गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

सियासी मैदान में इंटरनेट की दस्तक

उमेश चतुर्वेदी
अमेरिका में हाल ही में हुए राष्ट्रपति चुनाव और भारत में होने जा रहे आम चुनाव में मंदी की छाया के अलावा और कोई समानता है तो वह है इंटरनेट का इस्तेमाल। 1969 में इंटरनेट के जन्म के बाद ये पहला मौका है – जब भारतीय चुनावों में इंटरनेट का जोरदार इस्तेमाल होने की उम्मीद जताई जा रही है। अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के दोनों उम्मीदवारों ने मतदाताओं को लुभाने के लिए इंटरनेट का जमकर इस्तेमाल किया। लेकिन इसका ये भी मतलब नहीं कि अखबारों और टेलीविजन या फिर खबरिया वेबसाइटों ने अमेरिका में ओबामा के पक्ष में माहौल बनाने में कोई मदद नहीं की। अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के बाद वहां हुए एक सर्वेक्षण में साठ फीसदी लोगों का कहना था कि ओबामा के पक्ष या कहें कि बुश के खिलाफ उनका नजरिया विकसित करने में ब्लॉगिंग और ब्लॉगरों ने बड़ी भूमिका निभाई।

आप याद करिए सन 2000 और उसके बाद का माहौल...उस समय आईटी को लेकर दो राज्यों के नजरिए में कितना अंतर था। एक तरफ आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू थे, जिन्होंने हैदराबाद में सॉफ्टवेयर उद्योग को इतना आगे बढ़ाया कि उसे लोग साइबराबाद के तौर पर जानने लगे। जिलों को वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए जोड़ने वाले पहले मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू ही थे। उन्हीं दिनों बिहार में राज चला रहे आरजेडी अध्यक्ष लालू यादव इंटरनेट और सॉफ्टवेयर उद्योग का मजाक उड़ाते फिर रहे थे – ये आईटी- फाईटी क्या होता है। उन्हीं दिनों आंध्र में किसान आत्महत्याएं कर रहे थे। तब लालू के इस जुमले के जरिए एन चंद्रबाबू नायडू की जमकर आलोचना हो रही थी। 2004 के आम चुनावों में नायडू पर सॉफ्टवेयर उद्योग का विकास एक आरोप की तरह चस्पा करने में उनके विरोधी पीछे नहीं रहे। जिसका खामियाजा नायडू को सत्ता से बाहर होकर चुकाना पड़ा। लेकिन पांच साल में ही पूरा नजारा बदल गया है। आईटी-फाईटी कह कर इंटरनेट और कंप्यूटर की वर्चुअल दुनिया का मजाक उड़ाने वाले लालू यादव खुद ब्लॉगर हो गए हैं। ब्लॉग पर व्यक्त उनके विचार वैसे ही खबर बन रहे हैं – जैसे उनके बयान बनते रहे हैं। जो शख्स कभी इंटरनेट की वर्चुअल दुनिया का मजाक उड़ाते नहीं थकता था – उसमें तकनीक और वर्चुअल दुनिया को लेकर ये बदलाव कम बड़ी बात नहीं है। गांव-गिरांव और गरीब-गुरबे की बात करने वाले राजनेताओं में आखिर ये बदलाव क्यों आया है। इसका सबसे बेहतरीन जवाब खुद राजनेता ही दे रहे हैं। हाल ही में फिक्की के एक कार्यक्रम में एनडीए की ओर से प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि पहिया की खोज के बाद अब तक की सबसे बडी खोज इंटरनेट ही है। जिसने पूरी दुनिया को ही बदल दिया है।

इंटरनेट को आमतौर पर नौजवानों का माध्यम माना जाता है। लेकिन हकीकत ये है कि नौजवानों का ये माध्यम बूढ़े राजनेताओं तक को भी भा रहा है। लालकृष्ण आडवाणी अब खुद अपनी वेबसाइट के जरिए नौजवानों से मुखातिब हैं। उनके लेफ्टिनेंट शाहनवाज हुसैन भी अपनी अलग वेबसाइट लेकर वर्चुअल दुनिया में नौजवानों को रिझाने निकल पड़े हैं। कांग्रेस के राहुल बाबा भी नौजवानों को रिझा रहे हैं। हालांकि उन्होंने मीडिया के सभी माध्यमों के जरिए नौजवानों को लुभाने का अभियान छेड़ रखा है। जाहिर है, इसमें इंटरनेट भी है। लेकिन सबसे बड़ी बात ये कि उनकी अभी तक स्वतंत्र वेबसाइट नहीं है। बल्कि कांग्रेस पार्टी की वेबसाइट के ही जरिए वे लोगों से मुखातिब हैं। वैसे आज इक्का-दुक्का पार्टियां ही हैं, जिनकी अपनी कोई वेबसाइट नहीं है। समाजवादी विचारधारा वाली समाजवादी पार्टी भी इंटरनेट की वर्चुअल दुनिया में मौजूद है। दलितों का उद्धार करने का दावा करने वाली बहुजन समाज पार्टी की भी अपनी वेबसाइट है। हां, बिहार में राज चला रहे जनता दल की साइट अभी नहीं दिखी है। लेकिन एक बात जरूर है कि अब राजनेता अपने बयानों और विचारों को इंटरनेट की वर्चुअल दुनिया में पेश करने और दिखाने के लिए सचेत हो रहे हैं।

आखिर क्या वजह है कि अब तक गली – कूचों से लेकर गांव-कस्बे के मैदानों में तकरीर करने वाले राजनेताओं को इंटरनेट की दुनिया लुभाने लगी है। इसका जवाब है हाल ही में सुधारी गई मतदाता सूचियां। 2004 के मुकाबले इस बार के आम चुनाव के लिए करीब 14 करोड़ नए मतदाता जुटे हैं। जाहिर है, इनमें से ज्यादातर ने हाल ही में 18 साल की उम्र सीमा पार की है। एक अनुमान के मुताबिक इनमें से करीब आठ करोड़ ऐसे हैं – जो यदा-कदा इंटरनेट की दुनिया में भ्रमण के लिए जाते रहते हैं। असल बात ये है कि इन्हीं वोटरों पर हमारे राजनेताओं की निगाह है। कहा जाता है कि 1989 के आम चुनाव में राजीव गांधी की अगुआई वाली कांग्रेस को हराने में नौजवानो मतदाताओं ने ही अहम भूमिका निभाई थी। लिहाजा इस बार कोई खतरा उठाने को तैयार नहीं है।

इसकी तस्दीक इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया की 28 जनवरी 2009 को जारी रिपोर्ट भी करती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक देश में तकरीबन चार करोड़ तिरपन लाख लोग तकरीबन रोजाना इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं। वैसे एसोसिएशन की इस रिपोर्ट के मुताबिक देश में करीब सवा छह करोड़ नियमित इंटरनेट यूजर हैं। एसोसिएशन का मानना है कि देश के सभी 614 जिलों में तकरीबन पचास साइबर कैफे तो हैं हीं। ये सच भी है। हो सकता है किसी जिले में तीस साइबर कैफे हैं तो किसी में सत्तर। जहां बिजली की सुविधा कमजोर है, वहां सर्फिंग दिल्ली-मुंबई जैसी जगहों से महंगी जरूर है। लेकिन ये भी सच है कि इन इंटरनेट यूजरों में सबसे ज्यादा संख्या युवाओं की ही है। एसोसिएशन के आंकड़ों पर गौर करें तो इसमें हर साल करीब 13 फीसदी की बढ़ोत्तरी ही देखी जा रही है। अगर इंटरनेट के लिए जरूरी बुनियादी चीज बिजली की आपूर्ति सुनिश्चित की जा सके तो ये वृद्धि दर और तेज हो सकती है।

इन आंकड़ों की हकीकत सामने आने के बाद कौन ऐसा राजनेता होगा – जो अपने नौजवान वोटरों को रिझाना नहीं चाहेगा। यही वजह है कि इस बार के आम चुनाव में इंटरनेट का पहली बार जमकर इस्तेमाल होने जा रहा है। वैसे ये भी सच है कि नौजवान वोटर उस तरह किसी चुनाव क्षेत्र में संगठित या समूह में नहीं हैं। क्योंकि शहरी इलाकों में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले वोटर ज्यादा हैं तो ग्रामीण इलाके में ऐसे वोटर कम हैं। क्योंकि तमाम सियासी दबावों के बावजूद अभी देश के करीब तीस फीसदी गांवों में या तो बिजली पहुंची ही नहीं या फिर आंशिक तौर पर पहुंची है। लेकिन जिस तरह मोबाइल कंपनियों ने मोबाइल फोन पर ही इंटरनेट की सुविधा देनी शुरू की है – उससे साफ है कि अगले आम चुनावों तक शायद ही कोई नौजवान होगा – जो इंटरनेट का इस्तेमाल नहीं कर रहा होगा। तकनीक की दुनिया में लगातार आ रहे बदलावों के चलते ऐसा होना ही है। तब ये भी सच है कि अगले आम चुनाव में वोटरों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल कुछ वैसे ही होगा – जैसा आज अमेरिका या ब्रिटेन सरीखे विकसित देशों में हो रहा है। लेकिन इसका ये भी मतलब नहीं कि गली-कूचों और कस्बे – हाट के मैदानों में अपनी बात पहुंचाने की पारंपरिक अवधारणा भी बीते दिनों की बात हो जाएगी। विविधरंगी भारत के गांव को परंपरा में बंधे रहने का अपना देसज रूप कम नहीं लुभाता और इस उम्मीद के दम तोड़ने का कोई कारण नजर भी नहीं आता।