सोमवार, 20 अप्रैल 2009

शुरूआती पत्रकारिता के दिनों की एक याद

उमेश चतुर्वेदी
1996 की बात है, तब मैं शावक पत्रकार था, अमर उजाला ग्रुप के आर्थिक अखबार अमर उजाला कारोबार में मेरी नई-नई नौकरी लगी थी। तब के संपादक ने नौकरी देते वक्त मुझसे ट्रेड यूनियन और साहित्यिक-सांस्कृतिक रिपोर्टिंग कराने का वादा किया था। लेकिन बाद में उन्होंने मंडी रिपोर्टिंग के काम पर लगा दिया। मेरे तत्कालीन बॉस ने एक दिन मुझसे कहा कि आप जाकर एशिया के सबसे बड़े हार्डवेयर मार्केट पर स्टोरी करके लाइए। मैंने पता लगाया कि वह मार्केट नई दिल्ली स्टेशन के पास स्वामी श्रद्धानंद मार्ग पर है। अजमेरी गेट की तरफ से मैंने आगे बढ़कर स्वामी श्रद्धानंद मार्ग का रास्ता वहां तैनात एक सिपाही से पूछा। सिपाही ने मुझे ऐसे घूरा- जैसे मुझे खा जाएगा। माजरा नहीं समझ पाया, लिहाजा ये बताने में मैंने देर नहीं लगाई कि पत्रकार हूं। सिपाही का रवैया बदल गया। उसने मुझे आंख के इशारे से रास्ता बता दिया। उसके बताए रास्ते पर आगे बढ़ने के पहले तक मुझे उस रास्ते के हकीकत की जानकारी नहीं थी। लेकिन उस रास्ते पर आगे बढ़ते ही मेरी हैरत का ठिकाना नहीं रहा। श्रद्धानंद जैसे क्रांतिकारी संन्यासी के नाम पर बनी ये सड़क पहले जीबी रोड के नाम पर जानी जाती थी। इसी जीबी रोड के ग्राउंड फ्लोर पर सचमुच एशिया का सबसे बड़ा हार्डवेयर मार्केट फैला पड़ा है। इसी रास्ते के आखिरी छोर पर लाहौरी गेट समेत पुरानी दिल्ली के कई रिहायशी इलाके हैं। इसी रास्ते से घर-परिवार वाले लोग भी रोजाना हाट-बाजार जाते हैं। कभी रिक्शे से तो कभी पैदल, वे निर्विकार भाव से वैसे ही गुजरते हैं – जैसे दूसरे इलाके में वे जाते हैं। बाजार की चमक के बीच अंधेरी सीढ़ियां भी दिख रही थीं और उनसे होकर उपर जो रास्ता जाता है, वहां कोई और ही दुनिया थी। छतों पर खड़ी लड़कियां और महिलाएं बार-बार कुछ वैसे ही बुला रही थीं – जैसे सब्जी बाजार में सब्जी वाले तरकारी और जिंस का भाव लगाते हुए ग्राहकों को बुलाते हैं। तब जाकर मुझे पता चला कि एशिया के सबसे बड़े हार्डवेयर बाजार के छत पर देह का बाजार लगता है। मेरे लिए ये नया अनुभव था। मेरा मन घृणा और विक्षोभ से भर गया। रोटी के लिए अपनी अस्मत की बोली लगाते हुए देखना मेरे लिए ये पहला अनुभव था। उस रात मैं सो नहीं पाया। सारी रात मनुष्य जीवन की मजबूरियां मुझे बेधती रहीं।
बहरहाल मैं रिपोर्टर की हैसियत से गया था और मुझे हार्डवेयर बाजार पर स्टोरी करनी ही थी। लिहाजा मैं मार्केट एसोसिएशन के तत्कालीन अध्यक्ष के पास पहुंचा, लेकिन उनके किसी रिश्तेदार की मौत हो गई थी। लिहाजा उनसे मुलाकात नहीं हुई। तब मैं पूर्व अध्यक्ष के पास पहुंचा। वहां पहुंचा तो श्रद्धानंद मार्ग पुलिस चौकी का हेडकांस्टेबल उनकी चंपूगिरी में मसरूफ था। मैंने पूर्व अध्यक्ष जी को अपना परिचय बताया और मार्केट के बारे में जानकारी मांगी। जानकारी देने की बजाय अपनी दुकान से मुझे बाहर लेकर वे निकल पड़े। वे मुझे लेकर नई दिल्ली से सदर जाने वाली रेलवे लाइन और हार्डवेयर मार्केट के बीच वाले इलाके की ओर चले। ये वाकया नवंबर महीने का है। लेकिन उस खाली जगह में पतझड़ जैसा माहौल था। वहां प्रयोग किए जा चुके कंडोम ऐसे बिखरे पड़े थे, जैसे पतझड़ के दिनों में पेड़ों के नीचे पत्तियां बिखरी होती हैं। एक साथ इतने यूज्ड कंडोम देखकर मुझे उबकाई आने लगी। मैं उल्टे पांव लौट पड़ा। पीछे-पीछे मार्केट एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष की आवाज थी, पहले हमारी इस समस्या पर लिखो तब जाकर कोई दूसरी खबर दूंगा।
एशिया के सबसे बड़े हार्डवेयर मार्केट की चमक-दमक के पीछे कितना कचरा है और उसका छत कितने स्याह अंधेरे से घिरा है, ये मैं तभी जान पाया। उसी दिन मुझे हेड कांस्टेबल ने बताया कि वहां आनेवाले ज्यादातर ग्राहक रिक्शे-ठेले वाले या फिर स्कूलों के जवान होते छात्र होते हैं। ये भी पता चला कि सेना के जवान भी अच्छी-खासी संख्या में यहां अपना दिल बहलाने आते हैं। आप उन्हें रोकते नहीं – मेरे इस सवाल को लेकर हेड कांस्टेबल का जवाब था , उसकी यानी पुलिस वालों की कोशिश होती है कि छात्र कोठों पर जा नहीं पाएं। इसके लिए वे लाठियां भांजने से भी नहीं हिचकते। लेकिन लगे हाथों वह ये भी जोड़ने से नहीं चूका कि यहां आने वाले को कोई रोक पाया है भला।
मैं गांव का हूं...वह भी एक संभ्रांत ब्राह्मण परिवार से ..पारिवारिक संस्कारों ने कोठों के अंधेरे कोने की तहकीकात से रोक दिया। लिहाजा वहां नहीं जा पाया, लेकिन स्याह अंधेरे के पीछे की दुनिया का दर्द समझने में कोई चूक नहीं हुई। दर्द समझने में संस्कार भी कभी बाधक बनते हैं भला .......

1 टिप्पणी:

Sundip Kumar Singh ने कहा…

उमेश जी भारतीय जनसंचार संस्थान में पढाई के दौरान मैं कई बार आपसे मिल चुका हूँ. तब आप इंडिया टीवी में हुआ करते थे. आपकी सफलताओं के लिए बधाई. जहाँ तक ब्लॉग में आपके द्वारा उठाये गए सवाल का मामला है तो ये सच है. राजधानी की चमक-दमक के पीछे कितने लोग मजबूरी में अपना जीवन बिता रहे हैं ये बता पाना मुश्किल है. ऐसे लोगों से रोज हमारा सामना होता है. लेकिन हम जानते हैं कि इसमें कोई बड़ा बदलाव लाना हमारे बस का नहीं है. एक तो हमारे पारिवारिक संस्कार हमें वहां तक पहुचने से रोकते हैं तो दूसरी ओर मजबूरी में ऐसा कर रहे लोग अगर इससे रोक दिए जाते हैं तो वे क्या करेंगे इसका जवाब हमारे पास नहीं है...