सोमवार, 8 जून 2009

ये सीरियल कुछ खास है!


उमेश चतुर्वेदी
हिंदी टेलीविजन की दुनिया में इन दिनों दो समानांतर धाराएं आगे बढ़ती नजर आ रही हैं। एक तरफ खबरिया चैनलों की दुनिया है, जहां पारंपरिक खबरों की सिमटती दुनिया का फिलहाल कोई तार्किक अंत होता नजर नहीं आ रहा है, जबकि दूसरी तरफ है मनोरंजन चैनलों की बदलती दुनिया। सास-बहू के अंतहीन झगड़े और महानगरों के बड़े और रईसजादे परिवारों के भीतर जारी साजिशों की दुनिया अब बदलती नजर आ रही है। कभी महिलाओं जीवन की करूणागाथा के प्रतीक रहे गीत अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजौ की पैरोडी अब सकारात्मक तौर पर बदल चुकी है। अब अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजौ से लेकर ना आना लाडो इस देश के बहाने अब महानगरीय जिंदगी की वे शामें बदलने लगीं हैं, जो टेलीविजन के पर्दे के सहारे आगे बढ़ती रही हैं।
हिंदी फिल्मी दुनिया के बारे में माना जाता है कि वहां जो मसाला एक बार हिट हो जाता है, उसकी तेजी से नकल शुरू हो जाती है। एक फिल्मी फार्मूले के दोहन की होड़ लग जाती है। सेटेलाइट चैनलों की बढ़ती भीड़ के शुरूआती दौर यानी करीब आठ साल पहले बॉलीवुड के इसी रोग ने हिंदी टेलीविजन चैनलों को भी घेर लिया था। सास-बहू के अंतहीन झगड़ों, प्यार-मोहब्बत की नाटकीय किस्सागोई और परिवार के भीतर रची जा रही साजिशों का इतना जोर बढ़ा कि बुद्धू बक्से की वह दुनिया ही पूरी तरह बदल गई, जिसकी बुनियाद हमलोग, बुनियाद, मैला आंचल, गणदेवता और शांति जैसे सीरियलों के जरिए रखी गई थी। निश्चित तौर पर ये दूरदर्शन का दौर था। दूरदर्शन के विस्तार के शुरूआती सालों में वही किस्सा दोहराया गया, जो कभी आजादी के ठीक बाद रेडियो के लिए तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री केसकर और आकाशवाणी के महानिदेशक जगदीश चंद्र माथुर ने मिलकर लिखा था। लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि जिस दौर में यानी नब्बे के दशक में जब हिंदी टेलीविजन की सेटेलाइट दुनिया बदलने लगी थी, उसी दौर में उदारीकरण की शुरूआत हुई। और सास-बहू के साजिशों के किस्से रंगीन सेटेलाइट चैनलों के सहारे भारतीय मध्यवर्ग के ड्राइंग रूमों की शोभा बढ़ाने लगे। यह भी सच है कि जी टीवी ना सिर्फ हिंदी, बल्कि देश का पहला निजी सेटेलाइट चैनल रहा। अपने शुरूआती दिनों में उस पर वैसा बाजारवाद हावी नहीं रहा, जो आज से छह महीने पहले तक हर सेटेलाइट चैनल की पहचान बना हुआ था। हम पांच जैसे कुछ अर्थवान धारावाहिक उसकी जान रहे। उसे पहली बार टक्कर 1998 के आसपास मिलना शुरू हुआ, जब सोनी का टीवी चैलन लांच हुआ। इसके साथ ही शुरू हुए प्रतिस्पर्धा के दौर को तेजी मिली करीब आठ साल पहले, जब पीटर मुखर्जी की अगुआई में स्टार ग्रुप ने भारत में अपने पांव रखे। इसके साथ ही महानगरों से लेकर छोटे शहरों तक के ड्राइंग रूम की तस्वीर बदलने लगी। निश्चित रूप से इसमें एकता कपूर के बनाए सीरियल क्योंकि सास भी कभी बहू थी या कहानी घर-घर की जैसे सीरियलों ने नई परिपाटी शुरू की। चूंकि तब तक बाजारवाद अपने चरम पर पहुंच चुका था, तब मुनाफा कमाना हर प्रोफेशन की पहली शर्त बन गया था। ऐसे में दूरदर्शनी जमाने शुरू हुई परंपरा को आघात लगना ही था। यही वह दौर है, जब शहरी मध्यवर्ग तेजी से उभर रहा था। इसका असर ये हुआ कि सास-बहू मार्का ये धारावाहिक और उनके साजिश रचने वाले पात्र ना सिर्फ लोकप्रिय हुए, बल्कि उनकी पहचान भी बनी। फिर तो ऐसे धारावाहिकों की जैसे बाढ़ ही आ गई। कसौटी जिंदगी की, कस्तूरी, कुमकुम एक प्यारा सा बंधन..जैसे तमाम सीरियल टेलीविजन के नए और तेजी से बढ़ रहे उपभोक्ताओं को तेजी से लुभाने लगे। टेलीविजन पर मनोरंजन का पूरा का पूरा संसार इसी फार्मूले पर चल पड़ा। जिसमें लोकप्रिय पात्र मरने के बाद जिंदा होते रहे। याद कीजिए क्योंकि सास भी कभी बहू थी के प्रमुख पात्र मिहिर को, इसे निभा रहे अमर उपाध्याय की मौत हुई, लेकिन कहानी की मांग के नाम पर उन्हें जिंदा किया गया। कसौटी जिंदगी की में भी ऐसा ही हुआ। स्टार प्लस अपने इन सीरियलों के जरिए आठ साल तक टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट में नंबर वन की कुर्सी पर बैठा रहा। जाहिर है इसमें सगुन, कहीं किसी रोज, विदाई, संजीवनी जैसे कई धारावाहिकों का योगदान रहा। पीटर मुखर्जी के स्टार ग्रुप से अलग होने के बाद ऐसी आशंका जताई जा रही थी कि उनके प्रोमोशन में शुरू हुए चैनल नाइन एक्स भी वैसा ही धमाका करेगा। लेकिन नहीं हुआ। अलबत्ता स्टार के दबाव में जी टीवी को भी सात फेरे, बेटियां जैसे सीरियल लाने पड़े। वहां भी वैसी ही साजिशें और अंदरूनी उठापटक जारी रही।
यही वह दौर रहा, जब हिंदी के खबरिया चैनलों पर पारंपरिक खबरों की बजाय सांप-बिच्छू नचाने, काल-कपाल और महाकाल दिखाने का दौर शुरू हुआ। ये कथानक और खबरें एक दौर तक तो अपने नयापन के चलते दर्शकों को लुभाती रहीं। लेकिन बाद में आलोचकों, समाजवैज्ञानिकों और प्रबुद्ध वर्ग द्वारा इसकी आलोचना होने लगी। लेकिन इस आलोचना से टेलीविजन चैनल अप्रभावित रहे। टीआरपी का दबाव और बहाना ऐसे सीरियलों को एलास्टिक की तरह बढ़ाते रहने का बहाना बना रहा। लेकिन पिछले साल आए टीवी 18 ग्रुप के नए चैनल कलर्स ने इन धारावाहिकों की दुनिया ही बदल दी। बाल विवाह के दंश पर आधारित सीरियल बालिका बधू आज टेलीविजन की रेटिंग प्वाइंट में नंबर वन बना हुआ है। इसकी वजह ये नहीं है कि इसमें पारंपरिक मसाले और लटके-झटके हैं। बल्कि इसमें बचपन में शादी के चलते परिवार, समाज और उस बच्चे की जिंदगी पर कैसा और क्या असर पड़ता है, इसे कथा में पिरोया गया है। कहना ना होगा, ऐसे अर्थवान धारावाहिक के जरिए हिंदी के मनोरंजन चैनलों की दुनिया फिर एक बार उसी ढर्रे पर लौटरने लगी है, जिसकी शुरूआत रमेश सिप्पी जैसे निर्माता और मनोहर श्याम जोशी जैसे लेखक के साथ दूरदर्शन ने नब्बे के दशक के शुरूआती दिनों में बुनियाद और हमलोग जैसे धारावाहिकों के जरिए की थी। कलर्स पर इन दिनों जितने भी सीरियल आ रहे हैं, उनमें कथ्य को लेकर ताजगी तो है ही, व्यापक सामाजिक सरोकारों से भी जुड़े हैं। कलर्स का ही एक और सीरियल है, ना आना इस देश मेरी लाडो। इसमें बालिका भ्रूण हत्या के मामले को कथा के फ्रेम में बेहतर तरीके से पिरोकर पेश किया गया है। जो देखने वाले का दिल छू लेता है। इसी तरह जीवन साथी में भी एक ऐसे परिवार की कहानी पेश की गई है, जहां परिवार का मुखिया अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए अपने परिवार और अपनी बेटी तक को दांव पर लगाने से नहीं चूकता। इसी तरह एक और अर्थवान सीरियल उतरन भी दिखाया जा रहा है, जिसमें एक बड़ा रईस परिवार अपनी एक गलती के चलते उसकी शिकार गरीब महिला और उसकी बेटी को ठाटबाट से पाल रहा है।
कलर्स के इन अर्थवान धारावाहिकों ने इस बाजार के अगुआ रहे स्टार प्लस, सोनी और जीटीवी को भी अर्थवान धारावाहिकों की दौड़ में शामिल होने के लिए मजबूर कर दिया। अब जीटीवी भी अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजौ जैसा धारावाहिक दिखाना पड़ रहा है। इसी तरह एक और धारावाहिक आपकि अंतरा जैसा धारावाहिक भी शुरू करना पड़ा है। वैसे जब क अक्षर वाले धारावाहिकों का दौर जारी था, उसी दौर में जस्सी जैसी कोई नहीं जैसा सीरियल सोनी पर दिखाया जाता रहा। उसका सीआईडी अभी तक चल ही रहा है। लेकिन नए दौर के चलन में उसे भी लेडीज स्पेशल लेकर आना पड़ा है। जिसमें चार महिलाओं की जिंदगी और आम जिंदगी में उनकी जद्दोजहद को पेश किया जा रहा है।
कलर्स के जरिए शुरू हुई धारावाहिकों की विविधरंगी दुनिया में दो चीजें खासतौर से नोट की जा सकती हैं। एक ये कि अधिकांश धारावाहिक महिला समस्याओं से दोचार होने के कथ्य से भरे पड़े हैं। दूसरा, अब तक बिहार और बिहारी लोग टेलीविजन धारावाहिकों में सिर्फ बदहाली और नौकर वाली भूमिकाओं के पर्याय रहे हैं। लेकिन अब वहां की भी वह जिंदगी लोगों के सामने आ रही है, जिसमें जिंदगी की परेशानियां भी हैं तो खूबसूरत रंग भी। उम्मीद की जानी चाहिए कि मनोरंजन चैनलों की दुनिया में आ रहे इस सकारात्मक बदलाव से खबरिया चैनल भी जल्द ही सबक लेंगे और खबरों की दुनिया भी उसी तरह बदलाव से भरी नजर आ सकेगी।