सोमवार, 10 मार्च 2008

जरूरत नए मीडिया की -2

उमेश चतुर्वेदी
बाद के दौर में भी ऐसे किस्से दोहराए गए। फिर पनपा भाई-भतीजावाद। बिना जान - पहचान और चापलूसी के अखबारी संस्थानों में भर्तियां दूर की कौड़ी होती गईं। जाहिर है , इसका असर पत्रकारिता की गुणवत्ता पर भी पड़ा। एक गड़बड़ी और भी हुई। इसी दौर में कथित राष्ट्रीय हिंदी अखबार सिकुड़ते गए, जबकि हिंदी के बाजार के बढ़ते दबदबे को देखते हुए हिंदी के क्षेत्रीय पत्रों का विकास तेजी से हुआ। लेकिन इनकी ऊंची कुर्सियां प्रोफेशनल तौर पर कुशल और धाकड़ पत्रकारों को कम ही मिली। कहना ना होगा- उनमें से कई आज भी अहम जगहों पर हैं। इन्होंने अब बिना विज्ञापन के ही भर्तियों की नई परंपरा ही विकसित कर डाली है। आज अगर पत्रकारिता का चेहरा लोकतांत्रिक नहीं दिखता, वहां समाज के दबे- कुचले वर्ग की आवाज नहीं उठ पा रही है तो इसका एक कारण यह भी है। एनडीटीवी इंडिया के संपादक रहे दिबांग इस दौर की पत्रकारिता के पहले रसूखदार व्यक्ति हैं- जिन्होंने हिंदी पत्रकारिता जगत की इस गड़बड़ी पर सवाल उठाया है।
आज टेलीविजन की दुनिया पर जमकर सवाल उठाए जा रहे हैं। इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों पर आरोप है कि वे नाटकीय तत्वों को ही उभारने में सबसे ज्यादा मदद दे रहे हैं। हकीकत में उन्हें ऐसा करना भी पड़ रहा है और इसकी वजह है टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट यानी टीआरपी। लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि अगर टीआरपी की दौड़ में चैनल आगे नहीं रहा तो उसे विज्ञापन मिलने बंद हो जाएंगे और विज्ञापन नहीं मिला तो तकनीक से लदाफदा इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों का तामझाम नहीं चल पाएगा। वैसे भी इलेक्ट्रॉनिक माध्यम की आलोचना की दुनिया में सबसे ज्यादा पत्रकार अखबारी दुनिया के ही हैं। ये आलोचक आलोचना करते वक्त ये भूल जाते हैं कि टेलीविजन का पर्दा उन्हें भी कम नहीं लुभाता। साथ की लालसा भी और विरोध का दर्शन भी –ये ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकता। आपको अपनी सीमा रेखा खींचनी ही होगी।
बहरहाल इस दौर में छोटे-छोटे समूहों की पत्रकारिता ने नई आस जगाई है। सुनीता नारायण का सीएसई न्यूज हो या बुंदेलखंड का खबर लहरिया। ऐसे पत्रों ने जनसरोकारों को उठाने और उन्हें आवाज देने में अहम भूमिका निभाई है। जिस तरह आज का हिंदी अखबारी जगत अपनी सामाजिक भूमिका को भूलता जा रहा है। उसमें खबर लहरिया जैसे पत्रों की भूमिका बढ़ती नजर आ रही है। आने वाले दिनों में ऐसी आवाजें और बुलंद ही होंगी। जिस तरह वंचितों और शोषितों का नया वर्ग उभर कर सामने आ रहा है और अपनी अभिव्यक्ति के लिए नई मीडिया की तलाश कर रहा है, उसके पीछे भी कहीं न कहीं वे कारण ही जिम्मेदार हैं- जिनकी चर्चा इस आलेख के शुरूआती हिस्से में की गई है।
वैसे भी ये तलाश जारी रहेगी। लेकिन इसका भी एक खतरा नजर आ रहा है। दलित और पिछड़े वर्ग के उभार में उसी तरह की आक्रामकता नजर आ रही है, जैसी हाल तक सवर्ण मानसिकता में रही है या है। ऐसे में ये सोच पाना कि उनके लिए उभर रहा और उनकी आवाज बन रहा मीडिया संयम बरतेगा – बेबुनियाद है। बल्कि इस बात की पूरी आशंका है कि प्रचलित मानकों को ध्वस्त करने में यह मीडिया ज्यादा अहम भूमिका निभाएगा। इसका असर दलित लेखन पर दिखने भी लगा है। जहां दलितों के हितैषी महात्मा गांधी शैतान की औलाद बता दिए जाते हैं या प्रेमचंद की रंगभूमि की प्रतियां दलित विरोधी बताकर जलाई जाती हैं।

राजनीति और पत्रकारिता के रिश्ते

उमेश चतुर्वेदी
हिंदी के मशहूर पत्रकार राजेंद्र माथुर ने पत्रकारों के बारे में कहा था कि वे सिर्फ घटनाओं के साक्षी होते हैं-लिहाजा उनकी रिपोर्ट भर कर सकते हैं। उनके मुताबिक घटनाएं घटें-ये कोई जरूरी नहीं। उनके इस कथन का मकसद साफ है कि अगर पत्रकार निरपेक्ष ढंग से रिपोर्ट करने या सोचने वाला नहीं रहा-तो वह किसी घटना को निष्पक्ष तरीके रिपोर्ट नहीं कर पाएगा। यहां एक सवाल और उठता है कि पत्रकार और पत्रकारिता की प्रतिबद्धता किसके प्रति होनी चाहिए-किसी राजनीतिक दल,जनता या फिर नैतिक मूल्यों के प्रति।
इस बहस को आगे बढ़ाने से पहले हमें ये भी जान लेना चाहिए कि राजनीति के बिना पत्रकारिता के अस्तित्व की कल्पना बेमानी है। कहावत है कि आप जिसके साथ सबसे ज्यादा वक्त गुजारते हैं -आपके व्यक्तित्व पर उसका सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ता है। जाहिर है कि राजनीति का पत्रकारिता पर आज काफी असर डाला है। इसकी वजह समझना आसान है। दरअसल राजनीति ही पूरी दुनिया को संचालित करती है। सरकारें बनती हैं या बिगड़ती हैं तो राजनीति के ही जरिए और पत्रकारिता उसी पर निगाह रखती है। इसके चलते उसका दिन रात का साबका राजनीति से ही पड़ता रहता है। जब हम पत्रकारिता की चर्चा कर रहे हैं तो इसका मतलब पत्रकारों से भी है-क्योंकि बिना पत्रकार के पत्रकारिता की कल्पना भी वैसी है-जैसे बिना पत्तियों का पेड़।
दुर्भाग्यवश आज के दौर में राजनीतिक दलों के प्रति पत्रकारों की प्रतिबद्धता दिखनी आम हो गई है। ये असर सबसे ज्यादा उन पत्रकारों में दिखता है-जो लगातार और लगातार राजनीतिक रिपोर्टिंग ही करते हैं। जिस राजनीतिक दल को वे कवर करते हैं,धीरे-धीरे उनकी प्रतिबद्धता भी उसी राजनीतिक दल की ओर झुकती जाती है। फिर वे कुछ इसी तरह सोचने लगत हैं-जैसे उस दल विशेष के नेता और कार्यकर्ता सोच रहे होते हैं। उस दल विशेष के हित में सोचने का असर उनकी रिपोर्टों पर भी दिखना शुरू हो जाता है। शायद यही वजह है कि राजनीतिक दल भी उन पत्रकारों को अपने पक्ष में साधने की कोशिशें करते रहते हैं। इसका असर भी होता है। आज के दौर के एक जाने-पहचाने पत्रकार अपने छात्र जीवन में वामपंथी रूझान वाली छात्र राजनीति के समर्थक और कार्यकर्ता थे। कालांतर में एक अखबार में उन्हें नौकरी मिली और उन्हें कवर करने को मिली बीजेपी। फिर एक दौर ऐसा आया कि बीजेपी के आम कार्यकर्ता और उनमें कोई अंतर ही नहीं दिख रहा था। उनकी सारी वामपंथी राजनीति हवा हो गई थी।
आज के दौर में कई ऐसे चोटी के पत्रकार हैं -जिनका समाजवाद से गहरा रिश्ता रहा है। छात्रजीवन में वे लोहियावादी रहे हैं और कांग्रेस के विरोध को वे जैसे जन्मसिद्ध अधिकार मानते रहे हैं। लेकिन लंबे समय से कांग्रेस को कवर करते-करते उनका सारा समाजवाद काफूर हो गया है। आज उनकी रिपोर्टों को बारीकी से पढ़ें तो आपको लगेगा -मानों वे कांग्रेस का प्रचार कर रहे हैं।
वैसे भी ये असर सत्ताधारी दलों को कवर करने वाले पत्रकारों पर कुछ ज्यादा ही दिखता है। विपक्षी दलों को कवर करने वाले पत्रकारों की उस दल विशेष के प्रति लगाव उतना नहीं होता। ये तय मानिए कि कल कोई जनता दल या फिर समाजवादी पार्टी सत्ता में आ गई तो उसे कवर करने वाले पत्रकार भी जनता दल और समाजवादी पार्टी की ही तरह सोचना शुरू कर देंगे। तो क्या हम मान लें कि सत्ता ही पत्रकारों को भ्रष्ट बनाने की कोशिश करती है। इसका जबाब पूरी तरह हां में हैं।
एक दौर था कि सत्ता का विरोध पत्रकारिता की पहचान माना जाता था। जो जितना तेज-तर्रार और तेवर वाला पत्रकार हुआ,उतना ही उसे बड़ा और गंभीर माना जाता था। लेकिन आज मान्यताएं बदल चुकी हैं। आज पत्रकार का मतलब है कि वह अपनी आम लोगों के प्रति पक्षधरता को कितनी जल्दी तोड़कर नौकरी करने और नौकरी बचाने की मानसिकता से खुद को जोड़ लेता है और इस व्यवस्था का खुद को अंग बना लेता है। जिसने तेवर दिखाए-आम लोगों के अधिकारों की बात की,उनकी नौकरी गई। फिर जब पत्र ही नहीं रहा तो पत्रकारिता कैसी रही।
कहना ना होगा कि इसे पत्रकारिता संस्थानों ने ही बढ़ावा दिया है। कई अखबारों और टेलीविजन चैनलों में शीर्ष पदों पर बैठे ऐसे लोग मिल जाएंगे - जिनका बतौर प्रोफेशनल खास योगदान नहीं है। फिर भी वे रसूखदार पदों पर हैं और जो वास्तविकता पर आधारित आम लोगों की पत्रकारिता कर रहे हैं-उनके जिम्मे पत्रकारिता संस्थान के सबसे निचले तबके के ही काम हैं। अभी हाल ही में एक बड़े अखबार के संपादक को अपने एलीट दिल्ली ब्यूरो में राजनीतिक संवाददाता की जरूरत हुई। कुछ पत्रकारों ने उनसे संपर्क किया तो संपादक महोदय ने सबसे एक ही शर्त रखी-प्रधानमंत्री कार्यालय के किसी बड़े अधिकारी से अपनी सिफारिश करा दो तो समझो नौकरी पक्की। वैसे भी राजनीतिक ब्यूरो में रिपोर्टर और संवाददाता के पदों पर आज किसी भी अखबार में सिर्फ रिपोर्टिंग और बेहतरीन लेखन कौशल के सहारे नौकरी पाना आसान नहीं रहा। दूसरे शब्दों में कहें तो बेहद असंभव सी चुनौती हो गई है। आज अखबारों के मालिक और कारपोरेट मुखिया हों या फिर चैनलों के कर्ता-धर्ता,अपने यहां राजनीतिक रिपोर्टर को रखते हुए एक ही सवाल पूछते हैं-आप किसको जानते हैं। यहां उनका मतलब किसी बड़े नेता और अधिकारी से होता है। इसी तरह आज बिजनेस और आर्थिक बीट पर काम करने वाले पत्रकार से ये पूछा जाने लगा है कि आप किस नामी-गिरामी बिजनेसमैन या उद्योगपति को जानते हैं। कहने को तो ये सब खबरें उगाहने के नाम पर होता है। लेकिन असलियत ये है कि प्रबंधन इस बहाने रिपोर्टर या संवाददाता के जरिए संवाद और खबर के साथ ही दूसरे काम कराना चाहता है।
लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि जिसने सचमुच की पत्रकारिता की होगी- उसके लिए बड़े और रसूखदार व्यक्ति की अहमियत से ज्याद बड़े और अहम मुद्दे आम लोगों की चिंताएं रही होंगी। यानी हर बड़ा और रसूखदार व्यक्ति की गड़बड़ी उजागर करना उसकी प्राथमिकता में रही होगी- अब आप ही सोचिए कि कौन ऐसा उदार बड़ा और ताकतवर आदमी होगा जो ऐसे पत्रकार को नौकरी दिलाना चाहेगा।
तो क्या ये मान लिया जाय कि बिना राजनीतिक सहयोग के बिना पत्रकारिता में रसूखदार पद पाना बिल्कुल असंभव है। इसका जवाब कुछ हद तक हां होते हुए भी ना में है। दरअसल ऐसी नियुक्तियां पाए लोग सत्ता बदलते ही अप्रासंगिक हो जाते हैं और प्रबंधन के लिए उनकी स्थिति निचोड़े हुए नीबू जैसी हो जाती है और जो सचमुच अपनी बदौलत,अपने काम की बदौलत आते हैं-कोई भी प्रबंधन उसे नींबू निंचोड़ने की तरह इस्तेमाल नहीं कर सकता। इसलिए ऐसे लोगों की जरूरत सदा बनी रहेगी। हां उनके लिए सफलता और उपर उठने का रास्ता सीधा-सपाट नहीं होगा। बल्कि उन्हें रपटीली और घुमावदार राहों से ही गुजरना होगा।
राजनीति की दुनिया में कहावत है कि कोई किसी का दोस्त या लंबे समय का दुश्मन नहीं होता। लेकिन पत्रकारिता ही एक मात्र विधा है-जिससे राजनीति सिर्फ और सिर्फ दोस्ती ही निभाना चाहती है और कई मायने निभा भी रही है। दरअसल जिस तरह पत्रकारिता के लिए राजनीति और राजनेता जरूरी हैं,कुछ उसी तरह राजनीति के लिए पत्रकार और अखबार या चैनल भी जरूरी हैं। ऐसे में राजनीति का ये खेल जारी रहेगा कि वह अपने मनपसंद लोगों को रसूखदार जगहों पर पत्रकारीय नौकरियां दिलाते रहें। राजनेता चाहेंगे ही उनका चंपू ही उसके काम लायक अखबार में जगह बनाए। लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि स्वतंत्रचेता लोगों के लिए जगह बनी रहेगी। ये सच है कि आज के दौर में ऐसे लोगों का बोलबाला कुछ ज्यादा ही हो गया है। ऐसे में प्रतिभाओं को सामने आने में देर लग सकती है। लेकिन हमें एक तथ्य नहीं भूलना चाहिए। अपने देश की अखबारी पत्रकारिता आजादी के आंदोलन की कोख से निकली और क्रांतिकारी वक्त में पली बढ़ी है। जाहिर है,उसके आदेशों और क्रांति की तपिश पर ही आगे बढ़कर ये यहां तक पहुंची है। हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि दुनिया के चाहे जो भी काम और संस्कृति ही क्यों ना हो-उसके अपने आदशZ और उसकी नैतिकता होती है। लंबी रेस के घोड़े इन नैतिकताओं और आदर्शों पर चलने वाले लोग ही होते हैं। यहां पर महान अमेरिकी पत्रकार वाल्टर लिपमैन के शब्द याद आते हैं-दुनिया जैसी भी है़,चलती रहेगी। उसमें मैं एक वाक्य जोड़ना चाहूंगा कि दुनिया के आदर्श बचे रहेंगे और ये ही दुनिया की इस महान विधा को बचाए रख सकेंगे।

रविवार, 9 मार्च 2008

प्रभाष जोशी को शलाका सम्मान

हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में योगदान के लिए साल 2007-08 का शलाका सम्मान वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी को दिया जाएगा। शलाका सम्मान हिंदी अकादमी को ओर से दिया जाने वाला सर्वोच्च सम्मान है. प्रभाष जोशी ने जनसत्ता को आम आदमी का अखबार बनाया. उन्होंने उस भाषा में लिखना-लिखवाना शुरू किया जो आम आदमी बोलता है. देखते ही देखते जनसत्ता आम आदमी की भाषा में बोलनेवाला अखबार हो गया. इससे न केवल भाषा समृद्ध हुई बल्कि बोलियों का भाषा के साथ एक सेतु निर्मित हुआ जिससे नये तरह के मुहावरे और अर्थ समाज में प्रचलित हुए.

नवंबर 1983 में वे जनसत्ता से जुड़े और इस अखबार के संस्थापक संपादक बने. नवंबर 1995 तक वे अखबार के प्रधान संपादक रहे लेकिन उसके बाद वे हाल फिलहाल तक जनसत्ता के सलाहकार संपादक के रूप में जुड़े रहे. उन्होंने अपनी लेखनी से राष्ट्रीयता को लगातार पुष्ट किया. वैचारिक प्रतिबद्धता का जहां तक सवाल है तो उन्होंने सत्य को सबसे बड़ा विचार माना. इसलिए वे संघ और वामपंथ पर समय-समय पर प्रहार करते रहे. अब तक उनकी प्रमुख पुस्तकें जो राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई हैं वे हैं- हिन्दू होने का धर्म, मसि कागद और कागद कारे. अभी भी जनसत्ता में उनका स्तंभ कागद कारे हर रविवार को छपता है और हिंदी राजनीति और पत्रकारिता जगत में अपनी तरह से इसका नोटिस भी लिया जाता है।

बनें पत्रकारिता की सस्ते गल्ले जैसी दुकान …

पत्रकारिता की पढ़ाई की दुकानों का स्तर सुधारने के लिए इन दिनों प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल ने वीणा उठाया है। काम नेक है- क्योंकि पत्रकारिता की दिन-दूना रात चौगुना बढ़ती दुकानों ने पत्रकारिता के छात्रों को भ्रमित कर रखा है। लेकिन दिल्ली में तीन मार्च को इस सिलसिले में जो बैठक हुई- उसमें सबसे खटकने वाली बात इन दुकानों के दुकानदार ही छाए हुए थे। ये कुछ वैसी ही बात हुई – जैसे कि चोरों को ही चोरी रोकने की जिम्मेदारी दे दी जाय। ऐसे में बात शायद ही बने। ना तो इसे प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया समझ रही है – ना ही माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय। पत्रकारिता वैसा पेशा नहीं है – जैसे आम प्रोफेशन हैं। लिहाजा होना तो ये चाहिए था कि सक्रिय पत्रकारिता जगत के लोगों से सुझाव मांगे जाते और जो दुकानें खुल रही हैं – उन्हें कड़ाई से रोक कर उन्हें सहकारी सस्ते- गल्ले की दुकानों में तब्दील किया जाए। तभी पत्रकारिता का भला होगा। यहां भी ध्यान रखना होगा कि ये दुकानें भी आम राशन की दुकानों की तरह भ्रष्टाचार का अड्डा ना बनें। लेकिन लाख टके का सवाल ये है कि इसे सुनता कौन है।