मंगलवार, 15 सितंबर 2009

नहीं रूक पाएगा हिंदी का कारवां


उमेश चतुर्वेदी
सितंबर के महीने जैसे-जैसे नजदीक आता जाता है, सरकारी दफ्तरों के उस खास विभाग की रौनक बढ़ाने की कवायद शुरू हो जाती है, जिसे हिंदी अथवा राजभाषा विभाग कहा जाता है। ऐसे माहौल में हिंदी के पाखंड दिवस के करीब एक पखवाड़ा पहले केंद्र सरकार का मंत्री हिंदी की पढ़ाई को जरूरी बनाने की हिमायत करता हुआ बयान दे तो हैरत होना स्वाभाविक ही है। मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल के इस बयान पर शक की गुंजाइश भी इसलिए ज्यादा है, क्योंकि हिंदी ऐसे बयानों के जरिए करीब उनसठ साल से ठगी जाती रही है। राजभाषा को हकीकत में वह हक अब तक नहीं मिल पाया, जिसकी वह स्वाभाविक तौर पर हकदार है।
राजनीतिक बयानों की गंभीरता को हमेशा इतिहास और विगत के कदमों के आधार पर परखा जाता रहा है। लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि कपिल सिब्बल अंग्रेजी के धुआंधार वक्ता हैं। कांग्रेस पार्टी का प्रवक्ता रहते उन्होंने प्रेस को अपनी पार्टी से संबंधित जितनी जानकारियां अंग्रेजी के जरिए दी थीं, शायद ही हिंदी में दी होंगी। संसद में भी चाहे विपक्षी सदस्य के तौर पर बहस में हिस्सेदारी रही हो या फिर मंत्री के तौर पर बहसों का जवाब देना, कपिल सिब्बल अंग्रेजी को ही सहज मानते रहे हैं। ऐसे कपिल सिब्बल अगर देशभर के स्कूलों में हिंदी पढ़ाए जाने की वकालत कर रहे हैं तो इसे सामान्य बयान भर मानकर उपेक्षित नहीं किया जाना चाहिए।
दरअसल कपिल सिब्बल के इस सुझाव की वजह जो चिंताएं हैं, उसी पखवाड़े राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व प्रमुख कुप सी सुदर्शन ने जाहिर किया है। कांग्रेस के एक मुखर नेता के साथ संघ के पूर्व प्रमुख के बयानों को जोड़ना कुछ लोगों को भले ही गलत लग सकता हो। लेकिन हकीकत यही है। सुदर्शन ने कहा है कि अंग्रेजियत इस देश की संस्कृति को बिगाड़ तो रही ही है, देश में एकता की भावना पर भी असर डाल रही है। कपिल सिब्बल ने भी जब हिंदी पढ़ाने की वकालत की तो उनका भी यही कहना था कि हिंदी की पढ़ाई के जरिए देशभर के बच्चे एकता के सूत्र में बंध सकेंगे।
ये कड़वी सचाई है कि सरकारी कोशिशों के जरिए हिंदी अपना असल मुकाम हासिल नहीं कर पाई। दूसरे शब्दों में कहें तो हिंदी को उसके असल मुकाम पर पहुंचाने में सरकारी खेल ने ज्यादा अड़ंगा लगाया। हिंदी को दासी बनाए रखने की सरकारी कवायद की शुरूआत 1965 में ही हो गई थी, जब भाषा संबंधी संसद के संकल्प में ये तय कर दिया गया कि जब तक एक भी राज्य सरकार हिंदी के राजभाषा होने का विरोध करती रहेगी, उसे व्यवहारिक तौर पर राजभाषा नहीं बनाया जा सकेगा। सच तो ये है कि ये संकल्प बाद में आया, लेकिन उसकी पूर्व पीठिका 21 नवंबर 1962 को ही बन गई थी। इस दिन गठित नगालैंड राज्य की राजभाषा ही अंग्रेजी है। जाहिर है कि नगालैंड जैसे राज्य हिंदी को क्योंकर अपनाने लगे। साठ के दशक में तमिलनाडु में उभरे हिंदी विरोध के लिए गुलजारी लाल नंदा के एक आदेश को जिम्मेदार माना जाता है। मशहूर पत्रकार कुलदीप नैय्यर ने अपनी पुस्तक स्कूप में इस घटना का जिक्र किया है। दरअसल संवैधानिक प्रावधानों के चलते 26 जनवरी 1965 से हिंदी को राजभाषा के तौर पर अंग्रेजी का स्थान ले लेना था। इसे देखते हुए ही बतौर राजभाषा विभाग के इंचार्ज मंत्री के नाते नंदा ने ये आदेश दिया था। लेकिन पहले से जारी केंद्रीय सत्ता में हिंदी विरोध की मानसिकता के चलते तमिलनाडु के नेताओं को ये प्रचारित करने का मौका मिल गया कि केंद्र सरकार गैरहिंदी भाषी राज्यों पर जबर्दस्ती हिंदी थोपना चाहती है। नंदा जी को अपनी गलती का अहसास हुआ और यह आदेश वापस ले लिया गया। लेकिन जो गलती होनी थी, वह हो गई थी। जिसका खामियाजा तमिलनाडु में खूनी संघर्ष के तौर पर दिखा। आंदोलन की रिपोर्टिंग करने दिल्ली से पहुंचे पत्रकारों को तब के मद्रास और अब के चेन्नई में ऑटो वालों से अपने हिंदी सवालों के जवाब में हिंदी में ही सुनने को मिला – हम हिंदी नहीं जानता। यानी हिंदी जानने वाला भी अपनी क्षेत्रीय अस्मिता और स्थानीय राष्ट्रवाद को बचाने के नाम पर हिंदी का विरोधी हो गया था। इस आंदोलन ने तमिलनाडु में सरकारी तौर पर ना सिर्फ हिंदी को लागू नहीं होने दिया, बल्कि केंद्र सरकार को हिंदी की उसकी असल जगह पर बैठाने के अपने संकल्प को अनंत काल तक टालने का मौका जरूर दे दिया।
सरकारी षडयंत्र के चलते हिंदी व्यवहार में राजभाषा भले नहीं बन पाई, लेकिन 1991 में शुरू हुए उदारीकरण के दौर ने हिंदी को नई पहचान दिलाई। बेशक यह नीति बनाने वालों की भाषा नहीं बन पाई है, लेकिन बाजार की सबसे प्रमुख भाषा जरूर बन गई। और तो और जिस राज्य ने हिंदी विरोध के नाम पर खून बहाया, बसें जलाईं और सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया, अब उस तमिलनाडु के लोग भी अपने बच्चों को हिंदी पढ़ाने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। पिछले दिनों एक प्रमुख अंग्रेजी दैनिक के चेन्नई संवाददाता ने खबर दी कि साठ के दशक के हिंदी विरोधी आंदोलनकारी पीढ़ी भी अब अपने बच्चों को हिंदी पढ़ाने के लिए बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही है। तमिलनाडु में बदलाव की ये बयार की असल वजह उदारीकरण ही है। इसी के चलते 1995 में दुनिया की जिन पांच भाषाओं को स्टार समूह के मालिक रूपर्ट मर्डोक ने भविष्य की ताकतवर भाषाएं बताया था, उसमें हिंदी भी थी। मर्डोक जानते थे कि हिंदी में बाजार को दुहने की अकूत ताकत है। यही वजह है कि स्टार समूह के चैनलों का भारतीय आसमान पर हमला हुआ और देखते ही देखते स्टार समूह भारत की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया क्रांति का अगुआ बन गया। हमारे शासक भले ही हिंदी को नकारते रहे, लेकिन जिनकी बदौलत हिंदी अपने अहम स्थान से दूर हुई, उसी शासक वर्ग अंग्रेज कौम के ही एक प्रभावी शख्स ने हिंदी की ताकत को पहचानने में भूल नहीं की।
आज अगर कपिल सिब्बल हिंदी की वकालत कर रहे हैं तो इसकी वजह ये नहीं है कि उनकी पार्टी के पहले के कर्ताधर्ताओं ने जो किया, उसे लेकर उनके मन में कोई पश्चाताप है। या फिर वे उस भूल को सुधारना चाहते हैं। हकीकत तो यही है कि अंग्रेजियत के वर्चस्व के इस दौर में भी हिंदी अपनी ताकत बढ़ाती जा रही है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, गुजरात से लेकर उस नगालैंड तक, जिसकी राजभाषा अंग्रेजी है, हिंदी को जानने-बोलने, समझने और गुनगुनाने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। सर्वोच्च अदालतों तक में उसे लागू करने के लिए मांग बढ़ती जा रही है। दिल्ली हाईकोर्ट में हिंदी में सुनवाई और इंसाफ को लेकर तीन हजार से ज्यादा वकीलों का मैदान में कूद पड़ना कोई कम नहीं है। जाहिर है, अपने विस्तार में हिंदी का सहारा लेकर ताकतवर बना बाजार अब हिंदी को भी ताकतवर बना रहा है। ये ताकत ही है कि हिंदी को लेकर अंग्रेजी दां लोगों तक का रवैया बदलता नजर आ रहा है। इससे साफ है कि आने वाले दिनों में हिंदी की जयजयकार बढ़ती ही जाएगी। जरूरत इस बात की है कि खांटी हिंदी वाले भी इस तथ्य को समझें और अपनी ताकत को सकारात्मक तरीके से इस नेक काम में लगाएं।