रविवार, 10 मई 2009

पत्रिका चर्चा

नए अनुभवों से गुजरने की यात्रा
उमेश चतुर्वेदी
टेलीविजन चैनलों के विस्तार के इस दौर में साहित्यिक और सांस्कृतिक मंचों पर एक रोना सामान्य हो गया है। हर वक्ता को गंभीर पाठकों का अभाव हर समारोह में सालता रहता है। ऐसे स्यापे भरे माहौल में अगर 2009 ने नई उम्मीदें जगाईं हैं। साल के पहले ही महीने में दस साल के लंबे अंतराल के बाद पूर्वाग्रह जैसी गंभीर पत्रिका ने पाठकों की दुनिया के बीच दोबारा प्रवेश किया। मध्य प्रदेश की राजधानी भारत भवन की ये पत्रिका पहले अशोक वाजपेयी के संपादन में निकलती थी। भोपाल जैसी जगह से प्रकाशित होती रही इस पत्रिका ने सांस्कृतिक और साहित्यिक जगत में गंभीर और वैचारिक रचनाओं के जरिए इस पत्रिका ने समय और संस्कृति में खूब हस्तक्षेप किया। लेकिन जब भारत भवन महज सांस्कृतिक केंद्र ना रहकर सियासी अखाड़े में तब्दील होता गया – इस पत्रिका पर संकट के बादल मंडराने लगे और दस साल पहले इसका प्रकाशन स्थगित कर दिया गया। लेकिन पिछले साल जब भारत भवन के न्यासी मंडल का पुनर्गठन हुआ और उसमें प्रभाकर श्रोत्रिय शामिल किए गए – तब से एक बार फिर उम्मीद जताई जाने लगी थी कि भारत भवन की खोई प्रतिष्ठा वापस लौटेगी और वह एक बार फिर कम से कम साहित्यिक केंद्र के तौर पर सकारात्मक कदम उठाने में संभव होगा। पूर्वग्रह का प्रकाशन कम से कम इस उम्मीद पर खरा तो उतरता ही है। प्रभाकर श्रोत्रिय के संपादन में निकले इसके 124 वें अंक में ढेरों ऐसी रचनाएं हैं – जिनसे गुजरना पाठकों को नई सूचनाएं, नए विचार और नई उम्मीद दे सकता है। इस अंक में ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता कवि कुंवर नारायण पर खास सामग्री दी गई है। इनमें उनकी चुनिंदा रचनाओं का विश्लेषण, कुछ बेहतरीन रचनाएं और उनका साक्षात्कार शामिल है। इस अंक में स्वर्गीय प्रभा खेतान का एक लेख स्त्री और मीडिया भी प्रकाशित किया गया है। स्त्री की नई छवियां रचते मीडिया का इतना बेहतरीन विश्लेषण प्रभा ही कर सकती थीं।
2009 जहां नई उम्मीदें लेकर आया है – वहीं पिछले साल ने भी कुछ सकारात्मक नींव भी रखी। पिछले साल कुछ पत्रिकाओं के लिए नियमित होने के लिए भी याद किया जाएगा। कथन इसी साल से लगातार नियमित अंतराल पर प्रकाशित हो रही है। निश्चित तौर पर इसके लिए नई संपादक संज्ञा उपाध्याय की रचना दृष्टि, सोच और मेहनत का खासा योगदान है। इसी दौरान जनगाथा का भी नियमित तौर पर प्रकाशन शुरू हुआ है। बिहार के आरा में रह रहे कथाकार और बैंककर्मी अनंत कुमार सिंह और उनके दोस्तों की रचनात्मक जिद्द के चलते ये पत्रिका भी पाठकों के लिए नियमित अंतराल पर उपलब्ध रहने लगी है। पत्रिका के जनवरी अंक में यूं तो ढेरों रचनाएं हैं। लेकिन पत्रकार कुमार नरेंद्र सिंह का लेख आतंकवाद की सांप्रदायिक समझ. सुभाष शर्मा का नारीवादी लेखिका डोरिस लेसिंग पर लेख – कोई भी चीज स्थायी नहीं इस अंक में पठनीय बन पड़े हैं।
कोलकाता की भारतीय भाषा परिषद की पत्रिका वागर्थ की संपादकीय अगुआई कवि और आलोचक विजय बहादुर सिंह ने संभाल ली है। उनके संपादन में आया वागर्थ नई रचनात्मक उम्मीद जगा रहा है। वागर्थ के जनवरी अंक का संपादकीय खासतौर पर निराला को समर्पित है। इस संपादकीय में निराला को नए ढंग से समझने की कोशिश की गई है। पारंपरिक वाम सोच से आगे भी निराला की रचनात्मकता सक्रिय थी, इस संपादकीय के जरिए समझा जा सकता है। इस अंक में आलोक श्रीवास्तव की कविताएं पहला वसंत, तुम मेरा ही स्वप्न अपनी भावप्रवणता के लिए ध्यान आकर्षित करती हैं। केशव तिवारी की कविता रातों में अक्सर रोती थी मर चिरैया पीछे छूटे गांव को पूरी मार्मिकता से याद कराकर सराबोर कर देती है।
संपादक बदलने की चर्चा हो रही है तो इसी कड़ी में अगला नाम आता है कृति ओर का। कृति ओर अब कवि विजेंद्र की जगह रमाकांत शर्मा के संपादन में निकलने लगी है। हालांकि उनका नाम अब भी प्रधान संपादक की जगह साया हो रहा है। वागर्थ की तरह इसका संपादकीय भी विचारोत्तेजक बन पड़ा है। इस संपादकीय में लोक से निकलती कविता और उसके लोकभाष्य पर गंभीर विवेचन किया गया है। इस संपादकीय में कवि को प्रकृति के साथ चलने की जमकर वकालत की गई है। संपादकीय के मुताबिक कविता के लिए जीवन द्रव्य जितना जरूरी है – उतना ही जरूरी प्रकृतिबोध भी है। संपादकीय में कहा गया है कि यही वजह है कि सजग और संवेदनशील कवि प्रकृति का साथ कभी नहीं छोड़ता। खराब और आधी-अधूरी कविता के पैरोकार ही यह मानकर चलते हैं कि आज प्रकृति को स्मृति के रूप में याद करके ही लिखा जा सकता है।
यूं तो हिंदी में ढेरों पत्रिकाएं लगातार अपनी उपस्थिति बनाए हुए हैं। लेकिन इन पत्रिकाओं से गुजरना मौजूदा समय की नब्ज से दो-चार होने में मदद तो देता ही है, सांस्कृतिक और वैचारिक दुनिया के नए अनुभवों से लबरेज होने और अपनी नई दृष्टि बनाने में भी मददगार है।