शनिवार, 14 जून 2008

जाति न पूछो साधु की ...

उमेश चतुर्वेदी
हिंदी ब्लॉग जगत में इन दिनों मीडिया में पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक लोगों की कमी को लेकर कुछ लोग हलकान हुए जा रहे हैं। उन्हें लगता है कि अगर मीडिया में पिछड़े, अल्पसंख्यक और दलितों की भागीदारी ज्यादा होती तो शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण और ऐसे ही दूसरे मसलों पर मीडिया की भूमिका कुछ और ही होती। नरेंद्र मोदी समेत हिंदू( फासिस्टों ) संगठनों को लेकर मीडिया की सोच कुछ और ही होती। दलितों के अधिकारों को जोर-शोर से उठाया जाता। इन लोगों को लगता है कि लालू यादव और मायावती जैसे पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक तबके के नेताओं के प्रति भी सवर्ण मीडिया का रूख कुछ दूसरा ही होता। यानी इस चर्चा का प्रमुख लब्बोलुबाब ये है कि मीडिया की आज की अतिवादिता के लिए यह सवर्णवाद ही जिम्मेदार है।
यहां एक बात बता देना मैं जरूरी समझता हूं। आमतौर पर समाजवादियों और वामपंथियों में तमाम मुद्दों पर वैचारिक मतभेद रहते हैं। लेकिन इस सवर्णवाद की चर्चा दोनों तबके ने मिलकर शुरू की। इसे लेकर सबसे पहला सर्वेक्षण मेरे क्लासफेलो वामपंथी एक्टिविस्ट जितेंद्र कुमार, वरिष्ठ वामपंथी पत्रकार अनिल चमड़िया और समाजवादी विचारक और चुनाव विश्लेषक योगेंद्र यादव ने किया। इस सर्वेक्षण का उद्देश्य समानता का दावा करने वाले पत्रकारिता और मीडिया संस्थानों का आइना दिखाना था। लेकिन ब्लॉग पर जिस तरह ये चर्चा मीडिया की अतिवादिता का इसे कारक बनाने को लेकर होती जा रही है - शायद इस सर्वेक्षण का ये उद्देश्य भी नहीं था।
यह सच है कि मीडिया की भर्तियों में अपनी तरह का एक खास वर्गवाद जोरों पर है। लेकिन मैं कम से कम इससे असहमत हूं कि इसमें सवर्णवाद का बोलबाला है। नाम से ही जाहिर है कि मैं ब्राह्मण परिवार से आता हूं। लेकिन इसका मुझे तो कोई फायदा कम से कम इस नाम पर नहीं मिला। जबकि मैं कई बड़े ब्राह्मण पत्रकारों के यहां नौकरी पाने का दरबार लगाता रहा हूं। लेकिन उन्होंने उन लोगों को पसंद किया -जो किसी और विरादरी के थे। मैं नाम नहीं गिनाना चाहता, वक्त आएगा तो इससे भी परहेज नहीं रहेगा। अखबारों में छपने के लिए ब्राह्मणवाद ने भी मेरी मदद नहीं की। जबकि कई अखबारों में छापने की स्थिति में कई ब्राह्मण नामधारी पत्रकार रहे। अपने बीच के संघर्ष के दिनों में ब्राह्मण पत्रकारों ने तो मुझे जमकर टरकाया।
जहां तक मैंने देखा है कि मीडिया संस्थानों में नौकरी सिर्फ ब्राह्मण या दलित के नाम पर नहीं मिलती है। वहां नौकरी पाने के लिए विचारधारा और चंपूगिरी अहम भूमिका निभाती है। अगर नौकरी देने की स्थिति में दक्षिणपंथी पत्रकार होते हैं तो उन्हें अपनी ही विचारधारा के पत्रकार पसंद आते हैं। अगर भर्तियां करने की हालत में वामपंथी विचारक रहे तो उन्हें आईसा और एसएफआई से जुड़े संघर्षशील ही पसंद आते हैं - भले ही उन्हें एक लाइन ठीक से लिखना न आता हो और ना ही उन्हें समाचार की समझ हो। इसे आप क्या कहेंगे। ऐसी सूचनाएं आपको हर चैनल और हर अखबार में मिल जाएंगी। ऐसे में मारा जाता है - बेचारा वह संघर्षशील, जो अपने छात्र जीवन में ना तो एबीवीपी या आईसा से जुड़ा नहीं रहा। उसे नौकरी मिल भी गई और ग्रुप में शामिल नहीं हुआ तो उसके इक्रीमेंट और प्रोमोशन का भगवान ही मालिक है।
रही बात मीडिया के कंटेंट सुधरने की - तो मित्रों आपके आसपास कई ऐसे रसूखदार लोग होंगे- जो सुधार और उदारीकरण का जमकर विरोध करते रहे हैं। लेकिन अपने अखबार या टीवी चैनल में प्रबंधन की इच्छा के नाम पर भूत नचाते रहते हैं, सेक्स की छौंक दर्शकों को परोसते रहते हैं। जब चैनल चलाने या अखबार निकालने की बारी आती है तो उनकी सारी क्रांतिधर्मिता धरी की धरी रह जाती है। वैसे इसका भी कोई ठोस सबूत नहीं है कि प्रबंधन ने उन्हें ऐसा करने के लिए कहा ही हो - लेकिन प्रबंधन के नाम पर ऐसा करने में उन्हें अपनी क्रांतिधर्मिता में कोई कमी नजर नहीं आती। दक्षिणपंथी पर तो आरोप लगते ही हैं, वह बेचारा बना ही ऐसा है। लेकिन क्रांति करने वाले लोग क्यों झुक जाते हैं, ये अब तक मेरी समझ में नहीं आया। आपको नजर नहीं आ रहा हो मित्रों इस नजरिए से अब मीडिया संस्थानों की ओर देखिए। आपको इस बहस का औचित्य समझ में आ जाएगा।

2 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

मैं मीडिया से संबंधित नहीं हूँ. मैं एक वरिष्ट नागरिक हूँ जो मीडिया को काफ़ी हद तक समाज में सनसनी फैलाने का दोषी मानता हूँ. हिन्दी ब्लाग जगत पर इन लोगों की गुटबंदी मैंने देखी है. किस तरह यह एक दूसरे पर अपशब्दों की वौछार करते हैं यह भी देखा है. अरे भाई, कम से कम हिन्दी ब्लाग जगत को तो इस गुटबंदी से माफ़ करो.

राकेश त्रिपाठी ने कहा…

उमेश जी सही कहा आपने--जाति को लेकर नंगा नाच वही लोग करते हैं जो क्षमता से कमज़ोर हैं...वहीं करते हैं -दलित साहित्य की भी बात...अरे भाई साहित्य तो साहित्य होता है...दलित साहित्य क्या है...प्रेमचंद ने तो कभी नहीं किए ऐसे वर्गीकरण...लेकिन कमज़ोरों और सर्वहारा की सबसे अच्छी तस्वीरें उन्हीं की कहानियों और उपन्यासों में दिखते हैं। उनकी आखिरी कृति-गोदान में होरी का जो कुछ हुआ...आज दलित साहित्य के पैरोकार बता दें..किसने लिखा है वैसा। लिख देते राजेंद्र यादव कुछ वैसा ही कभी....साहित्य का वर्गीकरण वही करते हैं जो कमजोर होते हैं..फिर कहते हैं -देखो,,मैं और अच्छा हो सकता था लेकिन मैं दलित हूं..इसलिए ऐसा हूं...टीवी न्यूज़ में भी ऐसे दो-चार लोग हैं जिनकी पहचान सिर्फ दलित नेता या अक्षम मार्क्सवादी के तौर पर की जाए तो ज्यादा बेहतर। इन्हें कभी कोई अच्छा प्रोड्यूसर नहीं कह पाया, रिपोर्टर नहीं कह पाया...अरे दो-चार स्क्रिप्टें ही ऐसी लिख मारते कि ज़माना याद करता....लेकिन तब अपनी कमियां कैसे छुपाते...सो 'दलित'नाम का जो एक बैनर कांख के नीचे दबाया है...जब जरूरत पड़े कांख से निकाल कर हवा में फहरा दो झंडे की तरह।