गुरुवार, 11 मार्च 2010

नहीं बदल रहा मीडिया का मिजाज


उमेश चतुर्वेदी
टैम की रेटिंग प्वाइंट यानी टीआरपी के मौजूदा पैमाने पर इन दिनों सवालिया निशान लगाने वालों में वे लोग भी शामिल हो गए हैं, जो हाल के दिनों तक इसके पैरोकार रहे हैं। इसके जरिए एक बार फिर से खबरों की बुनियादी संरचना और उसके विषय को लेकर गंभीर बहस शुरू हो गई है। जिसे मुख्यधारा की पत्रकारिता में स्वागत भी किया जा रहा है। ऐसा माना जा रहा है कि इस बहस के जरिए भूत-प्रेत और जादू-टोने से लेकर अतीन्द्रीय किस्म की मनोरंजक खबरों की बजाय सरोकार वाले समाचारों को लेकर मीडिया जगत का रवैया बदल रहा है। जाहिर है, इस बहस के जरिए सरोकारी पत्रकारिता के पैरोकारों की उम्मीदें बढ़ गई हैं। लेकिन क्या सचमुच दुनिया बदल गई है या फिर हाल के दिनों में टीआरपी बटोरने का जो तरीका रहा है, उसी लीक पर आज का मीडिया चल रहा है। इसे समझने के लिए हाल के दिनों की कुछ घटनाओं को लेकर मीडिया कवरेज को देखा जाना चाहिए।
27 फरवरी को जनसंघ के वरिष्ठ नेता रहे नानाजी देशमुख का निधन हुआ। नानाजी भले ही दक्षिणपंथी धारा के महत्वपूर्ण स्तंभ रहे हैं। लेकिन उनका संबंध समाजवादी राजनीति के अलंबरदारों से भी गहरा रहा है। लेकिन उनके निधन को टेलीविजन की तो बात ही छोड़िए, अखबारों तक ने वह कवरेज नहीं दी, जिसके वे हकदार थे। नानाजी देशमुख से लोगों का विरोध हो सकता है, लेकिन भारतीय राजनीति में उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के हीरो रहे डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने जिस गैरकांग्रेसवाद की नींव रखी थी, उसको जमीनी स्तर पर पहली बार अमलीजामा 1967 में ही पहनाया जा सका। भारतीय राजनीति के अध्येताओं को पता है कि अगर नानाजी देशमुख नहीं होते तो डॉक्टर लोहिया और जनसंघ प्रमुख दीनदयाल उपाध्याय एक साथ नहीं बैठते और 1967 के चुनावों के बाद नौ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें नहीं बनतीं। भारतीय राजनीति को तब तक आजादी के आंदोलन से साख हासिल कर चुकी कांग्रेस को अभेद्य माना जाता था। लेकिन नानाजी देशमुख के चलते उस दौर की कांग्रेस विरोधी दो धाराएं- समाजवादी आंदोलन और दक्षिण पंथी विचारधारा साथ आई थी। इस साथ ने कांग्रेस को पहली बार पटखनी देने में कामयाबी हासिल की थी। 1967 का ये प्रयोग अगर नहीं हुआ होता तो शायद 1977 में भी गैरकांग्रेस का नारा सफल नहीं हुआ होता और तब तक भारतीय राजनीति में सर्वशक्तिमान मानी जाती रहीं इंदिरा गांधी की बुरी हार नहीं हुई होती। आजादी के तत्काल बाद गठित जनसंघ और समाजवादी पार्टियां कम से कम एक मसले पर एक जैसा विचार रखती थीं। कांग्रेस विरोध के वैचारिक धरातल पर साथ काम करते रहे दोनों दलों ने 1967 से पहले चुनावी मैदान में साथ उतरने को सोचा होगा। लेकिन दोनों विचारधाराओं को चुनावी बिसात पर साथ लाने में जिन लोगों ने अहम योगदान दिया, उनमें नानाजी देशमुख भी थे। उन्हीं दिनों चंद्रशेखर से भी उनका गहरा संपर्क हुआ और इस प्रखर और खरे समाजवादी के साथ उनका साथ ताजिंदगी बना रहा।
1967 में कांग्रेस विरोध के बहाने ही दोनों विचारधाराओं में साथ आने की जो हिचक दूर हुई, उसका ही असर है कि 1977, 1989 और 1998 में नया इतिहास रचा गया। सबको पता है कि इन्हीं सालों में कांग्रेस को हराकर केंद्र में गैरकांग्रेसी सरकारें बनीं। नानाजी की विचारधारा से असहमत होने का लोकतांत्रिक समाज में सबको अधिकार होना चाहिए। लेकिन भारतीय राजनीति में उनके योगदान को कम करके नहीं आंका जा सकता। अगर इन अर्थों में देखें तो उनकी मौत मीडिया के लिए सिर्फ सूचना बन कर आई। उसके लिए बड़ी खबर नहीं बन पाई। सरोकारी पत्रकारिता का दावा करने वाले अखबारों तक में उन्हें लेकर छोटी खबरें ही जगह बना पाईं।
यह हालत सिर्फ नानाजी के साथ ही नहीं है। देश की राजनीति में भूचाल लाकर इतिहास रचने वाले दूसरे महापुरूषों के साथ भी कुछ ऐसा ही होता रहा है। 11 अक्टूबर 1942 और 1977 के हीरो जयप्रकाश नारायण का जन्मदिन है। यह सुखद संयोग ही है कि इसी दिन अमिताभ बच्चन भी पैदा हुए थे। लेकिन हर साल 11 अक्टूबर को मीडिया जितना स्पेस अमिताभ बच्चन को देता है, उसका दसवां हिस्सा भी जयप्रकाश नारायण को नहीं देता। अमिताभ ने मनोरंजन की दुनिया में भले ही नए कीर्तिमान बनाए हों, लेकिन उनके सामने जयप्रकाश नारायण का महत्व कम नहीं हो जाता। बल्कि सच तो ये है कि अगर जयप्रकाश नहीं होते तो शायद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार ही बहाल नहीं हो पाता, जिसे इमरजेंसी के दौरान छीन लिया गया था।
सरोकारी पत्रकारिता करने वाले मीडिया के लोगों का इस विरोधाभास पर जवाब बेहद सधा हुआ है। उनका कहना है कि नानाजी और जयप्रकाश नारायण को नई पीढ़ी नहीं जानती। इसीलिए उनसे जुड़ी खबरों को ज्यादा स्पेस नहीं दिया जा सकता। पूरी दुनिया में मीडिया के तीन काम पढ़ाए-बताए जाते रहे हैं- सूचना देना, शिक्षा देना और मनोरंजन करना। सवाल है कि जब तक नई पीढ़ी को बताया नहीं जाएगा, तब तक वह नानाजी या जयप्रकाश नारायण के बारे में कैसे जानेगी। ऐसे सवालों का जवाब देने की बजाय मीडिया यह कहकर उससे किनारा करने में देर नहीं लगाता कि मीडिया का काम पढ़ाई कराना नहीं है।
यह सच है कि आजादी के बाद से मीडिया में भी भारी बदलाव आए हैं। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर आजादी के आंदोलन के दौरान भी मीडिया ऐसा ही रवैया अख्तियार किए रहता तो क्या आजादी की अलख उतनी तेजी से जलाई रखी जा सकती थी, जितनी तेजी से वह रोशनी और तपिश फैलाती रही। निश्चित तौर पर इसका जवाब ना में होगा। ऐसे सवालों से किनाराकसी करके मीडिया एक तरह से यही साबित करता है कि वह अपने पहले दो फर्जों की बजाय तीसरे यानी सिर्फ मनोरंजन पर ही ज्यादा ध्यान दे रहा है। और अगर ऐसा है तो निश्चित तौर पर सरोकारी पत्रकारिता को लेकर जारी बहस को ही झुठलाने का प्रयास किया जा रहा है। हकीकत तो यही है कि गंभीर और सरोकारी पत्रकारिता को लेकर अभी भी माहौल सकारात्मक नजर नहीं आ रहा है। अब भी खबरों के चयन और उसके प्रकाशन - प्रसारण को लेकर लोकप्रियता और टीआरपी बटोरू मौजूदा रवैया ही महत्वपूर्ण आधार बना हुआ है। ऐसे में टैम की रेटिंग प्वाइंट पर सवाल उठाने और उसके औचित्य को कटघरे में खड़ा करने का भी कोई फायदा मिलना आसान नहीं होगा।