सोमवार, 20 अक्तूबर 2008

निशाने पर रिपोर्टर ...


खबरिया चैनलों की बढ़ती दुनिया में पत्रकारिता में कैरियर बनाने की इच्छा रखने वाले नौजवानों को सिर्फ और सिर्फ चमक-दमक ही नजर आती है। लेकिन इसके पीछे भी एक स्याह और मटमैली दुनिया है। रिपोर्टरों की मजबूरी है कि वे घटना का सीधा कवरेज करें। ना करें तो बॉस की गालियों की बौछार उसका दफ्तर में स्वागत करती है। घटनास्थल पर अमर सिंह जैसे दोमुहें नेताओं को कवर करें तो ओखला जैसी घटनाएं सामने आती है। टेलीविजन की दुनिया की इसी स्याह -सफेद तस्वीरों पर नजर डाल रहे हैं जी न्यूज के वरिष्ठ संवाददाता विनोद अग्रहरि
अठारह अक्टूबर की सुबह टीवी पर ब्रेकिंग न्यूज़ चल रही थी। ख़बर किसी और के बारे में नहीं, ख़ुद ख़बर देने वालों के बारे में थी। जामिया नगर में कई पत्रकारों पर भीड़ ने हमला बोल दिया। कुछ टीवी रिपोर्टर घायल हुए, कैमरामैनों को चोटें आईं। एक अगवा चैनल ने ख़बर को ज़ोर-शोर से उछाला जिसका अपना रिपोर्टर भी ज़ख्मी हुआ था। चैनल ने ख़बर दिखाने और पत्रकारों पर हमला करने वालों की जमकर मज़म्मत भी की। पत्रकार जामिया नगर में अमर सिंह की सभा को कवर करने गए थे। सभा ख़त्म होने के बाद जब वो अमर सिंह से जवाब-तलब कर रहे थे, तो वहां मौजूद स्थानीय नेता के समर्थकों को पत्रकारों के सवाल आपत्तिजनक लगे और उन्होंने पत्रकारों की धुनाई कर दी। तो ये है आज की पत्रकारिता का सूरते हाल।
वैसे ये पहली मर्तबा नहीं है, जब पत्रकारों पर हमले हुए हैं। अगर सिर्फ हालिया घटनाओं का ज़िक्र करें तो भी पिटने वालने पत्रकारों की एक लिस्ट तैयार की जा सकती है। ख़ासकर टीवी पत्रकार (रिपोर्टर और कैमरामैन) आए दिन लोगों के गुस्से का शिकार हो रहे हैं। लोगों का गुस्सा पूरे मीडिया जगत के ख़िलाफ होता है, लेकिन ज्यादातर हाथ लगते हैं टेलीविजन रिपोर्टर और कैमरामैन। ज़ाहिर है मीडिया का यही दोनों वर्ग लोगों से सबसे ज़्यादा सीधे तौर पर जुड़ा हैं, इसलिए मीडिया के ख़िलाफ बन रही आबोहवा का शिकार इन्हीं दोनों को होना पड़ रहा है। आज मीडिया के बारे में लोगों की सोच कितनी तेज़ी से बदल रही है, इसका सही जवाब या तो ख़ुद लोग दे सकते हैं, या फिर वो रिपोर्टर जो ख़बरों की कवरेज के लिए उनके पास जाता है। कई जगहों पर उसे लोगों की गालियां सुननी पड़ती है, बेइज्जत होना पड़ता है। कई बार मार खाने की नौबत आ जाती है। अगर रिपोर्टर विवेक से काम न लें तो हड्डियों का नुकसान हो सकता है।
इस नुकसान का ख़तरा सबसे ज़्यादा होता है टीवी में काम करने वाले सिटी और ‘जूनियर’ क्राइम रिपोर्टरों को। इन्हें प्रेस कॉन्फ्रेंस या पीआर टाइप स्टोरी करने का तोहफा नहीं मिलता। लोकेशन पर पहुंचने पर इनका कोई स्वागत नहीं करता, बिज़नेस कार्ड नहीं मांगता, बल्कि इन्हें बड़ी हिकारत की नज़र से देखा जाता है। ‘आ गए मीडिया वाले……..इन्हें तो बस मसाला चाहिए......टीवी पर तो ऐसे दिखाते हैं’ ......ऐसे ही कई चुभाने वाले तीर आते ही उन पर छोड़े जाते हैं। अब तो फिल्मों में भी रिपोर्टरों पर मज़ाक उड़ाने वाली लाइनें लिखी जाने लगी हैं। लेकिन रिपोर्टर अपना काम तो छोड़ नहीं सकता। जल्द ही उसे इन सबकी आदत पड़ जाती है और वो भीड़ में से ही किसी काम के शख्स की पहचान कर ख़बर की डीटेल लेनी शुरु कर देता है। घटना बड़ी हुई तो उसकी दिक़्क़त बढ़ जाती है। चुनौती अब ख़बर को ज़ोरदार बनाने की होती है। इसके लिए पीड़ित की बाइट जैसी अनिवार्य चीज़ें चाहिए होंगी। उसका जुगाड़ कैसे होगा, ...’वो तो किसी से बात भी नहीं कर रहे। क्या किया जाए, इसी उधेड़बुन में वो लगा रहता है। काम तो किसी तरह हो जाता है, लेकिन मन में एक अजीब सी अकुलाहट होती है, जिसे ख़ुद वही रिपोर्टर समझ सकता है। शायद उससे कहीं ज़्यादा एक्सपीरिएंस रखने वाला उसका बॉस भी नहीं। उनके दौर में हाल क्या रहा होगा, ये तो वही बेहतर जानते होंगे, लेकिन कहना ग़लत न होगा कि तब और अब की पत्रकारिता में जो महत्वपूर्ण बदलाव हुए हैं, उनमें से ये एक है।
कम से कम दिल्ली में तो मीडिया के प्रति लोगों का नज़रिया काफी बदला है। कभी टीवी रिपोर्टर जैसी उपाधि पर गर्व करने वालों के लिए आज कई जगहों पर अपनी पहचान छिपानी ज़रूरी हो जाती है। दिल्ली के महरौली बम धमाके की कवरेज करने गए एक शीर्ष न्यूज़ चैनल के रिपोर्टर को सिर्फ इसलिए अपना आई कार्ड अंदर रखना पड़ा क्योंकि उसी वक़्त उसके चैनल में चल रही एक ख़बर से स्थानीय लोग भड़क गए थे। अगर उसने फौरन वहां से भाग निकलने की समझदारी न की होती, तो भीड़ उस पर कोई भी क़हर बरपा सकती थी। दु:ख की बात ये है कि लोगों का ये रिएक्शन शायद चैनलों की दशा और दिशा तय करने वालों तक उतनी अच्छी तरह से नहीं पहुंच पा रहा, और अगर पहुंच भी रहा है तो वो इसके प्रति संजीदा नहीं है। आज अगर किसी मुद्दे पर आम लोगों की प्रतिक्रिया ‘वॉक्सपॉप’ लेना हो, तो रिपोर्टर ही जानता है कि उसे कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं। मीडिया से बात करने के लिए बड़ी मुश्किल से लोग तैयार होते हैं। वो दिन अगर बीते नहीं तो बहुत कम बचे हैं जब मीडियावाले लोगों की आंखों के तारे हुआ करते थे। आज तो लोगों को मीडिया तब अच्छी लगती है, जब उन्हें उसका इस्तेमाल करना हो। पड़ोसी से झगड़ा हुआ तो मीडिया बुला ली। एमसीडी ने अतिक्रमण हटाया तो चैनल के असाइनमेंट पर फोन कर दिया कि बदमाशों ने घर तोड़ दिया। शायद अब लोगों के लिए मीडिया की अहमियत इतनी ही रह गई है।
लेकिन इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है? मेरे ख़्याल से उनका नंबर तो कहीं बाद में आता है जो लोगों की नज़र में इसके लिए ज़िम्मेदार माने जाते हैं। आम धारणा यही है कि रिपोर्टर ही चैनल में ख़बर देता है और जो कुछ दिखाई देता है, अच्छा या बुरा, उसी की वजह से होता है। मगर टीवी में काम करने वाला जानता है कि हक़ीक़त क्या है। चैनल की पॉलिसी से लेकर दिन भर की ख़बरों का खाका तैयार करने में उसका अंशदान कितना है, ये टेलीविज़न में काम करने वाला समझ सकता है। तो फिर लोगों के गुस्से का शिकार अकेले निरीह रिपोर्टर और कैमरामैन ही क्यों हों?