शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

अंधेरे खोह में भटकती पत्रकारिता शिक्षा


उमेश चतुर्वेदी
तकनीकी शिक्षण का अपना एक अनुशासन होता है, उसकी अपनी जरूरतें होती हैं। यही कारण है कि इंजीनियरिंग और मेडिकल की ना सिर्फ शिक्षा हासिल करना, बल्कि उनकी शिक्षा देना बेहद चुनौतीभरा काम माना जाता रहा है। अब प्रबंधन की शिक्षा के साथ भी वैसा ही हो रहा है। क्योंकि प्रबंधन भी एक तरह से तकनीक ही है, सिर्फ अकादमिक शिक्षण या पढ़ाई भर नहीं है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि पत्रकारिता की पढ़ाई और उसका शिक्षण तकनीकी शिक्षण-प्रशिक्षण के दायरे में आता है या नहीं। जाहिर है ज्यादातर लोग इसका जवाब हां में ही देंगे। पत्रकारिता की पढ़ाई करने आ रहे छात्र और उनके अभिभावक कम से कम इसे तकनीकी शिक्षण और प्रशिक्षण के दायरे में मान रहे हैं। शायद यही वजह है कि मीडिया विस्फोट के इस दौर में हजारों-लाखों रूपए की मोटी फीस देकर छात्रों की भारी भीड़ पत्रकारिता के शिक्षण संस्थानों का रूख कर रही है। लेकिन डीम्ड विश्वविद्यालयों के साथ ही स्ववित्तपोषित विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रमों में जिस तरह पत्रकारिता की पढ़ाई हो रही है, उससे साफ है कि अपनी तरह से खास इस अनुशासन की पढ़ाई को लेकर छात्रों और उनके अभिभावकों में ठगे जाने का भाव बढ़ा है। इसका असर भावी पत्रकारों की गुणवत्ता पर भी पड़ रहा है। वैचारिक बहसों में जिस तरह पत्रकारिता इन दिनों निशाने पर है, उसके पीछे पत्रकारिता शिक्षण के मौजूदा ढर्रे की कितनी भूमिका है, इसे लेकर सवाल नहीं उठ रहे हैं। लेकिन अब वक्त आ गया है कि पत्रकारिता शिक्षण को प्रोफेशनल जरूरतों के निकष की बजाय तकनीकी अनुशासन के साथ ही वैचारिक धरातल पर भी परखा जाय।
उदारीकरण के बाद आए मीडिया विस्फोट के इस दौर में जिस तरह तकनीक पर पत्रकारिता अवलंबित होती गई है, इससे साफ है कि बाजार में तकनीकी कसौटी पर खरे उतरने वाले भावी पत्रकारों की मांग बढ़ गई है। सिर्फ इसी एक आधार के चलते खबरनवीसी के शिक्षण को इंजीनियरिंग और मेडिकल की तरह तकनीकी अनुशासन का शिक्षण और प्रशिक्षण माना जा सकता है। चूंकि पत्रकारिता इंजीनियरिंग और मेडिकल की तरह कोरा तकनीक ही नहीं है, बल्कि यहां वैचारिकता ना सिर्फ पूंजी है, बल्कि एक बड़ा औजार भी है। हिंदी पत्रकारिता के शलाका पुरूष राजेंद्र माथुर भले ही कहते रहें कि पत्रकार इतिहास निर्माता नहीं, बल्कि उसके ऐसे दर्शक होते हैं, जो अपनी पैनी निगाह के जरिए आम लोगों को इन घटनाओं से परिचित कराते हैं। लेकिन ये भी सच है कि अपनी वैचारिकता की पूंजी के जरिए हासिल नजरिए के चलते वे मौजूदा घटनाओं के प्रति लोगों को सचेत या फिर उत्साहित भी करते हैं। ताकि आने वाला कल जब विगत के कल का इतिहास के तौर पर मूल्यांकन करे तो उसे कोई पछतावा ना रहे। जाहिर है ये दृष्टि किसी विश्वविद्यालय या पत्रकारिता शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थान के क्लासरूम से हासिल नहीं किए जा सकते। अगर ऐसा होता तो भारतीय पत्रकारिता के शुरूआती पुरूष चाहे जेम्स ऑगस्टस हिक्की हों या अंबिका प्रसाद वाजपेयी या फिर बाबू राव विष्णुराव पराड़कर, उन्हें पत्रकारिता की दुनिया में याद भी नहीं किया जाता। क्योंकि उन्होंने किसी संस्थान से खबरनवीसी या वैचारिकता की ट्रेनिंग हासिल नहीं की थी। आज के दौर में भी प्रभाष जोशी, अच्युतानंद मिश्र, प्रणय रॉय या विनोद दुआ जैसे कई चमकते नाम हैं, जिनकी पत्रकारिता का प्रशिक्षण किसी विश्वविद्यालय या संस्थान में मिला हो। बहरहाल आज के दौर में बिना खास शिक्षण या प्रशिक्षण के किसी पत्रकार की उम्मीद नहीं की जाती, जैसे बिना किसी इंजीनियरिंग की पढ़ाई के इंजीनियर या मेडिकल की पढ़ाई के डॉक्टर की उम्मीद की जाती है। अगर ऐसा होगा तो उस पर सवाल उठने लाजिमी हैं। हकीकत में आज का पत्रकारिता शिक्षण अपने उहापोह से मुक्त नहीं हो पाया है। उसकी कोशिश या खुला ध्येय है प्रणय रॉय और प्रभाष जोशी जैसा पारंपरिक और श्रेष्ठ वैचारिक पत्रकार बनाना है, जो आज की तकनीक पर भी खरा उतरे। लेकिन उसका सबसे बड़ा संकट ये है कि वह अब तक ये तय नहीं कर पाया है कि पत्रकारिता का प्रशिक्षण तकनीकी है या वैचारिक। इसके लिए जितना पत्रकारिता के संस्थान जिम्मेदार हैं, उतना ही दोषी सरकार भी है। अगर ऐसा नहीं होता तो आज तक पत्रकारिता का एकनिष्ठ पाठ्यक्रम तैयार हो चुका होता। इंजीनियरिंग और दूसरे तकनीकी संस्थानों की मान्यता के लिए बाकायदा तकनीकी शिक्षा परिषद है, मेडिकल की पढ़ाई पर निगाह रखने के लिए मेडिकल कौंसिल है। लेकिन इतिहास पर निगाह रखने वाली पढ़ाई के लिए ऐसी कोई रेग्युलेटरी संस्था नहीं है। यही वजह है कि कुकुरमुत्तों की तरह उगे डीम्ड विश्वविद्यालयों और कथित तकनीकी संस्थानों के साथ पत्रकारिता पढ़ाने के लिए मैदान में कूद पड़े हैं। इस कड़ी में स्ववित्त पोषित योजना के तहत जाने-माने विश्वविद्यालय भी शामिल हो चुके हैं। इसका असर है कि अधिकांश संस्थानों के पास किताबों और लैब का जबर्दस्त टोटा है। लेकिन पढ़ाई चालू है। निजी संस्थान मोटी फीस के बदले ढेरों सब्जबाग दिखा रहे हैं। वहीं स्ववित्तपोषित विभागों के नाम पर विश्वविद्यालयों या पुराने कॉलेजों में पत्रकारिता विभाग कम फीस ले रहे हैं। लेकिन सुविधाओं के मामले में उनकी भी वही हालत है, जो चमकती बिल्डिंग वाले निजी संस्थानों की है।
अव्वल तो अधिकांश संस्थानों या विश्वविद्यालयों में कोई मानक पाठ्यक्रम ही नहीं है। रही बात उन्हें पढ़ाने वालों की तो योग्यता की कसौटी पर खरे उतरने वाले कम ही लोग भावी पत्रकारों को पढ़ाने में जुटे हैं। स्ववित्तपोषित संस्थानों के तौर पर जिन विश्वविद्यालयों या कॉलेजों में पत्रकारिता की पढ़ाई हो रही है, वहां पत्रकारिता विभाग या तो हिंदी विभाग की दासी है या फिर अंग्रेजी विभाग का दोयम दर्जे का साथी। हिंदी या अंग्रेजी विभाग के ठस्स विद्वान अपने को पत्रकारिता का पुरोधा भी मान बैठे हैं। उन्हें बाजार और तकनीक से कुछ लेना-देना नहीं है। उनके लिए पत्रकारिता का शिक्षण शेक्सपीयर के नाटकों या प्रेमचंद की कहानियों की पढ़ाई जैसा ही है। उन्हें ये भी पता नहीं है कि पत्रकारिता शिक्षण की दुनिया में क्रॉफ्ट और अकादमिक नजरिए को लेकर कोई बहस भी चल रही है। भारतीय पत्रकारिता खास तौर पर तकनीक और कंटेंट के साथ पहुंच के स्तर पर किस पायदान पर जा पहुंची है, इसका साफ अंदाजा अधिकांश पत्रकारिता संस्थानों और वहां पढ़ा रहे लोगों को नहीं है। जाहिर है इसका खामियाजा वह पीढ़ी भुगत रही है, जो जेम्स हिक्की या अंबिका प्रसाद वाजपेयी ना सही, प्रभाष जोशी और प्रणय रॉय बनने के लिए पत्रकारिता की पढ़ाई के समंदर में कूद पड़ी है।
जहां ठीक-ठाक पत्रकारिता शिक्षण हो रहा है, वहां क्रॉफ्ट और अकादमिक जोर को लेकर रस्साकशी जारी है। जिन अध्यापकों का प्रोफेशनल पत्रकारिता से साबका नहीं पड़ा है, वे संचार के सिद्धांतों के पारायण और पाठ से छात्रों को जोड़ना अच्छा लगता है। लेकिन विजिटिंग फैकल्टी के नाम पर प्रोफेशनल जब क्लास रूम में आते हैं तो वे तकनीक पर ही जोर देते हैं। जाहिर है उनके शिक्षण का मुख्य फोकस तकनीकी जानकारी और तकनीक के आधार पर कंटेंट को कसना सिखाना होता है। अगर वे अखबार से हुए तो उनकी दुनिया जनसत्ता और टाइम्स ऑफ इंडिया के न्यूज रूम के इर्द-गिर्द ही घूमती है। अगर टेलीविजन की दुनिया से हुए तो जी न्यूज, एनडीटीवी या आजतक का न्यूजरूम ही उनका आदर्श होता है। इस असर से पत्रकारिता प्रशिक्षण पाने के बाद प्रोफेशनल संस्थानों में ट्रेनिंग के लिए जाने वाले छात्र बच नहीं पाते। उन्हें मुंह बिचकाकर उनकी सैद्धांतिक पढ़ाई का मजाक उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती। क्रॉफ्ट और अकादमिक को लेकर अतिवादी जोर दरअसल एक तरह का अतिवाद ही है। हर तकनीक और क्रॉफ्ट का अपना एक सिद्धांत भी होता है। अकादमिक दुनिया को इस सैद्धांतिकता के आधार को खोजना और उसकी कसौटी पर क्रॉफ्ट को विश्लेषित करना होता है। इस तरह से पढ़े और गुने छात्रों में जो दृष्टि विकसित होती है, उसमें मौलिकता की गुंजाइश ज्यादा होती है। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा है। जिसका असर आज पत्रकारिता की प्रोफेशनल जिंदगी में खूब दिख रहा है। सवालों के घेरे में पत्रकारिता रोज आ रही है। नई पीढ़ी के पत्रकारों में मौलिक दृष्टि का अभाव साफ नजर आता है। अगर मौलिकता दिखती भी है तो उन्हें प्रयोग करने के लिए जरूरी समर्थन देने वाले साहसी सीनियर की भी कमी साफ नजर आती है।
साफ है तकनीक और अकादमिक के झंझट से मुक्त हुए बिना पत्रकारिता की अपनी वैचारिक जरूरत पर आधारित पत्रकारिता शिक्षण के इंतजाम नहीं किए जाएंगे, सवाल तो उठते ही रहेंगे। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय ने पत्रकारिता शिक्षण की इसी कमी को ध्यान में रखते हुए प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सहयोग से पत्रकारिता पाठ्यक्रम में एकरूपता लाने और संस्थानों के साथ ही पढ़ाने वाले लोगों और संस्थानों के मानकीकरण की दिशा में कदम उठाया है। जरूरत इस बात की है कि प्रोफेशनल दुनिया की जरूरतों के मुताबिक पत्रकारिता शिक्षा ढले, लेकिन अकादमिकता को भी नजरंदाज ना किया जाए। जड़ नजरिए वाली अकादमिकता के बोझ तले दबा पत्रकारिता शिक्षण ना तो अकादमिक दुनिया के लिए मुफीद होगा ना ही अखबारी और टीवी संस्थान को ही फायदा पहुंचा पाएगा। और पत्रकारिता की मेधा का जो नुकसान होगा, उसका आकलन तो आने वाली पत्रकारीय पीढ़ियां ही कर पाएंगी।