रविवार, 9 मार्च 2008

बनें पत्रकारिता की सस्ते गल्ले जैसी दुकान …

पत्रकारिता की पढ़ाई की दुकानों का स्तर सुधारने के लिए इन दिनों प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल ने वीणा उठाया है। काम नेक है- क्योंकि पत्रकारिता की दिन-दूना रात चौगुना बढ़ती दुकानों ने पत्रकारिता के छात्रों को भ्रमित कर रखा है। लेकिन दिल्ली में तीन मार्च को इस सिलसिले में जो बैठक हुई- उसमें सबसे खटकने वाली बात इन दुकानों के दुकानदार ही छाए हुए थे। ये कुछ वैसी ही बात हुई – जैसे कि चोरों को ही चोरी रोकने की जिम्मेदारी दे दी जाय। ऐसे में बात शायद ही बने। ना तो इसे प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया समझ रही है – ना ही माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय। पत्रकारिता वैसा पेशा नहीं है – जैसे आम प्रोफेशन हैं। लिहाजा होना तो ये चाहिए था कि सक्रिय पत्रकारिता जगत के लोगों से सुझाव मांगे जाते और जो दुकानें खुल रही हैं – उन्हें कड़ाई से रोक कर उन्हें सहकारी सस्ते- गल्ले की दुकानों में तब्दील किया जाए। तभी पत्रकारिता का भला होगा। यहां भी ध्यान रखना होगा कि ये दुकानें भी आम राशन की दुकानों की तरह भ्रष्टाचार का अड्डा ना बनें। लेकिन लाख टके का सवाल ये है कि इसे सुनता कौन है।

2 टिप्‍पणियां:

इष्ट देव सांकृत्यायन ने कहा…

यही तो हमारे देश की सबसे बड़ी विडम्बना है. यहाँ सरकार ही ऐसे लोग चला रहे है जिन्हें सींखचों के पीछे होना चाहिए. तो बाकी जगहों पर सही कैसे होगा कुछ भी?

बेनामी ने कहा…

तनिक ज्‍यादा ही कठोर हो गये पंडीजी। पता नहीं आप किन लोगों को प्रोफेसनल मानते हैं शशिशेखर, आलोक मेहता आदि के बारे में आपका क्‍या खयाल है। कमर अहमद नक्‍वी को किस खाने में रखेंगे। यह आप सही कह रहे हैं कि मीडिया संस्‍थाओं के लोगों की मात्रा अधिक थी। लेकिन यह तो शुरुआत ही है और कहीं न कहीं से किसी बहस की शुरुआत होती ही है। कम से कम इस बहाने दुकानदारों की नजर अपने उपर गयी तो सही। और इसी मौके ने आपको इस टिप्‍पणी के लिए भी प्रेरित किया। इस पर आपसे गंभीर टिप्‍पणी की अपेक्षा है।