शनिवार, 19 अप्रैल 2008

संपादकों की औकात, खुशवंत की जुबानी

बात बहुत पुरानी नहीं है, जब हमारे यहां अख़बार इस लिए जाने जाते थे कि उनके संपादकों का कद कितना बड़ा है। ब्रिटिश राज के वक्त तो कई सरकारी अख़बारों, जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया और स्टेट्समैन के संपादकों को नाइटहुड की उपाधि तक से सम्मानित किया गया। आजादी के बाद भी अख़बारों के एडिटर को समाज में काफ़ी सम्मान प्राप्त था। फ्रेंक मोरेस, चलपति राव, कस्तूरी रंगन अयंगर, प्रेम भाटिया आदि नामों से पाठक भली भांति परिचित थे। अस्सी के दशक में टाइम्स ऑफ़ इंडिया के संपादक रहे दिलिप पदगांवकर का तो यहाँ तक कहना था कि देश में प्रधानमंत्री के बाद सबसे महत्वपूर्ण काम उन्हीं के ज़िम्मे है। सरकार के ग़लत नीतियों की सकारात्मक आलोचना विपक्ष से नहीं बल्कि इन्ही काबिल संपादकों के बदौलत होती थी।


लेकिन टेलीविजन के आते ही हालात बदलने लगे। जो चीजें टीवी के परदे पर दिखने लगी, उसे लोग पढ़ने की जहमत नहीं उठाना चाहते थे। संपादकीय पढ़ने वालों की तादाद घटती गई। अख़बारों के मालिकान यह सोचने लगे कि संपादक नाम का प्राणी तो बोझ है और उनके बिज़नेश मैनेज़र ही टेलीविजन की चुनौतियों का बेहतर ढ़ंग से सामना कर सकते हैं। जरूरत थी तो सिर्फ़ छड़हरी बदन वाली मॉडलों, गॉशिप, विंटेज वाईन और लज़ीज़ व्यंजनों से अख़बारी पन्नों को भर देने की। और इस फार्मूला को चार फ से परिभाषित किया गया - फिल्म, फैशन, फुड और फक द एडिटर (पता नहीं हिंदी में इसका मतलब क्या हो सकता है!)। अपने जमाने के कई मशहूर कलमकार (संपादक) चौथे फ यानि फक द एडिटर के शिकार हो गए। इनमें से कुछ के नाम काबिल-ए-गौर है - फ्रेंक मोरेस (द नेशनल स्टैंडर्ड जो बाद में इंडियन एक्सप्रेस बना), गिरिलाल जैन (टाइम्स ऑफ इंडिया), बी जी वर्गिज़ ( मैग्सेसे पुरस्कार विजेता - टाइम्स ऑफ इंडिया), अरुण शौरी (इंडियन एक्सप्रेस), विनोद मेहता (वर्तमान संपादक ऑउटलुक), इंदर मलहोत्रा (टाइम्स ऑफ इंडिया), प्रेम शंकर झा (हिंदुस्तान टाईम्स)। आज अगर आप पूछें कि टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाईम्स या फिर टेलिग्राफ के संपादक कौन हैं, दस में से नौ लोग शायद न बता पाएं। दिलिप पदगांवकर.....ये कौन है?


दरअसल,भारतीय पत्रकारिता की यह विडंबना है कि यहाँ मालिकान संपादक से ज्यादा अहमियत रखते हैं। पैसा, प्रतिभा पर भारी पड़ती है। पैसे के इस खेल में सबसे ताजा उदाहरण एम जे अकबर का दुर्भाग्यापुर्ण तरीके से एशियन ऐज़ से निकाला जाना है। अकबर, शायद जुझारू पत्रकारीय विरादरी के सबसे काबिल सदस्य हैं। उन्होंने कलकत्ता से निकलने वाले आनंद बाजार पत्रिका ग्रुप के सहयोग से संडे और टेलिग्राफ जैसी नामी अख़बार निकाला था। वे लोक सभा के लिए भी चुने गए और तक़रीबन आधे दर्जन किताबों के लेखक भी रहे हैं। पंद्रह साल पहले अपने कुछ मित्रों के साथ मिलकर उन्होंने द एशियन एज का प्रकाशन शुरु किया था। यह एक कठिन कार्य था और अकबर ने इसे बख़ूबी से अंजाम दिया। एशियन एज़ भारत के लगभग हर मेट्रो से साथ ही लंदन से भी छपने लगा। इस अख़बार में नाम मात्र का विज्ञापन होता था लेकिन पठनीय सामग्री काफी मात्रा में थी-जो नामी ब्रिटिश और अमरीकन अखबारों से भी ली जाती थी।कुल मिलाकर यह एक मुकम्मल अखबार था।इसके आलावा, इसमें ऐसे भी लेख छपते थे जो हुक्मरानों को नागवार गुजरते थे।और शायद यहीं वजह थी जिसने अखबार में अकबर के व्यवसायिक पार्टनर को नाराज कर दिया, क्योंकि इससे उनकी राजनीतिक आकांक्षा को ठेस पहुंच रही थी।बस फिर क्या था-बिना किसी चेतावनी के ही अकबर को एशियन एज के मुख्य संपादक के पद से हटा दिया गया ।पैसे ने एक बार फिर से अपना नग्न और घिनौना चेहरा सामने दिखा दिया। यह कहना अभी मुश्किल है कि बदले में अब अकबर उस आदमी के साथ क्या करेंगे जिन्होने उनके और पत्रकारिता दोनों के साथ बड़े ही अपमानजनक व्यवहार किया। लेकिन अकबर को यह वाकया लंबे समय तक जरुर सालता रहेगा। वो अभी सिर्फ सत्तावन साल के हैं और न तो किसी घटना को भूलते हैं न ही अपने विरोधियों को माफ करते हैं।


जब मैं इलिस्ट्रेटेड वीकली का संपादन कर रहा था तब अकबर उस छोटी सी टीम का हिस्सा थे जिसकी मदद से इलिस्ट्रेटेड वीकली का प्रसार 6,000 से बढ़कर 400,000 तक जा पहुंचा था। यह कितनी बड़ी बिडंवना है कि मुझे भी उसी तरीके से उस पत्रिका से निकाल दिया गया जिस तरीके से अकबर को इस साल एशियन एज से। तब तक टाइम्स ऑफ इंडिया समेत बेनेट कोलमेन के तमाम प्रकाशनों का मालिकाना हक सरकार द्वारा जैन परिवार को सौंपा जा चुका था। ज्योंही जैन परिवार ने कमान अपने हाथ में ली, उन्होने मेरे काम में अड़ंगा डालना शुरु कर दिया। मेरे करार को खत्म कर दिया गया और मेरे उत्तराधिकारी की घोषणा कर दी गई। मुझे एक सप्ताह के भीतर इलिस्ट्रेटेड वीकली छोड़ देना था। मैंने वीकली के लिए भारी मन से भावुक होकर अपना आखिरी लेख लिखा और पत्रिका के भविष्य की सुखद कामना की। लेकिन वो कभी नहीं छपा। जब मैं सुबह अपने ऑफिस में आया तो मुझे एक चिट्ठी थमा दी गई और तत्काल चले जाने को कहा गया। मैंने अपना छाता लिया और घर वापस आ गया। मुझे बड़े ही घटिया तरीके से ज़लील किया गया। यह अभी भी रह-रह कर मुझे परेशान करता है। जैन परिवार द्वारा किया गया वह अपमान मैं आज तक नहीं भूल पाया हूं। आज भी मेरे सम्मान में जब कोई समारोह होता है-भले ही उसकी अध्यक्षता अमिताभ बच्चन, महारानी गायत्री देवी या खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ही क्यों न करें-उसकी रिपोर्ट तो टाइम्स ऑफ इंडिया में छपती है लेकिन उसमें न तो मेरा फोटो छपता है न ही नाम होता है।और यह उदाहरण साबित करता है कि पैसा और सत्ता के मद में चूर छोटे दिमाग बाले आदमी कैसे हो सकते हैं।

खुशवंत सिंह

(किस्सागोई से साभार)

बधाई हो यशवंत जी

वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार यशवंत व्यास को केके बिड़ला फाउंडेशन की ओर से 17 अप्रैल, 08 को श्री बिहारी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। जयपुर में आयोजित एक समारोह में राजस्थान के राज्यपाल एसके सिंह ने उन्हें लाख रुपए नकद पुरस्कार और प्रशस्ति पत्र दिया। यह पुरस्कार व्यास को उनके उपन्यास कामरेड गोडसे के लिए दिया गया है। उपन्यास पत्रकारिता के अनुभवों के आधार पर व्यंग्य-रूपक शैली में लिखा गया है। यशवंत व्यास दैनिक भास्कर समूह की पत्रिका अहा जिंदगी के संपादक हैं।

और शहीद हो गया एक मीडिया कर्मी !

19.4.08

प्रति,

श्री अरूण आनंद,
कार्यकारी संपादक
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस,
1बी-, रावतुला राम मार्ग,
नई दिल्ली-110022ण्

महाशय,
कल रात दिनांक 10 मार्च 2008 को डेस्क प्रभारी संजीव स्नेही जी का फोन आपके हवाले से आया कि मैंने कहीं अन्य जगह नौकरी कर ली है। उन्होंने आपके हवाले से यह भी कहा कि मैं इस्तीफा दूं। इस बावत मुझे कार्यालय से नोटिस भेजे जाने की भी तैयारी हो रही है। मेरे बीमार पड़ने से और छुट्टी पर जाने से नये लोगों पर नकारात्मक असर पड़ेगा। संजीव जी से कल रात 10-15 मिनटों की बात के कुछ मुख्य बातों में से यह बातें सार हैं।

बीमार पड़ने पर कुछ दिनों की छुटि्टयां लेकर घर में आराम करने से किसी को नौकरी मिल जाती हो तो मेरे ख्याल से हम और आप सभी बीमार पड़ते रहे हैं। आपको भी कुछ समय पहले कमर में दर्द था और आपने छुट्टी की थी तो क्या आप भी कहीं नौकरी का प्रयास तो नहीं कर रहे थे! कोई पत्रकार इतना संवेदनाविहीन कैसे हो सकता है! खैर, आपने मुझसे इस्तीफे की मांग की है। मैं आपकी इस मांग को पूरा कर रहा हूं और त्याग-पत्र भेज रहा हूं।

मैंने इंडो-एशियन न्यूज सर्विस की हिन्दी सेवा में लगभग सवा तीन महीने काम किए परंतु दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि मुझे इस दौरान कभी भी आपके संस्थान में काम करने का उचित माहौल महसूस नहीं हुआ। हिन्दी सेवा के कार्यकारी संपादक अरूण आनंद को अपने साथ काम करने वाले पत्रकार कर्मचारियों के साथ कभी भी मुफीद (उचित) व्यवहार करते हुए मैंने नहीं पाया। कार्यकारी संपादक का स्वभाव बहुत हद तक व्यापारिक मानसिकता से ग्रस्त है। वह अपने साथ काम करने वालों को एक ग्राहक की तरह देखते हैं और उनसे ऐसा ही वर्ताव करते हैं। उन्हें खबरों की गिनती का बहुत शौक है। आप खबरों की गिनती में विश्वास करते हैं न कि गुणवत्ता में। साक्षात्कार के समय और नियुक्ति के कुछ दिनों बाद तक आप (अरूण आनंद) बहुत ही सहिष्णु बने रहते हैं और कर्मचारियों की नब्ज टटोलते हैं। इस संस्थान की अंग्रेजी सेवा में आपके एक जूनियर साथी की भाषा में कहूं तो कार्यकारी संपादक अपने सामने अपने कर्मचारियों को समर्पित करवाने चाहते हैं। माफ कीजिए, यह सब नौकरीपेशा में एक हदतक सभी को स्वीकार्य होता है लेकिन लंबे समय तक इस गुलाम बनाने की मनोवृत्ति को ढो पाना किसी भी गैरतमंद इंसान के लिए मुिश्कल होता है। इसके बहुत से नजीर माननीय अरूण जी के सेवाकाल में देखने को मिले हैं।

आईएएनएस से मेरी जानकारी में कुछ लोग मेरी नियुक्ति के पहले भी छोड़कर जाते रहे हैं या उन्हें छोड़कर जाने को बाध्य किया जाता रहा है। मेरे इन सवा तीन महीनों के दौरान भी चार लोगों ने इनके व्यवहार के कारण नौकरी छोड़ी है। हालांकि उन्होंने नौकरी छोड़कर जाने की कई घटनाओं के बाद अपनी शैली में परिवर्तन लाया है। यह उनकी जरूरत है। उम्मीद करता हूं कि यह नई शैली उनकी आदतों में शुमार हो जाए। यह दिक्कत श्रीमान कार्यकारी संपादक के अंदर किस कारण विकसित हुआ है, यह तो कोई मनोविश्लेषक ही बता सकता है। कार्यकारी संपादक का कहना है- ‘’journalism should flow in your blood.’’ क्या पत्रकारिता कार्यकारी संपादक की धमनी और िशराओं में बहने लगे तो उनके स्वास्थ्य पर इसका विपरीत असर तो नहीं पड़ेगा।

पत्रकारिता का लेना, देना केवल पैसों, नियुक्ति दे सकने का सामथ्र्य रखने, महज कुछ समर्थ लोगों से अपने संबंध बेहतर बनाकर रखने या खबरों की गिनती रखने से नहीं होता है। भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में पत्रकारिता की नींव रखने और उसे सींचने वाले लोगों का मन शायद इन क्षणिक महत्व रखनेवाली बातों में कभी नहीं गया था। पत्रकारिता को सींचने वाले लोगों में संवेदनाएं कूट-कूटकर भरी हुई थीं। कार्यकारी संपादक में इसका सर्वथा अभाव है। हमारे कहने से, लिखने से और संस्थान छोड़ देने से उनका हृदय परिवर्तित हो जाएगा, मैं ऐसा नहीं मानता हूं। माननीय कार्यकारी संपादक को इसके लिए बहुत मेहनत की जरूरत होगी ठीक उसी तरह जिस तरह मुझे अपनी कॉपी बेहतर से बेहतर बनाने के लिए कहा जाता रहा है। शायद इससे भी ज्यादा मेहनत की जरूरत होगी। मैं आपके व्यवहार के कारण बहुत पहले ही संस्थान छोड़ देता लेकिन मैं भागने वालों में से नहीं हूं। मैं आपसे मेेरी अपनी कॉपी के लिए अच्छे रिमार्क्‍स देने को मजबूर करवाना चाहता था। मेरी कॉपी के लिए आप ‘excelent copy’ कह चुके हैं। मैं अपनी चुनौतियों से पार पा गया हूं। अनुवाद विशेषकर खबरों का मेरे लिए नया काम था। नये काम में समय लगता है, सो मुझे भी लगा।

‘original copy’ आपके हिसाब से मैं बहुत अच्छी लिखता हूं। ऐसा डेस्क प्रभारियों ने भी कई मौकों पर कहा है। खैर, इसके लिए मुझे आपके प्रमाण-पत्र की जरूरत नहीं है। आपके साथ काम करते हुए मुझे दो बड़े संस्थानों ने आईएएनएस से बेहतर पगार और पद की पेशकश की थी लेकिन मैं अपनी चुनौतियों से पीछे नहीं हटना चाहता था। सो, मैंने इन प्रस्तावों को तव्वजो नहीं दी। आपने नियुक्ति के समय senior-sub editior की पेशकश की थी और बाद में जब नियुक्ति पत्र देने की बात आई तब आपने मेरा पद कम करके sub-editor कर दिया। अपनी बात से पीछे हटना आपकी फितरत है। नियुक्ति के समय 10-12 खबरों का अनुवाद तथा 8 घंटे काम करवाने की बात आपने की थी लेकिन दो हफ्तों के बाद आपने अपने काम करवाने की परिभाषा ही बदल डाली और मेरे एक सहकर्मी से कहा-``पत्रकारिता में कार्यालय आने का समय होता है लेकिन कार्यालय से जाने का कोई समय नहीं होता है।´´ मुझे लगता है कि कार्यकारी संपादक को working journalist act जरूर पढ़ लेना चाहिए।

आप बात-बात में लोगों को यह धमकी देते हैं कि यहां से नौकरी से निकाले जाने के बाद कहीं नौकरी नहीं मिलेगी। यह एक किस्म का फतवा है। आपने जिन लोगों को आईएएनएस से बाहर का रास्ता दिखाया है या बाहर का रास्ता देखने को मजबूर किया है, माफ कीजिए वे सारे लोग देश के नामी-गिरामी संस्थानों में अपनी बेहतर सेवा दे रहे हैं। कुछ लोग पत्रकारिता में व्यवहारिक होकर नौकरी खोजकर संस्थान छोड़कर चले गए। मैं नौकरी और भविष्य की चिंता किए बगैर आपकी नौकरी से इस्तीफा दे रहा हूं। पत्रकारिता में कुछ साल या बहुत साल बिताने से पत्रकारिता और मानवीयता की समझ नहीं आ जाती है। जिसको पत्रकारिता और मानवीयता की समझ आनी होती है उसे कुछ समय में ही आ जाती है। शायद मैं अपनी बात आपको समझा पाया हूं। इसी उम्मीद के साथ।

आपका शुभेच्छु
स्वतंत्र मिश्र
11 मार्च 2008
सी-1/118, मुस्कान अपार्टमेंट सेक्टर-17, रोहिणी, दिल्ली-110089, मो,-09868851301
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(कारवां से साभार)

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2008

टीआरपी क्या है बला !...2

उमेश चतुर्वेदी
यहां ये जान लेना जरूरी है कि टैम के किसी भी अधिकारी ने कभी-भी आधिकारिक तौर पर अपने इन डब्बों की जानकारी ना तो मीडिया को ना ही चैनलों को मुहैय्या कराई है। जबकि अखबारों की प्रसार और पाठक संख्या मापने के तौर –तरीकों की जानकारी इंडियन रीडरशिप सर्वे और नेशनल रीडरशिप सर्वे अखबारों को मुहैय्या कराते हैं।
अब ये जानने की कोशिश करते हैं कि टैम किस तरह चैनलों की रेटिंग तय करता है। टैम की रेटिंग में मनोरंजन, खेल, खबरिया और लाइफस्टाइल समेत हर तरह के चैनलों की रेटिंग गिनी जाती है। जहां टैम के डब्बे लगे हैं, उस परिवार में टैम का रेटिंग सिस्टम सिर्फ चार सदस्यों को मानता है। सबके हिस्से में एक-एक बटन होता है.. जब जो टीवी देखे, अपने हिस्से का बटन दबा दे। यहां ये सवाल उठता है कि कई बार अपना पसंदीदा चैनल परिवार का एक सदस्य देख रहा होता है। इसी बीच वह काम से उठ जाता है। और घर के दूसरे सदस्य बैठक में आ जाते हैं। उन्हें भी वह कार्यक्रम पसंद आता है। लेकिन वे बटन बदलते नहीं और पहले की ही तरह ये कार्यक्रम चलता रहता है। लेकिन टैम का पैमाना उसे एक ही हिट मानता है।
टैम ने चैनलों के बाजार को दो भागों में बांट रखा है। पहली श्रेणी में आते हैं एक लाख से दस लाख की जनसंख्या वाले शहर और इलाके, जबकि दूसरी श्रेणी में आते हैं दस लाख से ज्यादा जनसंख्या वाले शहर। महानगरों को इसी श्रेणी में रखा गया है। जिन राज्यों में टीआरपी के बक्से लगे हैं – उन्हें मोटे तौर पर इसी तरह दो हिस्सों में बांट रखा गया है। इसी वजह से हर हफ्ते उनकी स्थिति में बदलाव भी होता रहता है। इससे भी दिलचस्प बात ये है कि डीटीएच के बढ़ते विस्तार के इस दौर में उसके ग्राहक टैम की रेटिंग से वैसे ही गायब हैं- जैसे गधे के सिर से सींग। दूरदर्शन की टेरिस्ट्रियल प्रसारण सेवा यानी घरों तक इसकी सीधी पहुंच भी टीआरपी से दूर है। यानी टैम सिर्फ केबल देखने वालों से ही किसी कार्यक्रम की सफलता और असफलता की गणना करता है।
सबसे मजेदार ये है कि टैम मानता है कि उसका एक डब्बा पूरे मुहल्ले का प्रतिनिधित्व करता है। टैम ने गणना के लिए आम तौर पर 15 से 45 साल के बीच के लोगों को ही रखा है, यानी अपने पसंदीदा कार्यक्रम को देखते हुए टीआरपी का बटन सिर्फ इसी आयुवर्ग के लोग दबा सकते हैं। गिनती भी मिनट के हिसाब से की जाती है.. 'अ' ने 5 मिनट देखा, 'ब' ने 2 मिनट देखा, 'स' ने एक ही मिनट देखा और तब उस कार्यक्रम विशेष या टाइम स्लॉट की REACH निर्धारित की जाती है। फिर गिनती भी सिर्फ कार्यक्रम विशेष या टाइम स्लॉट की ही होती है, पूरे चैनल की नहीं। टीआरपी मापने के लिए समय को मौटे तौर पर तीन हिस्से में बांटा गया है.. सुबह 8 बजे से 4 बजे दिन तक, 4 बजे से रात 12 बजे तक(प्राइम टाइम) और रात 12 बजे से सुबह के 8 बजे तक।

रेटिंग प्वाइंट्स में सबसे बड़ा खेल मिनट का होता है.. इस रेटिंग प्वाइंट के मुताबिक अगर किसी कार्यक्रम को औसतन 5 मिनट देख लिया गया तो वो कार्यक्रम धन्य है.. मतलब उस कार्यक्रम की पहुंच इसी हिसाब से तय होती है कि कितने लाख घरों तक इस कार्यक्रम की पहुंच है। सबसे बड़ी बात ये कि हर दिन की रेटिंग अलग-अलग होती है। वैसे मोटे तौर पर ये तीन हिस्सों में होता है - सोमवार से शुक्रवार, शनिवार और रविवार।
जिन साप्ताहिक आंकड़ों के दम पर चैनल खुद को नंबर 1 या नंबर 2 होने का दम भरते हैं उसे जांचने का तरीका भी जान लेना मौजूं होगा। टैम का सॉफ्टवेयर हफ्ते भर की रेटिंग के लिए एक समय विशेष को चुनता है.. जैसे 7 बजे किस चैनल पर कितने लोग ट्यून्ड थे और इसके हिसाब से गिनती होती है। इस वक्त का चुनाव भी हर हफ्ते रैंडमली किया जाता है। अगर एक हफ्ते ये समय 7 बजे शाम का हो तो अगले हफ्ते ये समय 10 बजे रात का भी हो सकता है। टैम का दावा है कि उसका सॉफ्टवेयर हर मिनट की गिनती करता है। इसी आधार पर वह बता सकता है कि कितने बजे कितने लोग उसके डब्बे के बटन को दबाए हुए थे और उसके हिसाब से कितने लोग उस समय विशेष पर कौन सा चैनल देख रहे थे।
टैम की इस गिनती और आंकड़ेबाजी से सबसे बड़ा सवाल ये उठता है कि जिस देश में कम से कम आठ करोड़ घरों तक दूरदर्शन की सीधी पहुंच है। दूरदर्शन, डिश टीवी और टाटा स्काई समेत तमाम डीटीएच सर्विस प्रदाताओं के चलते डीटीएच की संख्या भी करोड़ घरों की संख्या छूने को है, उनका पैमाना महज 69 हजार लोगों की पसंद के आधार पर ही कैसे तय किए जा सकते हैं। लेकिन आज के दौर में ये चल रहा है। विज्ञापनदाता इसी पर मेहरबान हैं और इसके दबाव में चैनलों के कर्ता-धर्ता अपना ब्लड प्रेशर बढ़ाने को मजबूर हैं। क्योंकि टीआरपी गई नहीं कि चैनल के कर्ताधर्ता की नौकरी दांव पर लग जाती है।
वैसे चैनलों की रेटिंग नापने का काम एक और कंपनी कर रही है। दिल्ली के रवि अरोड़ा की एमैप नाम की ये कंपनी विज्ञापन एजेंसियों और ब्रॉडकास्टरों को लुभाने की कोशिश कर रही है। लेकिन उसे टैम जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के सामने अब तक सफलता नहीं मिल पाई है। शायद यही वजह है कि सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दास मुंशी ने टीआरपी मापने का अलग से पैमाना निर्धारित करने को कहा है। जिसके लिए भारतीय प्रसारकों की प्रतिनिधि संस्था इंडियन ब्रॉडकास्टर फेडरेशन तैयार भी हो गई है। लेकिन क्या ये संस्था हकीकत में बन पाएगी। मीडिया संगठनों और सरोकारों से साबका रखने वाले लोगों को इसका शिद्दत से इंतजार है।
( इस लेख में ज़ी बिजनेस के संवाददाता अमित आनंद की भी मदद ली गई है। क्योंकि ये आंकड़े टैम अधिकारियों से निकालना आसान काम नहीं था। )

मंगलवार, 15 अप्रैल 2008

हरिभूमि की जबलपुर में दस्तक !

हरियाणा की धरती पर हरिभूमि ने खास धमक भले ही न बना पाई हो, लेकिन छत्तीसगढ़ में उसने अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करा दी है। रायपुर और बिलासपुर से प्रकाशित होने के बाद अब हरिभूमि नर्मदा की भूमि जबलपुर में जून में दस्तक देने जा रहा है। इसके लिए प्रबंधन ने तैयारियां शुरू कर दी हैं। मशीन मंगाई जा रही है। जनरल मैनेजर और एकाउंटेंट तैनात कर दिए गए हैं। संपादक की खोज जारी है। कंपनी के वाइस प्रेसिडेंट एस एस कटारिया के मुताबिक अगर सबकुछ ठीकठाक रहा तो मई के आखिर में संपादकीय समेत दूसरे विभागों के कर्मचारियों की तैनाती शुरू कर दी जाएगी और पंद्रह जून तक आते-आते अखबार का पांचवां संस्करण प्रकाशित होना शुरू हो जाएगा। अभी ये अखबार रोहतक, दिल्ली, रायपुर और बिलासपुर से प्रकाशित हो रहा है। इसके बाद जबलपुर में चढ़ाई की तैयारी है। इसके बाद मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से अक्टूबर - नवंबर से अखबार को प्रकाशित किए जाने की तैयारी है। यानी पत्रकारों के लिए कुछ और अवसर जल्द ही मिलने वाले हैं।

सोमवार, 14 अप्रैल 2008

टीआरपी क्या है बला ! -1

उमेश चतुर्वेदी
हिंदी के खबरिया चैनलों की इन दिनों नाग नचाने और बेवजह राखी सावंत के चुंबन दृश्यों के साथ ही कपड़ा उतारू लटके-झटके दिखाने के लिए जब-जब आलोचना की जाती है, बचाव में खबरिया टीवी चैनलों के कर्ता-धर्ताओं का एक ही जवाब होता है कि उन्हें ये सब टीआरपी यानी टैम रेटिंग प्वाइंट के दबाव में ऐसा करना पड़ता है। हिंदी के प्रमुख समाचार चैनल आजतक के संपादकीय प्रमुख क़मर वहीद नक़वी ने 16 मई 2007 को भारतीय जनसंचार संस्थान के एक कार्यक्रम में ये स्वीकार किया था कि उन्हें बिना ड्राइवर की कार दिखाने का शौक नहीं है। पटना के लव गुरू प्रोफेसर मटुकनाथ और उनकी शिष्या से प्रेमिका बनी जूली की प्रेम कहानी का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि उन्होंने इस प्रेम कहानी को चैनल पर न दिखाने का फैसला किया और इसका खामियाजा टीआरपी में गिरावट के रूप में भुगतना पड़ा। एनडीटीवी इंडिया को छोड़ दें तो हिंदी के तकरीबन सभी खबरिया चैनलों के प्रमुख हमेशा ऐसी ही मजबूरी गिनाते रहते हैं। लेकिन खबर की दुनिया में विचरण करने वाले प्रोफेशनल लोगों से लेकर आम आदमी तक को ये पता नहीं है कि आखिर टीआरपी क्या है। खबरिया चैनल जो दिखा रहे हैं – वह गलत है या सही, इसकी चर्चा बाद में। पहले ये जान लेते हैं कि आखिर टीआरपी है क्या !
टीआरपी दुनिया की मशहूर कंपनी टैम का भारत में दर्शकों की पहुंच चैनलों तक नापने का पैमाना है। जिसे भारतीय ब्रॉडकास्टरों के सहयोग से करीब एक दशक पहले शुरू किया गया था और देखते ही देखते इसे ना सिर्फ मीडिया इंडस्ट्री, बल्कि विज्ञापनदाताओं के प्रमुख संगठनों ने मान्यता दे दी। आज हालत ये है कि दर्शकों की ज्यादा संख्या तक पहुंच की बजाय क्वालिटी के दर्शकों तक टेलीविजन कार्यक्रमों की पहुंच ही विज्ञापन देने और पाने का अहम जरिया बन गया है। यही वजह है कि टीआरपी यानी टैम रेटिंग प्वाइंट के पैमाने में कोई पीछे नहीं रहना चाहता। अगस्त-सितंबर 2007 तक देशभर में टैम के सिर्फ 4555 पीपुल्स मीटर लगे हुए थे। लेकिन अब देशभर में इसके पीपुल्स मीटरों की संख्या 9970 तक पहुंच गई है। टैम की ओर से देशभर में लगे इन टीआरपी नापने वाले डब्बों को ही पीपुल्स मीटर कहते हैं। सबसे ज्यादा मुंबई में 1245 पीपुल्स मीटर लगे हुए हैं। जबकि दिल्ली में 1186। कोलकाता में इनकी संख्या 881 है। लेकिन इन शहरों की तुलना में जरा राज्यों की हालत देखिए। पूरे गुजरात में सिर्फ 993 पीपुल्स मीटर ही लगे हैं, जबकि जनसंख्या के लिहाज से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में 1273 पीपुल्स मीटर लगाए गए हैं। वहीं महाराष्ट्र में इनकी संख्या 1019 है। यहां ये भी गौर करने वाली बात है कि टीआरपी के पैमाने में पंजाब, हरियाणा,चंडीगढ़ और हिमाचल प्रदेश चारों राज्य एक इकाई हैं और यहां कुल 1165 पीपुल्स मीटर ही लगे हैं। इसी तरह मध्य प्रदेश में 722, पश्चिम बंगाल में 703, राजस्थान में 441 और उड़ीसा में 342 पीपुल्स मीटर लगे हैं। TAM (टैम) के वैल्यू के हिसाब से ये 9970 डब्बे लगभग 69 हजार लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। मजे की बात ये है कि ये सारे के सारे डब्बे सिर्फ और सिर्फ घरों में लगे हुए हैं। वैसे तो आदमी अपनी जिंदगी का काफी ज्यादा वक्त ऑफिस और बाहर भी गुजारता है। लेकिन दिलचस्प बात ये है कि टीआरपी मापने वाले ये डब्बे किसी दफ्तर,होटल, रेस्तरां, रेलवे स्टेशन या एयरपोर्ट जैसी जगहों पर नहीं लगे हैं। टैम की रेटिंग के मानकों के मुताबिक उत्तर पूर्वी, दक्षिणी भारत और पश्चिम बंगाल को छोड़कर पूरा इलाका हिंदी भाषी माना जाता है। उत्तरी पूर्वी राज्यों के नेताओं और मंत्रियों के साथ ही आम आदमी की शिकायत रहती है कि हिंदी के खबरिया चैनलों पर उनके इलाके की खबरें नहीं रहतीं। जब वहां उनकी टीआरपी मापी ही नहीं जाती तो कोई साहसी चैनल ही उत्तर पूर्वी राज्यों की खबरों को दिखाने की हिम्मत दिखा पाएगा। उड़ीसा, गुजरात, महाराष्ट्र और पंजाब को भी गैर हिंदी भाषी राज्यों की श्रेणी में रखा गया है। लेकिन ये राज्य उत्तर पूर्वी राज्यों के मुकाबले भाग्यशाली हैं। क्योंकि इनकी खबरों को गाहे-बगाहे और कई बार ज्यादा भी जगह मिल जाती है। टैम की रेटिंग में दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, हैदराबाद और बंगलुरू को महानगरों की श्रेणी में रखा गया है, लेकिन हिंदीभाषी महानगर सिर्फ दिल्ली, मुंबई और कोलकाता को ही माना गया है।
लोगों को शिकायत है कि हिंदी के खबरिया चैनलों पर तीन सी और एक एस यानी क्राइम, क्रिकेट और सिनेमा के साथ सेक्स का ही बोलबाला है। उनमें भी बॉलीवुड की खबरों की बहुतायत है। इसकी भी वजह टीआरपी की रेटिंग का पैमाना ही है। इसके मुताबिक मुंबई हिंदी खबरिया चैनलों का सबसे बड़ा बाजार है, दूसरे स्थान पर दिल्ली आता है, जबकि तीसरे स्थान पर कोलकाता है। बाजार के लिहाज से टैम के मुताबिक गुजरात हिंदी खबरिया चैनलों का चौथा बड़ा बाजार है और उत्तर प्रदेश पांचवां। हालांकि सिवा मुंबई और दिल्ली की हालत में, हर हफ्ते इस नंबर में हेरफेर होता रहता है । हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं के लिए बिहार भले ही बाजार नंबर एक कहा जाता हो, लेकिन आपको ये जानकर ताज्जुब होगा कि बिहार में टीआरपी मापने वाला एक भी बक्सा नहीं है। यही हालत उत्तरी पूर्वी राज्यों की भी है। क्रमश: