा करें, लेकिन हकीकत यही है कि आपसी सिरफुटौव्वल में उस्तादी की तुलना में भाषाई स्वाभिमान कम ही है। चूंकि अंग्रेजी ठहरी देश के असल राजकाज की भाषा - नीति नियंताओं के सोचने-विचारने की भाषा, लिहाजा उन्हें अंग्रेजी के उस टेबलॉयड अखबार के सुझावों से कोई परेशानी नहीं है। उलटे उन्हें ये सुझाव अच्छे लग रहे हैं। भला हो हम हिंदी वालों का ....
साहित्यिक और सांस्कृतिक हलकों में जब भी किसी समस्या की चर्चा होती है, राजनीति को दोषी ठहराने का खेल चालू हो जाता है। राजनीति दोषी है भी, लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के चलते राजनीति पर सवाल खड़े करना आसान है। इक्का-दुक्का घटनाओं को छोड़ दें, तो राजनीति हमारी जिंदगी में इतना स्पेस मुहैया जरूर कराती है कि आप उसकी आलोचना कर सकें। लेकिन क्या इतना स्पेस हमारे सांस्कृतिक और साहित्यिक हलकों में है...निश्चित तौर पर इसका जवाब ना में है। संस्कृति और साहित्य के मसले पर अगर किसी की ओर उंगली उठती है तो उसके पीछे अधिकांश वक्त नितांत निजी स्वार्थ और अपना बदला चुकाने की भावना होती है। साहित्यिक कृतियों की आलोचना के पीछे भी यही धारणा काम कर रही होती है। साहित्यिक और सांस्कृतिक आलोचनाओं को स्वस्थ अंदाज में लिया भी नहीं जाता। स्वस्थ आलोचक से दुश्मन की तरह व्यवहार किया जाने लगता है। ऐसे में फिर कैसे होगा अपनी हिंदी का विकास....सोचना तो हमें ही पड़ेगा। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या हम ऐसी वैचारिक मुठभेड़ों के लिए तैयार हैं। हिंदी में इन दिनों जारी पहलवानी के खेल से ऐसा तो नहीं ही लग रहा।