सोमवार, 10 मार्च 2008

राजनीति और पत्रकारिता के रिश्ते

उमेश चतुर्वेदी
हिंदी के मशहूर पत्रकार राजेंद्र माथुर ने पत्रकारों के बारे में कहा था कि वे सिर्फ घटनाओं के साक्षी होते हैं-लिहाजा उनकी रिपोर्ट भर कर सकते हैं। उनके मुताबिक घटनाएं घटें-ये कोई जरूरी नहीं। उनके इस कथन का मकसद साफ है कि अगर पत्रकार निरपेक्ष ढंग से रिपोर्ट करने या सोचने वाला नहीं रहा-तो वह किसी घटना को निष्पक्ष तरीके रिपोर्ट नहीं कर पाएगा। यहां एक सवाल और उठता है कि पत्रकार और पत्रकारिता की प्रतिबद्धता किसके प्रति होनी चाहिए-किसी राजनीतिक दल,जनता या फिर नैतिक मूल्यों के प्रति।
इस बहस को आगे बढ़ाने से पहले हमें ये भी जान लेना चाहिए कि राजनीति के बिना पत्रकारिता के अस्तित्व की कल्पना बेमानी है। कहावत है कि आप जिसके साथ सबसे ज्यादा वक्त गुजारते हैं -आपके व्यक्तित्व पर उसका सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ता है। जाहिर है कि राजनीति का पत्रकारिता पर आज काफी असर डाला है। इसकी वजह समझना आसान है। दरअसल राजनीति ही पूरी दुनिया को संचालित करती है। सरकारें बनती हैं या बिगड़ती हैं तो राजनीति के ही जरिए और पत्रकारिता उसी पर निगाह रखती है। इसके चलते उसका दिन रात का साबका राजनीति से ही पड़ता रहता है। जब हम पत्रकारिता की चर्चा कर रहे हैं तो इसका मतलब पत्रकारों से भी है-क्योंकि बिना पत्रकार के पत्रकारिता की कल्पना भी वैसी है-जैसे बिना पत्तियों का पेड़।
दुर्भाग्यवश आज के दौर में राजनीतिक दलों के प्रति पत्रकारों की प्रतिबद्धता दिखनी आम हो गई है। ये असर सबसे ज्यादा उन पत्रकारों में दिखता है-जो लगातार और लगातार राजनीतिक रिपोर्टिंग ही करते हैं। जिस राजनीतिक दल को वे कवर करते हैं,धीरे-धीरे उनकी प्रतिबद्धता भी उसी राजनीतिक दल की ओर झुकती जाती है। फिर वे कुछ इसी तरह सोचने लगत हैं-जैसे उस दल विशेष के नेता और कार्यकर्ता सोच रहे होते हैं। उस दल विशेष के हित में सोचने का असर उनकी रिपोर्टों पर भी दिखना शुरू हो जाता है। शायद यही वजह है कि राजनीतिक दल भी उन पत्रकारों को अपने पक्ष में साधने की कोशिशें करते रहते हैं। इसका असर भी होता है। आज के दौर के एक जाने-पहचाने पत्रकार अपने छात्र जीवन में वामपंथी रूझान वाली छात्र राजनीति के समर्थक और कार्यकर्ता थे। कालांतर में एक अखबार में उन्हें नौकरी मिली और उन्हें कवर करने को मिली बीजेपी। फिर एक दौर ऐसा आया कि बीजेपी के आम कार्यकर्ता और उनमें कोई अंतर ही नहीं दिख रहा था। उनकी सारी वामपंथी राजनीति हवा हो गई थी।
आज के दौर में कई ऐसे चोटी के पत्रकार हैं -जिनका समाजवाद से गहरा रिश्ता रहा है। छात्रजीवन में वे लोहियावादी रहे हैं और कांग्रेस के विरोध को वे जैसे जन्मसिद्ध अधिकार मानते रहे हैं। लेकिन लंबे समय से कांग्रेस को कवर करते-करते उनका सारा समाजवाद काफूर हो गया है। आज उनकी रिपोर्टों को बारीकी से पढ़ें तो आपको लगेगा -मानों वे कांग्रेस का प्रचार कर रहे हैं।
वैसे भी ये असर सत्ताधारी दलों को कवर करने वाले पत्रकारों पर कुछ ज्यादा ही दिखता है। विपक्षी दलों को कवर करने वाले पत्रकारों की उस दल विशेष के प्रति लगाव उतना नहीं होता। ये तय मानिए कि कल कोई जनता दल या फिर समाजवादी पार्टी सत्ता में आ गई तो उसे कवर करने वाले पत्रकार भी जनता दल और समाजवादी पार्टी की ही तरह सोचना शुरू कर देंगे। तो क्या हम मान लें कि सत्ता ही पत्रकारों को भ्रष्ट बनाने की कोशिश करती है। इसका जबाब पूरी तरह हां में हैं।
एक दौर था कि सत्ता का विरोध पत्रकारिता की पहचान माना जाता था। जो जितना तेज-तर्रार और तेवर वाला पत्रकार हुआ,उतना ही उसे बड़ा और गंभीर माना जाता था। लेकिन आज मान्यताएं बदल चुकी हैं। आज पत्रकार का मतलब है कि वह अपनी आम लोगों के प्रति पक्षधरता को कितनी जल्दी तोड़कर नौकरी करने और नौकरी बचाने की मानसिकता से खुद को जोड़ लेता है और इस व्यवस्था का खुद को अंग बना लेता है। जिसने तेवर दिखाए-आम लोगों के अधिकारों की बात की,उनकी नौकरी गई। फिर जब पत्र ही नहीं रहा तो पत्रकारिता कैसी रही।
कहना ना होगा कि इसे पत्रकारिता संस्थानों ने ही बढ़ावा दिया है। कई अखबारों और टेलीविजन चैनलों में शीर्ष पदों पर बैठे ऐसे लोग मिल जाएंगे - जिनका बतौर प्रोफेशनल खास योगदान नहीं है। फिर भी वे रसूखदार पदों पर हैं और जो वास्तविकता पर आधारित आम लोगों की पत्रकारिता कर रहे हैं-उनके जिम्मे पत्रकारिता संस्थान के सबसे निचले तबके के ही काम हैं। अभी हाल ही में एक बड़े अखबार के संपादक को अपने एलीट दिल्ली ब्यूरो में राजनीतिक संवाददाता की जरूरत हुई। कुछ पत्रकारों ने उनसे संपर्क किया तो संपादक महोदय ने सबसे एक ही शर्त रखी-प्रधानमंत्री कार्यालय के किसी बड़े अधिकारी से अपनी सिफारिश करा दो तो समझो नौकरी पक्की। वैसे भी राजनीतिक ब्यूरो में रिपोर्टर और संवाददाता के पदों पर आज किसी भी अखबार में सिर्फ रिपोर्टिंग और बेहतरीन लेखन कौशल के सहारे नौकरी पाना आसान नहीं रहा। दूसरे शब्दों में कहें तो बेहद असंभव सी चुनौती हो गई है। आज अखबारों के मालिक और कारपोरेट मुखिया हों या फिर चैनलों के कर्ता-धर्ता,अपने यहां राजनीतिक रिपोर्टर को रखते हुए एक ही सवाल पूछते हैं-आप किसको जानते हैं। यहां उनका मतलब किसी बड़े नेता और अधिकारी से होता है। इसी तरह आज बिजनेस और आर्थिक बीट पर काम करने वाले पत्रकार से ये पूछा जाने लगा है कि आप किस नामी-गिरामी बिजनेसमैन या उद्योगपति को जानते हैं। कहने को तो ये सब खबरें उगाहने के नाम पर होता है। लेकिन असलियत ये है कि प्रबंधन इस बहाने रिपोर्टर या संवाददाता के जरिए संवाद और खबर के साथ ही दूसरे काम कराना चाहता है।
लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि जिसने सचमुच की पत्रकारिता की होगी- उसके लिए बड़े और रसूखदार व्यक्ति की अहमियत से ज्याद बड़े और अहम मुद्दे आम लोगों की चिंताएं रही होंगी। यानी हर बड़ा और रसूखदार व्यक्ति की गड़बड़ी उजागर करना उसकी प्राथमिकता में रही होगी- अब आप ही सोचिए कि कौन ऐसा उदार बड़ा और ताकतवर आदमी होगा जो ऐसे पत्रकार को नौकरी दिलाना चाहेगा।
तो क्या ये मान लिया जाय कि बिना राजनीतिक सहयोग के बिना पत्रकारिता में रसूखदार पद पाना बिल्कुल असंभव है। इसका जवाब कुछ हद तक हां होते हुए भी ना में है। दरअसल ऐसी नियुक्तियां पाए लोग सत्ता बदलते ही अप्रासंगिक हो जाते हैं और प्रबंधन के लिए उनकी स्थिति निचोड़े हुए नीबू जैसी हो जाती है और जो सचमुच अपनी बदौलत,अपने काम की बदौलत आते हैं-कोई भी प्रबंधन उसे नींबू निंचोड़ने की तरह इस्तेमाल नहीं कर सकता। इसलिए ऐसे लोगों की जरूरत सदा बनी रहेगी। हां उनके लिए सफलता और उपर उठने का रास्ता सीधा-सपाट नहीं होगा। बल्कि उन्हें रपटीली और घुमावदार राहों से ही गुजरना होगा।
राजनीति की दुनिया में कहावत है कि कोई किसी का दोस्त या लंबे समय का दुश्मन नहीं होता। लेकिन पत्रकारिता ही एक मात्र विधा है-जिससे राजनीति सिर्फ और सिर्फ दोस्ती ही निभाना चाहती है और कई मायने निभा भी रही है। दरअसल जिस तरह पत्रकारिता के लिए राजनीति और राजनेता जरूरी हैं,कुछ उसी तरह राजनीति के लिए पत्रकार और अखबार या चैनल भी जरूरी हैं। ऐसे में राजनीति का ये खेल जारी रहेगा कि वह अपने मनपसंद लोगों को रसूखदार जगहों पर पत्रकारीय नौकरियां दिलाते रहें। राजनेता चाहेंगे ही उनका चंपू ही उसके काम लायक अखबार में जगह बनाए। लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि स्वतंत्रचेता लोगों के लिए जगह बनी रहेगी। ये सच है कि आज के दौर में ऐसे लोगों का बोलबाला कुछ ज्यादा ही हो गया है। ऐसे में प्रतिभाओं को सामने आने में देर लग सकती है। लेकिन हमें एक तथ्य नहीं भूलना चाहिए। अपने देश की अखबारी पत्रकारिता आजादी के आंदोलन की कोख से निकली और क्रांतिकारी वक्त में पली बढ़ी है। जाहिर है,उसके आदेशों और क्रांति की तपिश पर ही आगे बढ़कर ये यहां तक पहुंची है। हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि दुनिया के चाहे जो भी काम और संस्कृति ही क्यों ना हो-उसके अपने आदशZ और उसकी नैतिकता होती है। लंबी रेस के घोड़े इन नैतिकताओं और आदर्शों पर चलने वाले लोग ही होते हैं। यहां पर महान अमेरिकी पत्रकार वाल्टर लिपमैन के शब्द याद आते हैं-दुनिया जैसी भी है़,चलती रहेगी। उसमें मैं एक वाक्य जोड़ना चाहूंगा कि दुनिया के आदर्श बचे रहेंगे और ये ही दुनिया की इस महान विधा को बचाए रख सकेंगे।

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