गुरुवार, 31 जनवरी 2008

अंग्रेजी की एक हकीकत

उमेश चतुर्वेदी
मेरे एक जानकार इन दिनों जर्मनी में जाकर भी परेशान हैं। आप सवाल पूछेंगे कि आखिर क्या वजह रही कि जर्मनी जाकर भी वे हलकान हुए जा रहे हैं। ये सवाल इसलिए भी मौजूं हैं कि क्यों बदलती दुनिया में आज हर किसी का मकसद यूरोप और अमेरिका जाना और वहां छोटा-मोटा ही सही, नौकरी करना हो गया है। यूरो और डालर की चमक के इस दौर में इन्हें कमाना आज दुनिया की सबसे बड़ी इच्छा हो गई है। ऐसे में हमारे जानकार को जर्मनी जाकर ही खुश हो जाना चाहिए था- लेकिन वे खासे परेशान हैं तो सवाल उठेगा ही।
इस सवाल का जवाब जानने-समझने से पहले उनके जर्मनी जाने की पृष्ठभूमि भी समझ लेनी चाहिए। मेरे मित्र को इंटरनेट पर चैटिंग करते हुए एक जर्मन लड़की से प्रेम हो गया। मैक्समूलर की धरती की बेटी को भी भारत और इसकी अध्यात्मिक दुनिया को जानने-समझने में जबर्दस्त दिलचस्पी थी-लिहाजा उसे भी भारत का देसी छोरा पसंद आ गया और बात इतनी आगे बढ़ी कि अंजाम शादी तक पहुंच गया। हालांकि लड़की की दिलचस्पी भारत में रहने और यहां की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक दुनिया में खुद को डूबा लेने की थी। लेकिन शादी के बाद उसे पता चला कि पति महोदय की दिलचस्पी तो जर्मनी जाकर यूरो कमाने में है। तो लड़की ने भी ठेठ भारतीय लड़की की तरह पति की ही इच्छा को अपनी इच्छा मानकर पति के साथ जर्मनी लौट गई। जर्मनी जाने के बाद हमारे जानकार की जिंदगी कुछ दिनों तक तो बेहतर रही-लेकिन ऐसा कब तक चलता?तो जब मधुयामिनी का वक्त बीता, हमारे जानकार महोदय को जीविका,नौकरी और यूरो की चिंता समाने लगी और शुरु हुआ जर्मनी में नौकरी ढूंढ़ने की जमीनी कोशिश। जानकार महोदय अच्छी-खासी अंग्रेजी जानते हैं। भारत में अच्छे कहे जाने वाले स्कूलों में उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई है,इसलिए उन्हें भरोसा था कि उन्हें नौकरी मिल ही जाएगी। लेकिन उनकी कोशिश कुछ वैसी ही होती गई-जैसे भारत में बेरोजगारों को नौकरी खोजते वक्त होती है।
दरअसल जर्मनी में नौकरी पाने के लिए अंग्रेजी से ज्यादा जर्मन जानना ज्यादा जरूरी है। जानकार महोदय जर्मन नहीं जानते-लिहाजा उन्हें नौकरी मिलने में दिक्कतें हो रही हैं। यही वह वजह है कि जानकार महोदय विदेश की चमकीली और सुनहली जमीन पर भी हलकान हुए जा रहे हैं।
अमेरिकी मॉडल की अर्थव्यवस्था लागू होने के बाद से अपने देश में अंग्रेजी का बोलबाला और तेजी से बढ़ा है। इसके साथ ही ये भी मान लिया गया कि पूरी दुनिया में सफलता सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी के जरिए ही हासिल की जा सकती है। हमारे जानकार महोदय भी ऐसी ही मानसिकता को लेकर जर्मनी की जमीन पर पहुंचे थे। लेकिन उनकी इस मानसिकता को चोट पहुंची वहीं पहुंचकर। सिर्फ जर्मनी ही नही, दुनिया के तमाम देश ऐसे हैं-जहां अंग्रेजी के बल पर सामान्य कामकाज भी नहीं निबटाया जा सकता। अभी हाल ही में क्वात्रोक्की का मामला एक बार फिर उछला था। क्वात्रोक्की अर्जेंटीना में है। जिसके प्रत्यर्पण के लिए सीबीआई टीम पहुंची तो वहां की स्थानीय भाषा न जानने के कारण उसे कई तरह की परेशानियां झेलनी पड़ीं। क्वात्रोक्की के सीबीआई के हाथ से फिसल जाने के कारणों की पड़ताल के साथ ही इस तथ्य की भी जमकर चर्चा हुई थी। फ्रांस के लोगों को तो अंग्रेजी बोलने से भी परहेज रहता है। ये तो बात जगजाहिर है। लेकिन फ्रांस और जर्मनी भी आर्थिक मोर्चे पर अमेरिका को टक्कर दे रहे हैं।
दुर्भाग्य की बात ये है कि नए आर्थिक उदारीकरण के इस दौर में मीÊडया भी ऐसी खबरों को कोई प्रमुखता नहीं दे रहा। चाहे भाषाई मीÊडया हो या फिर कथित मुख्यधारा का अंग्रेजी मीडिया-उसके लिए इन खबरों का कोई मतलब नहीं रह गया है। इसका एक असर ये हो रहा है कि फ्रांस और जर्मनी के भी सपने लोग अंग्रेजी के जरिए देखने लगे हैं और वहां जाकर हमारे जानकार की तरह परेशान घूमने या फिर छोटी-मोटी नौकरियां करने को मजबूर हो गए हैं।

सोमवार, 28 जनवरी 2008

पत्रकारिता के किंतु - परंतु

ये लेख भारतीय जनसंचार संस्थान की त्रैमासिक पत्रिका संचार माध्यम के जुलाई-सितंबर 2005 के अंक में प्रकाशित हो चुका है। अंक देर से प्रकाशित हुआ है।
उमेश चतुर्वेदी
बीसवीं सदी के आखिरी वर्षों में समाचार माध्यमों में जो इलेक्ट्रॉनिक क्रांति हुई, उससे अखबारों की दुनिया के सिकुड़ने की आशंका जताई जाने लगी थी। लेकिन अखबारों का विस्तार हुआ, ना सिर्फ बढ़े, बल्कि उनकी बढ़त क्रांतिकारी रही। हिंदी के दो अखबारों – दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर की क्रांतिकारी प्रसार संख्या इसकी गवाह है। दोनों ही अखबारों का दावा डेढ़ करोड़ पाठक होने का है। दोनों के बिक्री के आंकड़े दस लाख की संख्या को पार कर गए हैं। गाय और गोबर पट्टी के तौर पर देशभर में उपहास का पात्र रहे हिंदी इलाके में अकेले इन्हीं दो अखबारों का दस लाख की प्रसार संख्या का पार कर जाना, इस बात का गवाह है कि छपे हुए शब्दों के प्रति गाय और गोबर पट्टी का रवैया तेजी से बदला है। इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के वर्चस्व के दौर में भी छपे शब्दों की ताकत और उनके प्रति लोगों में कितनी आस्था है- इसका अंदाजा आए दिन अखबारों के दफ्तरों में आने वाले दुखी-पीड़ित लोगों को देखकर लगाया जा सकता है। उन्हें लगता है कि उनके दुख, उनकी पीड़ाएं और उनके साथ हुए अन्याय को अखबार का स्वर मिला तो उनकी समस्या छू-मंतर हो जाएगी। लेकिन सवाल उठता है कि क्या अखबार अब भी अपने इस दायित्व का उतनी ही शिद्दत से निर्वाह कर रहे हैं ?
इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने से पहले याद आते हैं हिंदी के संपादकाचार्य बाबू राव विष्णुराव पराड़कर के करीब छह दशक पहले कहे गए कुछ शब्द ... पत्र निकालकर सफलतापूर्वक चलाना बड़े-बड़े धनियों अथवा सुसंघटित कंपनियों के लिए ही संभव होगा। पत्र सर्वांग सुंदर होंगे। छपाई अच्छी होगी, मनोहर,मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे। लेखों में विविधता होगी,कल्पकता होगी, गंभीर गवेषणा की झलक होगी,ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जाएगी। यह सब कुछ होगा पर पत्र प्राणहीन होंगे।.....उनकी ये बात आज अक्षरश: साबित हो रही है। अखबारों के अब तक तीन काम गिनाए जाते रहे हैं। मीडिया संस्थानों के विद्यार्थी इसका रट्टा मारते रहे हैं। ये काम है – सूचना देना, शिक्षा देना और मनोरंजन करना। लेकिन मनमोहनी अर्थव्यवस्था ने जैसे-जैसे इस भारतभूमि में अपने पांव पसारे – अखबारों ने अपने इन तीनों भूमिकाओं में कटौती शुरू कर दी। कुछ लोग एतराज के तौर पर कह सकते हैं कि अखबार सूचना देने का काम तो करते ही रहते हैं। इस पर चर्चा बाद में ...सबसे पहले बात करते हैं मनोरंजन की। हिंदी अखबारों के चकमक रंगीन पृष्ठों पर आजकल खबरें लगातार कम होती जा रही हैं। बल्कि इन पृष्ठों पर अब प्यार करने की विधियों से लेकर कॉलेज में लड़का या लड़की पटाने तक सजीव तरीका बताया जा रहा है। ये काम वे संपादक भी बदस्तूर जारी रखे हुए हैं – जिनसे हिंदी समाज को कहीं ज्यादा अपेक्षाएं थीं। संपादक महोदय खुद हिंदी के गरिष्ठ- क्लिष्ट लेखों से अपने पाठकों को बोर कर रहे हैं या अपने अखबारी जीवन को समृद्ध कर रहे हैं- ये तो शोध का विषय है। लेकिन सरसरी तौर पर जो परिलक्षित हो रहा है – उसकें युवा पाठकों की पसंद के नाम पर वो सब कुछ परोसा जा रहा है। जिसे बाजारी व्यवस्था वाले खुले समाज की इकाई परिवारों तक ने अभी तक नहीं आजमाया है।
विकसित देशों की पेज थ्री पत्रकारिता को अंग्रेजी अखबारों ने करीब छह- सात साल पहले जब अपनाया था, तब हिंदी अखबारों ने इस चलन को लेकर खूब नाक-भौं सिकोड़ा था। इन पृष्ठों पर दलाली और दूसरे दोयम तरीके से समाज में बेहतर आर्थिक हैसियत हासिल कर चुके राजनेताओं के एक लिजलिजे वर्ग ने कब्जा जमाना शुरू किया तो अंग्रेजी अखबारों ने इसे हाथोंहाथ लिया। इस पेज थ्री पत्रकारिता की सहायता से कई लोगों ने अपनी राजनीतिक हैसियत में और इजाफा कर लिया है। ऐसे में इसका असर पेज थ्री पत्रकारिता पर नहीं पड़ता, ऐसा कैसे हो सकता था। इन पृष्ठों पर प्रकाशित होने वाले छपास रोगी राजनेताओं,पत्रकारिता से इतर कर्म करने के बावजूद पत्रकारिता करने के बावजूद पत्रकार कहलाने वाले कथित पत्रकार, सोशलाइट और नवधनाढ्यों ने इन पृष्ठों का रसूख बढ़ाने में भरपूर कोशिश की। हर बार छपने पर उनका समाज सेवा और क्रांति करने का दावा रहा। लेकिन हकीकत में इन पृष्ठों पर प्रकाशित होने वाली हस्तियों की प्रतिबद्धता किसके प्रति है – ये हाल के दिनों में पूरी शिद्दत से जाहिर हुआ है। बीना रमानी के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। पेज थ्री पर छाई रहने वाली इस सोशलाइट के टर्मरिंड कोर्ट में तीस अप्रैल 1999 को उसके ही सामने उसकी ही कर्मचारी जेसिका लाल की हत्या हुई। हत्या भी पेज थ्री पर ही छाए रहने वाले मनु शर्मा नामक एक रसूखदार रईसजादे ने की। लेकिन कहां तक बीना अपने सार्वजनिक चेहरे के मुताबिक हत्यारे के खिलाफ उठ खड़ी होती – तो उल्टे वह हत्यारे को बचाने में ही जुट गई।
पेज थ्री पर साया होने वाली हस्तियों को मीडिया जमकर स्पेस देता रहा है। लेकिन इनमें से ज्यादातर के लिए सार्वजनिक भूमिका का कोई मतलब नहीं है। हालांकि अंग्रेजी अखबारों ने इन हस्तियों को साया करने और अहमियत देने की प्रवृत्ति के बावजूद पेज थ्री से असल पत्रकारिता की दूरी बचाए रखी। लेकिन यहीं पर हिंदी अखबारों की भूमिका गड्ड-मड्ड नजर आई। पेज थ्री को देर से ही सही हिंदी अखबारों ने भी आत्मसात कर लिया, लेकिन अंग्रेजी अखबारों की तरह वे पेज थ्री और थोड़ी-बहुत बची असल पत्रकारिता के बीच दूरी बनाकर नहीं रख सके। हिंदी अखबारों में पेज थ्री वाले राजनेता मुख्य पृष्ठ पर भी भरपूर जगह हासिल करते रहे। उन्हें रातोंरात महान नेता बनाने में भी आज की पत्रकारिता कोई कसर नहीं छोड़ती। लेकिन जब यही राजनेता किसी स्टिंग ऑपरेशन या घोटाले में फंस जाता है तो अखबारों की बेचारगी साफतौर पर नजर आने लगती है। यहां ऐसी घटनाओं और उनसे जुड़े राजनेताओं का नाम लेना उचित नहीं होगा। लेकिन एक बात गौर करने की है कि ऐसे में मुद्दा आधारित पत्रकारिता करने वाले लोगों को किनारे लगाने की प्रवृत्ति भी बढ़ती जा रही है और इसमें पेज थ्री वाले राजनेता भी सफल कोशिश करने से नहीं चूक रहे। दिलचस्प बात ये है कि अखबार प्रबंधन भी ऐसे लोगों की बीट बदलने और उनका ट्रांसफर करने से नहीं चूकता। अपने करीब चौदह साल के पत्रकारीय जीवन में इन पंक्तियों के लेखक ने भी कई बार ऐसे वाकये देखे-भुगते हैं। इसका सबसे बदतर असर पत्रकारिता के स्तर और जनपक्षधरता पर पड़ रहा है। इसका सबसे बेहतर उदाहरण है 2004 का लोकसभा चुनाव। तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और उनकी सरकार को पूरा देश चमकता हुआ ही नजर आ रहा था। एनडीए सरकार जैसे-जैसे देश को चमकता हुआ दिखा रही थी, अखबार-खासतौर पर हिंदी अखबार एनडीए से भी कहीं ज्यादा देश को चमकता हुआ दिखा रहे थे। किसी ने ये पड़ताल करने की कोशिश नहीं की कि खुशहाल रहे पंजाब और विदर्भ में किसान लगातार आत्महत्याएं कर रहे हैं-इसके बावजूद देश कैसे चमक रहा है ? उत्तर प्रदेश में सड़कों पर गड्ढे भरे पड़े हैं और अंधेरे में डूबा है, आंध्र में भी आत्महत्याओं और भुखमरी का दौर जारी है। इसके बावजूद देश कैसे चमक रहा है। यहां ये सवाल उठता है कि क्या अखबार अपने पहले दायित्व – तथ्यात्मक सूचना देने का सही मायने में निर्वाह कर रहे थे। इसका जवाब 2004 के लोकसभा चुनाव के नतीजों ने ही दिया। एनडीए को जीतते दिखा रहे अखबारों की भविष्यवाणी और आकलन गलत साबित हुआ, एनडीए की हार हुई। लेकिन निर्लज्ज अखबार उतनी ही तेजी से यूपीए के गुणगान में जुट गए। उन्हें एनडीए बुराइयों का पुलिंदा नजर आने लगा। इससे हिंदी अखबारों के बौद्धिक दिवालिएपन का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है।
जहां तक सूचना देने की बात है तो आज कितने अखबार हैं , जो सही मायने में सूचनाएं दे रहे हैं। अपने निहित राजनीतिक स्वार्थों और तात्कालिक फायदे के लिए अखबार अपना चोला बदलने से नहीं चूक रहे। एनडीए की तर्ज पर एक और बड़े अखबार को हरियाणा की चौटाला सरकार में 2005 में कोई गलती नजर नहीं आ रही थी। लेकिन इसी साल हुए विधानसभा चुनावों में चौटाला की पार्टी पूरी तरह साफ हो गई। दरअसल अखबारों में वस्तुनिष्ठता के आधार पर सरकारों के कामकाज के विवेचन की समृद्ध परंपरा लगातार खत्म होती जा रही है। इसलिए छपे शब्दों की महिमा भी लगातार कम हुई है। इसका दर्शन-श्रवण पान-चाय की दुकानों, लोकल ट्रेनों और बस यात्रा में सामान्य लोगों की आपसी चर्चा में किया जा सकता है। अखबारों को ये भ्रम है कि वे जो कहते-छापते हैं, जनता आंखमूंदकर उस पर भरोसा कर लेती है। राजनेता भी कुछ ऐसा ही समझते हैं। इसीलिए वे अखबारों का अपने पक्ष में मनचाहा छपवाने की हरदम कोशिश करते रहते हैं। लेकिन आज की जनता बदल चुकी है। उसे पता है कि कौन अखबार कांग्रेस का समर्थक है और किसकी सहानुभूति वामपंथी विचारधारा से है। काश ! अखबारी दुनिया के आका इसे जानने-समझने की कोशिश करते।
लेकिन सच ये भी है कि मिशनरी पत्रकारिता करने वालों की एक टुकड़ी अब भी शब्दों की दुनिया का संस्कार करने और प्रतिष्ठा बचाने की कोशिशों में चुपचाप जुटी हुई है। लेकिन उनकी हालत बत्तीस दांतों के बीच जीभ की तरह है। चूंकि पत्रकारिता में तेवर का जमाना नहीं रहा – लिहाजा ऐसे लोग हाशिए पर हैं। नीति-निर्धारण करने वाली स्थितियों में इनकी संख्या कम ही है। इसका खामियाजा आज हाशिए पर पड़े लोग भुगत रहे हैं। जब पत्रकारिता में तेवर को मान्यता थी – तब मिशनरी लोगों ने ही पत्रकारिता के मानदंड स्थापित किए थे। आज अगर ये अखबारी संस्थानों में बचे –बने हुए हैं तो इसलिए नहीं कि आज की नियंता पीढ़ी ने उन पर कोई कृपा की है। बल्कि अखबार निकालने और बचाने की कला दुर्भाग्यवश मीडियाकर लोगों की बजाय इन मिशनरी लोगों को ही आती है।
भारत में पत्रकारिता की नींव तेवर और विरोध के स्वरों के साथ ही पड़ी थी। जेम्स हिक्की का ‘बंगाल गडट एंड जनरल एडवर्टाइजर ’ भले ही एक अंग्रेज का अखबार था। लेकिन हिक्की का उद्देश्य अंग्रेजी सरकार का गुणगान करना नहीं था – बल्कि सरकार और प्रशासन में मौजूद घूसखोरी और विलासिता को उजागर करना और उसके लिए विरोधी मानस तैयार करना था। इसकी हिक्की को कीमत भी चुकानी पड़ी। इस पत्रकारिता की रक्त-अस्थि-मांस-मज्जा आजादी के आंदोलन की कोख में बनी थी। सही मायने में इसी दौर में भारतीय पत्रकारिता ने आकार ग्रहण किया। कहना ना होगा- उस आंदोलन के आदर्श और उसकी आंच वर्षों तक भारतीय पत्रकारिता की प्रेरणास्रोत बनी रही। खासकर भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता ने आजादी के आंदोलन के मूल्यों में ही अपना अस्तित्व खोजा और पाया है। यह भी सच है कि बाजारवाद के दौर में पत्रकारिता ने बाजारवादी लटके-झटके भी अख्तियार कर लिए हैं। लेकिन वह अभी भी आजादी के आंदोलन की स्वर्णिम स्मृतियों से मुक्त नहीं हो पाई है और शायद ही कभी मुक्त हो। यही वजह है कि बाजारवाद के मूल्यों को आंशिक या पूरी भारतीय पत्रकारिता का अब भी आजादी के मूल्यों पर चलने का दिखावा भी उसकी मजबूरी है। समीर जैन के अलावा डंके की चोट पर अपने अखबार या पत्रिका को महज एक उत्पाद कहने वाले मालिक-प्रकाशक कम ही हैं। ऐसे दिखावे में मिशनरी लोग ही मददगार हो सकते हैं। लिहाजा उन्हें अखबार प्रबंधन आज भी ढो रहा है। (ये शब्द भी प्रबंधन के शब्दकोश से लिए गए हैं। )
आमजन की आवाज और उनके अभावों को सुर्खियां बनाने की मांग मिशनरी लोग तकरीबन रोज ही करते हैं। लेकिन महान दार्शनिक इमैनुअल कांट के कार्य-कारण सिद्धांत के तहत ऐसी खबरें सुर्खियां तभी हासिल कर पाती हैं – जब ऐसी खबरों से कोई राजनीतिक दल या समूह फायदा पाने की कोशिश करता है। जाहिर है – ऐसे हालात में आम आदमी की स्थिति प्रयोगशाला के ‘गिनीपिग’ से ज्यादा नहीं रह जाती। यानी आम व्यक्ति और उसके अभाव, उसकी दुश्चिंताएं सभी अवसरवादी राजनीति के उपादान बन जाते हैं। कहना न होगा इसके मंच बनते हैं अखबार। अखबारों की इन सुर्खियों के पीछे की हकीकत और राजनीति को जब तक आम पाठक समझ पाते हैं – तब तक देर हो चुकी होती है।
तो क्या हमें ये मान लेना चाहिए कि अखबारी दुनिया में भरोसे के लिए कुछ भी नहीं बचा है। गणित के सवाल की तरह इसका जवाब पूरी तरह ना तो ‘ना’ में हो सकता है और ना ही पूरी तरह से ‘हां’ में।