बुधवार, 28 जनवरी 2009

गैरजिम्मेदार टीवी रिपोर्टिंग के लिए जिम्मेदार कौन ?

उमेश चतुर्वेदी
तोप से मुकाबिल रहने वाले प्रिंट मीडिया की सारी तोपें इन दिनों इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की ओर जोरशोर से निशाना साधे हुए हैं। वजह बनी है मुंबई में आतंकी हमलों की नाटकीय रिपोर्टिंग.. डेढ़ दशक से ज्यादा वक्त से प्रिंट माध्यमों को भस्मासुरी अंदाज में पटखनी देते आ रहे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की इस नाटकीयता ने प्रिंट को अच्छा-खासा मौका दे दिया है। आलोचनाओं और कटघरे में खड़ा करने का दौर जारी है और इलेक्ट्रॉनिक माध्यम अपना मुंह छुपाने को मजबूर हो गया है। उदारीकरण और बाजारवाद के दौर में जिस तरह अंधाधुंध टीवी का विस्तार हुआ है – उसमें बौद्धिकता के लिए खास गुंजाइश और जगह नहीं रही..लिहाजा टीवी माध्यम सहज ही बुद्धिजीवी वर्ग के निशाने पर आ गया है। इसके साथ ही इस माध्यम को गैर जिम्मेदार ठहराए जाने का दौर तेज हो गया है। चूंकि प्रभावशाली प्रिंट मीडिया और बौद्धिक तबका इस आक्रमण अभियान में शामिल है – इसलिए सरकार को भी मौका मिल गया है और उसने कुछ चैनलों को कारण बताओ नोटिस जारी करने में देर नहीं लगाई।
टीवी को गैर जिम्मेदार ठहराए जाने के बीच इसकी असल वजहों पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। टीवी वाले नाटकीय और सनसनीखेज रिपोर्टिंग के लिए जिम्मेदार तो हैं – इसे अब टेलीविजन के न्यूजरुम में काम करने वाले लोगों का एक बड़ा वर्ग भी मानने लगा है। इसके बावजूद ना सिर्फ मुंबई हमले – बल्कि दूसरी ऐसी घटनाओं की भी ऐसी रिपोर्टिंग जारी है। इस मसले पर पूरी पड़ताल करने से पहले एक बार हमें समानांतर सिनेमा के दौर में जारी साहित्य और सिनेमा के आपसी रिश्ते और उसे लेकर जारी विवाद को भी याद कर लेना जरूरी होगा। पिछली सदी तीस के दशक में हिंदी कहानी के सबसे महत्वपूर्ण शिल्पकार प्रेमचंद ने मायानगरी में नया कैरियर बनाने को लेकर पांव रखे थे – लेकिन उन्हें मायावी दुनिया रास नहीं आई और वे बनारस लौट आए थे। पचास के दशक में मुंबई गए अमृतलाल नागर का भी वैसा ही अनुभव रहा। ये बात है कि उन्हीं दिनों साहित्य की दुनिया से फिल्मी दुनिया में गए पंडित नरेंद्र शर्मा ने साहित्य से इतर फिल्मी दुनिया में नया मुकाम रचा। सातवें दशक में यही काम कमलेश्वर ने किया। लेकिन प्रेमचंद और अमृतलाल नागर के दौर में सिनेमा को लेकर साहित्यिक हलकों में जो पूर्वाग्रह पनपा – वह कमोबेश आज भी जारी है। शायद यही वजह है कि कमलेश्वर रहे हों या फिर नरेंद्र शर्मा ...उन्हें साहित्यिक जगत में वह सम्मान और आदर नहीं मिला – जिसके वे हकदार रहे। कुछ ऐसा ही संबंध आज आज प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के बीच भी है। इसीलिए जब भी टेलीविजन की दुनिया में मुंबई जैसी घटनाओं की गैरजिम्मेदार रिपोर्टिंग होती है – पूरा का पूरा प्रिंट माध्यम उस पर पिल पड़ता है।

ऐसा नहीं कि 27 नवंबर 2008 को हुए मुंबई हमले की ही टीवी ने अतिरेकी रिपोर्टिंग की। 13 दिसंबर 2001 को संसद पर हमले की भी ऐसी ही रिपोर्टिंग हुई। जयपुर और अहमदाबाद धमाके को लेकर भी इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों ने ऐसा ही कदम उठाया। आलोचना तब भी हुई – लेकिन इस बार ज्यादा बावेला इसलिए मचा है – क्योंकि एक चैनल ने ना सिर्फ एक कथित आतंकवादी का फोनो चलाया। बल्कि अपने इस काम को सही साबित करने की कवायद में भी जोरशोर से जुट गया है। ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि कोई आतंकवादी किसी चैनल पर आकर ये प्रस्ताव रखे कि वह देश को उड़ाने या प्रधानमंत्री पर ही हमला बोलने का ऐलान करने वाला है तो क्या उसे टीवी अपना स्टूडियो और अपना पैनल कंट्रोल रूम इसके लिए मुहैय्या कराएगा। सवाल ये भी है कि क्या किसी पत्रकार के पास किसी मासूम लड़की या महिला से बलात्कार का फुटेज है तो उसे भी बिना सेंसर्ड और बिना संपादन दिखा दिया जाएगा। करीब छह साल पहले आगरा में एक अध्यापिका का उसके ही कुछ छात्रों ने बलात्कार किया। इसकी फुटेज किसी के पास क्या होती। लेकिन अपने दर्शकों को ये घटना दिखाने के लिए एक प्रमुख चैनल ने बाकायदा इस रेप कांड का नाट्यरूपांतरण कराया और उसे खबर में वांछित जगह पर संपादित करके चलाया भी। उसका भी तब विरोध हुआ था।
टेलीविजन चैनलों में एक वर्ग ऐसा भी है – जिसका मानना है कि खबर की सच्चाई दिखाने के लिए उसका ये कदम जायज है। इसी आधार पर 2004 में गुजरात के एक खास संप्रदाय के साधुओं की यौनलीला को एक चैनल ने बाकायदा बिना किसी संपादन के दिखाया था। लेकिन हकीकत ये थी कि न्यूज रूम में काम करने वाले अधिकांश पत्रकार इससे सहमत नहीं थे। महिला पत्रकारों की न्यूज रूम में हालत क्या थी – उसे ही पता है, जो उस समय न्यूज रूम में था।
बहरहाल जो ये चैनल मान रहे हैं कि सच्चाई के लिए ये सारी चीजें उन्हें दिखाने का हक है । पत्रकारिता में बुराई को उजागर करने के लिए बुराई को ज्यों का त्यों दिखाने का एक वर्ग तेजी से इन दिनों बढ़ा है। बुराई दिखाई जाए..उसे लेकर दर्शकों और पाठकों का आगाह किया जाए- इससे शायद ही किसी को एतराज होगा। लेकिन इसकी सीमा क्या होगी – यह तो कहीं न कहीं उन्हें तय करना ही होगा। अन्यथा उन्हें अमेरिका के नैकेड न्यूज नामक चैनल को भी दिखाने से गुरेज नहीं होगा। इंटरनेट पर भी वह चैनल मौजूद है। नेकेड न्यूज नाम के इस चैनल के सारे एंकर बिल्कुल नंगे इंटरव्यू लेते या लेती हैं। खबरें भी नंगे बदन ही पढ़ी जाती हैं। दरअसल बहस और आलोचना की वजह भी यही है कि अगर ऐसा किया गया तो औरों से अलग और बौद्धिक दिखने वाले पत्रकार वर्ग और बाकी लोगों के विवेक में फर्क कहां रह जाएगा।
मार्च 2002 में गुजरात दंगों में खुलेआम लोगों को जलाने की घटनाओं की रिपोर्टिंग को लेकर भी विवाद हुआ था। लेकिन तब इसकी मुखालफत नहीं हुई थी। प्रिंट मीडिया और बुद्धिजीवियों के एक बड़े वर्ग ने इसका समर्थन किया था। इसकी रिपोर्टिंग करने वाले लोगों ने तब के विरोधियों के तर्कों को सिरे से खारिज कर दिया था। विरोधियों का तर्क था कि इससे हिंसा को और बढ़ावा मिला। लेकिन मुंबई पर आतंकी हमले के बाद चीजें बदल गईं हैं। पूरे देश में इस घटना को लेकर विरोध के सुर उठ रहे हैं। लिहाजा टीवी में काम करने वाले लोगों का बड़ा तबका इस घटना को लेकर रक्षात्मक बना हुआ है।
मुंबई हमले पर टीवी ने क्या – क्या किया...इसे तकरीबन पूरे देश ने देखा है। कुछ लोगों का सवाल है कि ताज होटल से छुड़ाए गए बंधकों से टीवी वालों ने पूछा कि आपको कैसा लग रहा है। प्रिंट के कई दिग्गजों ने इसकी भी आलोचना की है कि टीवी पत्रकारों ने सामान्य शिष्टाचार का ध्यान नहीं रखा और बदहवास लोगों का इंटरव्यू करने या उनकी बाइट लेने के लिए दौड़ पड़ा। ये सच है कि टीवी वाले इस सवाल का प्रतिकार नहीं कर रहे हैं – लेकिन क्या यह कार्य इतना गिरा हुआ है कि इसकी आलोचना की जाए। क्या किसी सार्वजनिक माध्यम का यह दायित्व नहीं बनता कि वह दुनिया को यह बताए कि आतंकी हमले के दौरान ताज होटल के अंदर क्या हो रहा था और इसका आंखों देखा हाल बताने के लिए बंधकों के अलावा और दूसरा कौन हो सकता है। ऐसे सवाल तो प्रिंट के पत्रकार भी पूछ रहे थे और केस हिस्ट्री तो अगले दिन के अखबारों में भी इंटरव्यू और बंधकों की आपबीती के रूप में भरी पड़ी थी। लेकिन उस पर सवाल तो नहीं उठा।
यह सच है कि टीवी की अतिरेकी रिपोर्टिंग से शुरू में आतंकियों को मदद मिली। यह गलती इतनी बड़ी है – जिससे इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों को सबक लेना चाहिए। लेकिन कभी किसी ने ये जानने की कोशिश नहीं की कि टीवी के न्यूज रूम में आखिर ऐसा क्यों होता है। ये सच है कि टीवी रिपोर्टर इस दौरान हर गतिविधि पर नजर गड़ाए हुए थे। पल-पल की खबरें अपने पैनल कंट्रोल रूम को भेज रहे थे। लेकिन ये भी उतना ही सच है कि इसे जनता को दिखाने- अपने चैनल पर चलाने और न चलाने का फैसला उनके आका ले रहे थे। टेलीविजन न्यूज रूम का आज के दौर में जैसा विकास हुआ है और टीआरपी की गलाकाट प्रतियोगिता पर जिस तरह बाजार और विज्ञापनों की दुनिया टिकी हुई है – उसके चलते न्यूज रूम का कोई आका अगर दूसरे चैनल पर ऐसी रिपोर्टिंग दिख गई तो अपने चैनल पर साया करने से रोकने का दुस्साहस नहीं कर सकता। टीवी न्यूजरूम के प्रमुख लोगों की निगाह अपने प्रतिद्वंद्वी चैनलों पर लगी रहती है। अगर सामने वाले चैनल के रिपोर्टर ने अतिरेकवादी भूमिका निभाई तो न्यूज रूम में दहाड़ सुनाई देने लगती है। रिपोर्टर और कैमरामैन को मोबाइल पर निर्देश दिए जाने लगते हैं कि वैसा ही कुछ करके दिखाओ – जैसा सड़क पार या पड़ोस का चैनल करके दिखा रहा है। यही वजह है कि एक दौर में ताज की रिपोर्टिंग कर रही सभी टीमों के रिपोर्टर सोकर रिपोर्टिंग करते दिखे। जबकि उनके कैमरा मैन पहले की ही तरह खड़े थे। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या गोली लगने का खतरा सिर्फ रिपोर्टरों को था और कैमरामैन बुलेटप्रूफ पहनकर महफूज थे। निश्चित रूप से इसका जवाब ना में है। अगले दिन के अखबारों में ये पूरी की पूरी तस्वीर छपी भी और आम लोगों तक ये नाटकीयता पहुंची भी। इन तस्वीरों ने भी टीवी रिपोर्टिंग को लेकर सवाल उठाने का मौका दिया।
लेकिन इस पूरी आलोचना और बहसबाजी के दौर में टेलीविजन न्यूज रूम के असल संकट पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। एक-दो दशक पहले तक जो लोग पत्रकारिता में आ रहे थे – उनके सामने दुनिया को बदलने और कुछ कर दिखाने का जज्बा हुआ करता था। लेकिन बाजारवाद के दौर में ये हकीकत बदल गई है। टीवी के लोग खुद को पत्रकार भले ही कहें – लेकिन एक पूरी की पूरी पीढ़ी अब नौकरी करने आई है। गली-मोहल्ले के पत्रकारिता संस्थानों से लाखों रूपए की फीस देकर कथित पढ़ाई के बाद निकले नए लड़के-लड़कियों का नजरिया साफ है। उनका मानना है कि वे नौकरी करने आए हैं – पत्रकारिता करने नहीं। शायद यही वजह है कि उन्हें जब भी पत्रकारिता के नाम पर पत्रकारीय मानदंडों की अवहेलना करने को कहा जाता है, वे वैसा करने में देर नहीं लगाते। लाखों रूपए के कर्ज की रकम पर मिली शिक्षा से निकले पत्रकार ने दम दिखाया तो उसकी नौकरी जा सकती है।
रही बात न्यूज रूम के आकाओं की तो उनकी भी हालत कुछ बेहतर नहीं है-सिवा मोटी पगार के। नौकरी पर लगातार लटकी तलवार के चलते वे भी पत्रकारीय दंभ और मानदंड पर कायम रह नहीं पाते। टीआरपी गिरी नहीं कि नौकरी पर लटकी तलवार और नजदीक हुई। बाजारवाद ने लोगों के सामने आदर्शों के लिए जगह नहीं छोड़ी। ऐसे में चाहे लाख सवाल उठे – होना तो वही है जो बाजार चाहता है। टीवी पर सवाल उठाना कुछ वैसा ही है – जैसे बाजार में रहकर बाजार का विरोध...

दरअसल हर पेशे की एक नैतिकता भी होती है। आजादी के आंदोलन की कोख से निकली भारतीय पत्रकारिता के लिए पहले इसकी जरूरत नहीं रही। आजादी के आंदोलन का पत्रकारिता भी एक उपादान रही है। चूंकि तब पत्रकारिता का मकसद आजादी पाना था, इसलिए उसमें राष्ट्रीय आंदोलन की वे सारी चीजें समाहित हो गई थीं – जिसके बल पर राष्ट्रीय आंदोलन ने गति पकड़ी और उफान पर रहा। आजादी के बाद के करीब एक दशक तक पत्रकारिता उसी रोमांसवाद से प्रभावित रही। लेकिन नब्बे के दशक में शुरू हुए बाजारवाद के दौर में पत्रकारिता ने अपनी इस नैतिक जिम्मेदारी से पल्ला छुड़ाना शुरू किया। चूंकि टेलीविजन इस बाजारवाद के दौर में ही पनपा, उभरा और विराट बना, इसलिए उसने बाजारवाद की तमाम खासियतें बेरोकटोक खुद में समाहित कर लीं। अखबार में संपादकीय टीम की मीटिंगों में जहां महंगाई, कानून-व्यवस्था और सुरक्षा की बदहाली सबसे बड़ा मुद्दा रही हैं – टेलीविजन न्यूज रूम की मीटिंगों में नए ब्रांड के कपड़े, फैशन शो और कार की गिरती-बढ़ती कीमतों का मसला छाया रहता है। वैसे टीवी पर सवाल उठाने वाले प्रिंट माध्यमों की बैठकों में धीरे-धीरे ही सही – टीवी का ये रोग आता जा रहा है। रही – सही कसर टैम रेटिंग प्वाइंट यानी टीआरपी की माया ने पूरी कर दी है। टैम का जो पैमाना है – उस पर भी बाजारवाद की चीजें ही हावी हैं। ऐसे में ये सोचना कि इस व्यवस्था पर टिका टेलीविजन उद्योग और उसके पत्रकार पेशेवर नैतिकता के तहत ही काम करेंगे – बिल्कुल बेमानी है।
वकालत, इंजीनियरिंग और डॉक्टरी जैसे पेशों की नैतिकता निर्धारित करने , उनकी आचार संहिता बनाने के लिए बार कौंसिल और मेडिकल कौंसिल जैसे संगठन हैं। लेकिन मीडिया के लिए ऐसा कोई पेशेवर संगठन नहीं है – जिसके जरिए पत्रकारों को नैतिक दायरे में बांधे रखने का काम किया जा सके। मुंबई हमलों के बाद एक बार फिर से मीडिया के लिए ऐसे ही एक पेशेवर संगठन की जरूरत बढ़ती जा रही है। ताकि वह मीडिया और उसमें काम करने वाले लोगों के लिए एक मानदंड तय करे। उनकी आचार संहिता तय करे और उसे लागू करने की नैतिक जिम्मेदारी भी उठाए। सूचना और प्रसारण मंत्री रहते सुषमा स्वराज ने 2002 में मीडिया कौंसिल के गठन का सवाल जब उछाला था – तब इसका ना सिर्फ इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों और घरानों ने भी विरोध किया था। पत्रकारों का एक तबका तो खैर आगे था ही। लेकिन अब इसे लेकर भी सहमति बनती दिख रही है। टीवी पत्रकारों का एक बड़ा तबका भी मानने लगा है कि कम से कम उन्हें भी पेशेवर नैतिकता और आचारसंहिता के दायरे में बंधना ही होगा। पेशेवराना अंदाज को जब तक संरक्षण नहीं दिया जाएगा, टीआरपी के बाजारवादी पैमाने बदले नहीं जाएंगे..टीवी माध्यमों को नैतिकता और देशहित के नाम पर जिम्मेदार ठहराना आसान नहीं होगा। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि आचार संहिता बनाने की वकालत करने वाले दिग्गज पत्रकार और राजनेता इस मोर्चे पर सचमुच तैयार हैं।

1 टिप्पणी:

sarita argarey ने कहा…

आलेख संपूर्ण है । इसमें नया कुछ जोडने की गुंजाइश ही नहीं छोडी आपने । हर नये के साथ संभावनाएं जुडी होती हैं और चुनौतियां भी । इनसे निकलने का रास्ता भी इन्हीं कठिनाइयों से गुज़र कर आता है । देखना है इलेक्ट्रानिक मीडिया मंदी की मार और पेशागत चुनौतियों का मुकाबला किस खूबी से करता है ।