गुरुवार, 8 जनवरी 2009

मीडिया के पन्ने या युद्ध का मैदान

उमेश चतुर्वेदी
पिछले साल 26 नवंबर को मुंबई में आतंकी हमले के बाद अरब सागर में न जाने कितने ज्वार-भाटा आ चुके हैं। लेकिन एक सवाल का जवाब दोनों तरफ बड़ी बेसब्री से तलाशा जा रहा है कि युद्ध होगा या नहीं ....दोनों तरफ एक वर्ग ऐसा है, जिसे लड़ाई के ही सहारे सारी समस्याओं का हल सूझ रहा है तो दूसरा तबका ऐसा भी है – जिसे लोहिया जी के भारत-पाक महासंघ को पुनर्जीवित करने में आज भी दिलचस्पी है।
पिछली सदी के साठ के दशक में डॉक्टर लोहिया ने भारत-पाक महासंघ की कल्पना की थी। उन्होंने ये विचार देते वक्त कहा था कि हिंदुस्तान के भले ही तीन टुकड़े हो गए हैं – लेकिन ये बदलाव बनावटी है। क्योंकि संस्कृति और भौगोलिक आधार पर दोनों या बल्कि अब कहें तो तीनों यानी भारत, पाकिस्तान और बांगलादेश में कोई अंतर नहीं है। भाषाई सवालों को छोड़ दें तो तीनों की नाल एक ही है ...तीनों का उद्गम एक है। ये तो समय और राजनीति की मार है कि इतिहास के एक बड़े पत्थर ने तीनों को अलग-अलग धाराओं में बांट दिया। डॉक्टर लोहिया ने कहा था कि अगर सोवियत संघ एक हो सकता है – जर्मनी के दोनों हिस्से एक होने की कवायद में जुट सकते हैं तो एक बनावटी विभाजन के चलते पैदा हुए भारत और पाकिस्तान एक होने की कोशिश में क्यों नहीं जुट सकते। लोहिया ने कहा था कि विदेश नीति, रक्षा और मुद्रा जैसे मामले एक रखकर दोनों या कहें तीनों देश आपसी कई समस्याओं से निजात पा सकते हैं।
लोहिया की इस कल्पना का तफसील से विश्लेषण बाद में ...अब जरा 26 नवंबर के बाद की घटनाओं पर भारत और पाकिस्तानी मीडिया के रूख पर ध्यान दें। दोनों तरफ की मीडिया की चिंताओं से रूबरू होने से पहले दोनों तरफ की मीडिया की एक सामान्य प्रवृत्ति पर ध्यान देने की जरूरत है। पाकिस्तान से युद्ध हो या क्रिकेट ....मीडिया भी इसमें वैसे ही भाग लेता है ...जैसे वह खुद सिपाही या क्रिकेटर हो। अगर दूसरे शब्दों में कहें तो मीडिया का स्पेस भी क्रिकेट या युद्ध के मैदान में तबदील हो जाता है। दोनों तरफ युद्धोन्माद पैदा करने में दोनों तरफ का मीडिया भी कूद पड़ता है। भारत के खबरिया टेलीविजन चैनलों का तो पाकिस्तान से मैच खबर बेचने का जबर्दस्त यूएसपी है। कहना ना होगा इस बार भी ये युद्ध का ये हाइप भी कुछ ज्यादा ही दिख रहा है। भारत और पाकिस्तान के बयान बहादुर राजनेता पूरी शिद्दत से एक – दूसरे को झूठा और खुद को ईमानदार दिखाने – जताने की कोशिश में जुटे हुए हैं। ऐसे में बार – बार दोनों तरफ ये सवाल उठ रहा है कि क्या लड़ाई होगी। भारत का अंग्रेजी – हिंदी समेत तकरीबन सभी भारतीय भाषाओं का मीडिया युद्ध नहीं चाहता। मुंबई पर आतंकी हमले के खिलाफ बने माहौल के चलते अंग्रेजी मीडिया इन दिनों अपनी सेक्युलर छवि से कहीं ज्यादा अपराधियों को दंड दिलाने की मंशा के साथ रिपोर्टिंग कर रहा है। हालांकि अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में ये मीडिया संसद पर आतंकी हमले के लिए वाजपेयी और उनके जिम्मेदार गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी को ही जिम्मेदार ठहराने में जोरशोर से जुटा था। लेकिन इस बार हालात बदले हुए हैं। कुछ यही हालत पाकिस्तान के भी अंग्रेजी मीडिया का भी है। सबसे अच्छी बात ये है कि वहां के मशहूर दैनिक द डॉन और द न्यूज ने एफबीआई के हवाले से ये खबरें देने में हिचक नहीं दिखाई कि मुंबई में पकड़ा गया आतंकी कसाब पाकिस्तानी नागरिक ही है। द न्यूज और द डॉन के संवाददाता पाकिस्तान के फरीदकोट जिले के उस गांव तक पहुंच गए- जहां का कसाब निवासी है। लेकिन वहां के उर्दू अखबारों का रवैया ऐसा नहीं है। खुद द डॉन के ही ग्रुप के उर्दू अखबार जंग का रवैया वैसा नहीं रहा। उसने भारत को ही दोषी साबित करने में देर नहीं लगाई और कसाब को भारत का नागरिक बताने से भी नहीं हिचका।
पाकिस्तान के दूसरे प्रतिष्ठित अखबार द नेशन और फ्राइडे टाइम्स का रवैया कभी संतुलित नजर आया तो कभी वह पाकिस्तान को लेकर मोहग्रस्त भी रहा। लेकिन उर्दू अखबार पहले की ही तरह अखबारी पन्नों पर भारत के खिलाफ जंग लड़ते रहे। सबसे ज्यादा हमला नवा ए वक्त ने बोला। पाकिस्तान के एक अखबार से जुड़े हमारे एक जानकार ने नाम ना छापने की शर्त पर बताया कि पाकिस्तान में उर्दू अखबारों ने जिम्मेदराना रूख अख्तियार नहीं किया।
अभी ज्यादा दिन नहीं हुए ..जब भारतीय उर्दू अखबारों में भी पाकिस्तान को दोषी ठहराने से हिचक दिखती थी। हालांकि इस बार ऐसा नहीं हुआ है। अंग्रेजी के मशहूर पत्रकार खुशवंत सिंह ने अपने पिछले कॉलम में ही लिखा है कि मुंबई हमले में जो करीब 185 लोग मारे गए –उनमें चालीस से ज्यादा मुसलमान थे। खुशवंत का कहना है कि यही वजह है कि मुंबई में मारे गए आतंकियों से भारतीय मुसलमानों को कोई हमदर्दी नहीं है। शायद यही वजह है कि इस बार पाकिस्तानी आतंकवादियों को लेकर उर्दू प्रेस भी तल्ख है।
उर्दू और अंग्रेजी मीडिया की रपटों और संपादकीयों में इस अंतर से साफ है कि दोनों दरअसल दो तरह की मानसिकता का प्रतिनिधित्व करते हैं और दोनों का लक्ष्य समूह अलग है। भारत में भी कुछ एक अपवादों को छोड़ दें तो उर्दू प्रेस के साथ पूर्वाग्रह के आरोप लगते रहे हैं और पाकिस्तान का अधिसंख्य उर्दू प्रेस कट्टरपंथी मानसिकता का ही प्रतिनिधित्व करता है। यही वजह है कि अंग्रेजी मीडिया जहां हकीकत आधारित रिपोर्टिंग कर रहा है—उसे लड़ाई और आतंकवाद में भलाई नहीं दिख रही है। वहीं उर्दू प्रेस अभी-भी अपने पुराने रवैये पर कायम है।
पता नहीं ..लोहिया जी के विचारों से अंग्रेजी प्रेस कितना मुतमईन रहा है। लेकिन अगर आज वे जिंदा रहते तो मुख्यधारा की पत्रकारिता- जिसमें पाकिस्तान का अंग्रेजी प्रेस के साथ ही भारत की प्रमुख भाषाओं का प्रेस शामिल है – में आए इस बदलाव को अपने विचारों की जीत के एक सोपान के तौर पर देखते।