मंगलवार, 30 दिसंबर 2008

नई सुबह की उम्मीद

यह लेख अमर उजाला में प्रकाशित हो चुका है।
उमेश चतुर्वेदी
हर बीते हुए लमहे की अपनी कुछ उपलब्धियां होती हैं तो कुछ असफलताएं भी होती हैं। जाहिर है दो हजार आठ ने भी कुछ कामयाबियां हासिल कीं तो कुछ नाकामयाबियों से भी उसे रूबरू होना पड़ा है। बीता हुआ जब इतिहास में तब्दील होता है तो उसकी महत्वपूर्ण कामयाबियां और नाकामियां ही आने वाले वक्त को याद रह पाती हैं। इतिहास में दर्ज होते वक्त हर लमहे की कोशिश होती है कि उसकी कामयाबियों की ही चर्चा हो। भारत में अभी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भले ही परिपक्वता की उम्र सीमा में नहीं पहुंच पाया है – लेकिन उसकी भी यही कोशिश रही है कि उसकी कामयाबियां ही इतिहास में दर्ज हों। लेकिन साल के आखिरी महीने के ठीक पहले मुंबई में जो कुछ हुआ और उसे लेकर मीडिया का जो रवैया रहा ...वह कम से कम इतिहास में दर्ज होने की सदइच्छाओँ पर भारी पड़ गया। मुंबई में आतंकी हमले के दौरान इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ---खासकर खबरिया चैनलों की भूमिका इतनी खराब रही कि ना सिर्फ मीडिया के अंदर – बल्कि समाज के दूसरे तबकों से इसके खिलाफ सवाल जमकर उठे। आतंकवादी हमले के खिलाफ सुरक्षा बलों की कार्रवाई की पल-पल की रिपोर्टिंग भले ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की मजबूरी रही हो – लेकिन उसे जिम्मेदारी पूर्ण तरीके से नहीं निभाया गया। पहले से ही सांप-बिच्छू नचाकर टीआरपी बटोरने के खेल के लिए आलोचना का पात्र रहे मीडिया ने कथित आतंकवादी का फोनो चलाकर जैसे खुद ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली।
दो हजार आठ का मीडिया परिदृश्य मुंबई में आतंकी घटनाओं की रिपोर्टिंग के दौरान अपनी गैर जिम्मेदारी के लिए जमकर याद किया जाएगा। मानव का स्वभाव है ...वह बाद की घटनाओं को पहले की घटनाओं की बनिस्बत कहीं ज्यादा गहराई से याद करता है। मुंबई के ताज होटल और ट्राइडेंट में आतंकी हमले के ठीक पहले दिल्ली में 13 सितंबर को सीरियल धमाके हुए थे। उस वक्त मीडिया के एक बड़े तबके ने जिम्मेदार रिपोर्टिंग का परिचय दिया था। हालांकि एक – दो प्रमुख चैनलों के कुछ रिपोर्टरों ने एक लड़के को थैला लेकर भागते देखकर टाइम बम की अफवाह फैलाने में भी देर नहीं लगाई थी। हालांकि अफरातफरी के आलम में ऐसी एक – दो घटनाएं हो जाती हैं। लेकिन उस दिन रिपोर्टरों ने घायलों को अस्पताल पहुंचाने में जितना जिम्मेदराना रूख दिखाया था – उसकी आम लोगों ने तारीफ ही की थी। घायलों को परिजनों को जरूरी सहायता को रिपोर्टरों ने रिपोर्टिंग से ज्यादा तवज्जो देकर अपनी जिम्मेदारी का बखूबी परिचय दिया था। ये टेलीविजन रिपोर्टर ही थे – जिन्होंने नीरो की तरह चैन से बांसुरी बजा रहे शिवराज पाटिल के ड्रेस सेंस पर स्टोरियां की। अखबारी रिपोर्टरों से कहीं ज्यादा टीवी रिपोर्टरों के निशाने पर ही पाटिल के सफेद झक्कास – कलफदार सूट रहे। यही वजह है कि मुंबई धमाकों के बाद शिवराज पाटिल को विदा होना पड़ा।
टीवी की जिम्मेदार रिपोर्टिंग के नाम 13 मई के जयपुर और 26 जुलाई के अहमदाबाद धमाके भी रहे। हालांकि आरडीएक्स और साइकिलों के जरिए धमाके को दिखाने के लिए जिस तरह कुछ खबरिया चैनलों के न्यूज रूम में जिस तरह साइकिलें लाई गईं और उनकी घंटियां बजाईं गईं ...उसे लोगों ने पसंद नहीं किया। लेकिन जयपुर की गंगजमुनी संस्कृति को आगे लाने और एक – दूसरे संप्रदायों के लोगों की ओर से शुरू किए गए राहत उपायों को लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दमदार खबरें दिखाने में आगे रहे। इसका असर भी दिखा। आतंकवादी अपने नापाक मंसूबों में कामयाब नहीं रहे। बम धमाकों के जरिए आतंकी दरअसल देश के प्रमुख संप्रदायों के बीच दरार कायम करने की कोशिश में रहते हैं ताकि लोग आपस में लड़ें और उनकी कोशिशें कामयाब हों।
मुंबई धमाकों की तरह एक और घटना की रिपोर्टिंग में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपनी जिम्मेदारी का परिचय नहीं दे सका। वह घटना रही 15 मई को नोएडा के एक पॉश इलाके में एक डॉक्टर राजेश तलवार की लड़की आरूषि और उनके नौकर हेमराज की हत्या कर दी गई। इस हत्याकांड को लेकर मीडिया ने बिना जांचे-समझे जमकर रिपोर्टिंग की। कई चैनलों ने आरूषि के घर अपनी रिपोर्टिंग टीम को स्थायी तौर पर तैनात कर दी। नोएडा पुलिस ने बिना जांचे-परखे जैसी सूचनाएं उन्हें मुहैय्या कराई – उन्होंने अपने टीवी पर्दे पर साया करने में देर नहीं लगाई। मासूम आरूषि के नौकर हेमराज से शारीरिक संबंध, राजेश तलवार के उसकी सहयोगी एक और डॉक्टर से संबंध जैसी खबरों को पुलिस ने मीडिया को दी और बिना जांचे-परखे छापने में देर नहीं लगाई।
इसका फायदा भी टीवी चैनलों को मिला। जिन दिनों आरूषि की हत्या हुई – उस समय आईपीएल के मैच चल रहे थे। टैम के मुताबिक आईपीएल के मैचों को महज 7.5 प्वाईंट टीआरपी हासिल हुई तो समाचार चैनलों को 9 प्वाईंट टीआरपी मिली। टैम के मुताबिक इस हत्याकाण्ड के कारण सबसे ज्यादा 2 प्वाईंट की टीआरपी बढ़ोत्तरी हिन्दी चैनलों को मिली। टैम के समानांतर चलने वाली रेटिंग एजेंसी एमैप का भी कहना है कि आईपीएल मैचों के बीच भी आरूषि हत्याकाण्ड के कारण टीवी चैनल टीआरपी लपकने में कामयाब रहे। 23 मई को जिस दिन आरुषि के बार राजेश तलवार को हत्या के अंदेशा में गिरफ्तार किया गया उस दिन मोहाली और हैदराबाद के बीच मैच था। लेकिन इस मैच को टीवी पर जितने दर्शक उससे ज्यादा दर्शकों को आरूषि हत्याकाण्ड की बदौलत अपने साथ जोड़कर रखा। उस दौरान आईपीएल को 0.96 टीआरपी मिली तो पांच प्रमुख हिन्दी अंग्रेजी चैनलों को 1.0 प्वाइंट टीआरपी हासिल हुई।
ये सच है कि टीआरपी के लिए काम करना चैनलों की मजबूरी है। लेकिन मुंबई हमले के बाद जिस तरह मीडिया कटघरे में खड़ा हुआ और मीडिया को अपनी आचार संहिता बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा। उसके लिए भी बीते साल को याद किया जाएगा। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि आने वाले साल में देसी खबरिया चैनल पिछली गलतियां नहीं दुहराएंगे।

बुधवार, 24 दिसंबर 2008

मंदी का बहाना है ....


उमेश चतुर्वेदी
कहते हैं दीपक तले अंधेरा होता है। इस कहावत का सबसे बेहतरीन नमूना इन दिनों मीडिया की अपनी खुद की दुनिया है। पीलीवर्दीधारियों (जेट एयरवेज की एयरहोस्टस की वर्दी) की खबर को मनमोहनी अर्थव्यवस्था के मुंह पर बड़ा तमाचा बताने वाले मीडिया वाला खुद पीली वर्दीधारियों की हालत में पहुंच गया है। शायद ही कोई मीडिया हाउस है – जहां मंदी के नाम पर छंटनी की तलवार नहीं चल रही है। लेकिन मीडिया के अंदरूनी दुनिया की कोई खबर नहीं बन रही है।

कहा जा रहा है कि 1929 की भयानक मंदी के बाद ये अब तक की सबसे बड़ी मंदी है। मंदी के उस दौर में खाने तक के लाले पड़ गए थे। लेकिन अभी तक हालात खास नहीं बदले हैं। हां विलासिता की चीजों के बाजार – मसलन ऑटोमोबाइल और रिटेल सेक्टर में कुछ गिरावट जरूर दिख रही है। लेकिन उपभोक्ता बाजार अभी तक कायम है। इसका ही असर है कि टेलीविजन के पर्दे से विज्ञापन गायब नहीं हुए हैं। कुछ यही हालत अखबारों की भी है। वहां भी विज्ञापनों भरे पृष्ठों में कमी नहीं आई है। ये सच है कि मंदी के चलते अखबारी कागजों की कीमतें जरूर बढ़ी हैं। इसकी कीमत में बीस से चालीस फीसद तक की बढ़त देखी जा रही है। ये सच है कि इन बढ़ी कीमतों का अखबारों की अर्थव्यवस्था पर असर जरूर पड़ा है। लेकिन इतना कि लोगों की रोजी-रोटी पर बन आए...उन लोगों की रोजी-रोटी पर ...जिन्होंने खुद इन अखबारों को सजाने – बचाने में खून-पसीना एक किया है ...तकलीफदेह जरूर है। लेकिन छंटनी का बाजार तेज है।

आइए देखते हैं कि अखबारी दुनिया की इस छंटनी की हकीकत क्या है ? बिजनेस स्टैंडर्ड के गुजराती संस्करण, दैनिक जागरण और टीवी 18 के प्रस्तावित गुजराती बिजनेस अखबार और गुजराती बिजनेस भास्कर को छोड़ दें तो हर अखबार में संपादकीय विभाग से गिने-चुने लोगों की ही छंटनी की गई है या की जा रही है। सबसे ज्यादा इस छंटाई प्रक्रिया के शिकार पेजीनेटर बन रहे हैं या बनाए जा रहे हैं। पेजीनेटर यानी कंप्यूटर पर पेज बनाने वाले लोग। तकनीकी तौर पर ये लोग न्यूजरूम में संपादकीय विभाग के कर्मचारी होते हैं। डेस्क टॉप पब्लिशिंग के दौर की शुरूआत के साथ ही पेजीनेटरों के जिम्मे ही अखबारों के पेज बनाने का जिम्मा रहा है। लेकिन अब मंदी के नाम पर ये जिम्मेदारी उपसंपादकों पर डाली जा रही है। उनसे कहा जा रहा है कि अब वे ही पेज बनाएं। अब तक अपने पेज के लिए सामग्री का चयन की उनकी जिम्मेदारी रही है। उसका शीर्षक लगाना और पेज को सजाना उपसंपादकों का प्राथमिक काम रहा है। लेकिन मंदी ने उन पर अब पेज बनाने का बोझ भी डालना शुरू कर दिया है। एक अखबार में तकरीबन सभी पेजीनेटरों को मंदी के नाम पर हटा दिया गया। इससे संपादकीय विभाग में भी हड़कंप मच गया और अखबार निकालने में मुश्किलें आने लगीं। इसका आभास जब मैनेजमेंट को हुआ तो उसने बाकायदा संपादकीय विभाग की बैठक ली और उन्हें ये भरोसा दिलाया कि उनकी नौकरियां सलामत हैं। लेकिन उनसे ये आग्रह जरूर किया गया कि वे पेज बनाने की जिम्मेदारी भी ले लें।
ये पहला मौका नहीं है – जब आर्थिक बदहाली या मंदी के नाम पर अखबारी संस्थानों में छंटनी की गई है। नब्बे के दशक में मनमोहनी अर्थव्यवस्था की ओर भले ही देश बढ़ रहा था – लेकिन तब मीडिया का वैसा विस्तार नहीं हो रहा था। तकनीक बदल रही थी। डीटीपी का जोर बढ़ रहा था। उस दौर में तकनीक में बदलाव के नाम पर अखबारों की दुनिया से तीन पद धीरे-धीरे खत्म किए गए। तब अखबारों में कंपोजिटर का पद भी होता था। हाथ से लिखने के दौर में कंपोजिटर और टाइपिस्ट की दुनिया हुआ करती थी। उनके बिना अखबारी न्यूज रूम की कल्पना नहीं की जा सकती थी। लेकिन आर्थिक बदहाली के दौर में कंपोजिटर और प्रूफरीडर का पद पूरी तरह समाप्त कर दिया गया। और ये जिम्मेदारी भी आज की तरह उपसंपादकों पर डाल दी गई। ये सच है कि आज ज्यादातर रिपोर्टर अपनी कॉपी कंप्यूटर पर टाइप करके ही भेजते हैं – लेकिन ये भी सच है कि भारत जैसे विविधताओं वाले देश में अब भी हाथ से लिखने वाले लोगों की संख्या कम नहीं है। हाथ से लिखी खबरें-टिप्पणियां और लेख...सबकुछ आता है और इन सबको प्रकाशित करने की जिम्मेदारी निभाने वाले उप संपादकों इन्हें टाइप और कंपोज भी करना पड़ता है। इसके साथ ही उन्हें प्रूफ भी पढ़ना पड़ता है।

मैनेजमेंट की दुनिया में इन दिनों एक शब्द जमकर चल रहा है – मल्टीस्किल्ड। यानी एक शख्स को तमाम तरह के काम आने चाहिए। इटली के मशहूर चित्रकार और कवि लियोनार्दो द विंची के बारे में कहा जाता था कि एक ही बार में वे यदि दाहिने हाथ से चित्र बना रहे होते तो वे दूसरे हाथ से कविता भी उतनी ही प्रौढ़ता और गहराई से लिख लेते थे। आज के उपसंपादकों से विंची जैसा ही बनने की उम्मीद की जा रही है। और इसका बहाना बनी है मंदी ...लेकिन मैनेजमेंट ये भूल जाता है कि विंची या विंची जैसा कोई एक या दो ही शख्स होता है। इसका असर कम से कम आम पाठकों को रोजाना अखबारों के पृष्ठों पर दिखता है। जब प्रूफ की गलतियां किसी अच्छी खबर या अच्छे लेख का मजा किरकिरा कर देती हैं।
सवाल ये है कि ये कब तक जारी रहेगा...क्या इसका कोई अंत है ....पीली वर्दीधारियों की चिंताओं को राष्ट्र की चिंता बनाने वालों की ये जायज परेशानियां किसी की चिंता और परेशानी की सबब बनेगी.. जब तक इन सवालों का जवाब ढूंढ़ने के लिए किसी और की ओर पत्रकार समाज देखता रहेगा ...उप संपादक की पीड़ाएं और बोझ बढ़ता रहेगा। मंदी के बहाने चक्की की चाल तेज होती रहेगी।

मंगलवार, 28 अक्तूबर 2008

क्यों महान हैं गांधी ...


गांधी जी की महानता को लेकर आए दिन सवाल-जवाब और तर्क-वितर्क होते रहे हैं। ऐसे ही सवालों से लबरेज एक जर्मन जिज्ञासु युवती का सहारा समय उत्तर प्रदेश के सीनियर प्रोड्यूसर राजकुमार पांडेय का सामना हुआ तो उन्हें इसका जवाब खोजने के लिए काफी कवायद करनी पड़ी। उसी कवायद को उन्होंने शब्दों में पिरोकर मीडिया मीमांसा को भेजा है। पेश है राजकुमार पांडेय जी के विचार-
महात्मा गांधी को महान किस चीज ने बनाया। ये सवाल भले ही अटपटा लगे लेकिन इसका जबाव इतना आसान नहीं है। वो भी उस हालत में जब कोई विदेशी बातचीत के दौरान ये सवाल पूछ बैठे। एक बातचीत में जर्मनी की एक युवती ने ये प्रश्न खड़ा कर दिया। बैठकी पत्रकारों की थी, लिहाजा हमें जवाब देना ही था। तरह तरह के उत्तरों के बीच मैंने कहा कि गांधी की ईमानदारी, उनकी सादगी और मानव मात्र के प्रति उनके आदर भाव ने गांधी को महान बनाया। एक मित्र ने बीच में ही टोक दिया- गांधी ने कमजोरों को सशक्त किया था। इस लिए वे महान बने। लेकिन पश्चिमी समाज में आदमी की ताकत को पैसे से तौला जाता है। लिहाजा जर्मन युवती के लिए ये जवाब हैरत की बात थी। ऐसे में उसे फिर से सवाल दागना ही था - गांधी के पास वो ताकत कहां से आई कि वो किसी और को ताकत दे सकें।
प्रश्न मासूम और तर्किक लग रहा था। जिसे भारतीय दर्शन की पारंपरिकता से परिपूर्ण समझ न हो तो उसे ऐसे सवाल परेशान करते ही रहेंगे। दरअसल ताकत का अर्थ पश्चिमी दर्शन भौतिक ताकत से ही लगाता है। आत्मिक ताकत का अंदाजा उसे तब तक नहीं हो सकता, जब तक भारतीय जीवन पद्धति और दर्शन से वाकफियत न हो।
मैने उस युवती से बातचीत कर शायद उसे काफी हद तक संतुष्ट कर दिया, लेकिन चूंकि चर्चा में मदिरा भी शामिल थी लिहाजा कोई खास नतीजा नहीं निकलना था।
लेकिन मुझे लगता है कि हम भारतीय लोग अपने लिए प्रतिमूर्तियां गढ़ते हैं। कई बार किसी और की बनाई हुई छवि भी हमें इतनी रोचक लगती है कि हम उसके दीवाने हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो हम छविवादी है। इसी से मिलता जुलता एक तर्क सादृश्यमूलक युक्ति भी है। हालांकि सादृश्यमूलक युक्ति में हम बनी बनाई छवियों में अपने जैसा कुछ देख कर उसे अपना मानने लगते हैं। फिर उस छवि को हम तरह तरह की कसौटियों पर कसते हैं। ये कसौटिंयां इतनी खरी होती हैं कि बहुत सी छवियां या प्रतिमूर्तियां समय के साथ भंग भी होती जाती है। इसी छविवाद के तहत श्री राम, श्री कृष्ण भगवान हैं और अमिताभ, शाहरुख हमारे हीरो हैं। हम सचिन और गावसकर के दीवाने हैं।
गांधी जी की छवि भारत में उनके जुझारुपन, और आंदोलनों के प्रति उनके अपने नज़रिए के कारण बनी। साथ में उनकी सादगी, ईमानदारी और मानव मात्र को सम्मान देने के उनके भाव ने उन्हें संत का स्थान दिलाया। उन्हें छवियों के पीछे चलने की हमारी प्रवृति का लाभ मिला और चल पड़े जिधर दो डग मग में चल पड़े कोटि पग उसी ओर.... की स्थिति हो गयी। गांधी जी के कहने पर करोड़ों लोग उनके पीछे चलने लगे।
दरअसल इनमें से कोई भी एक गुण अकेला किसी को बड़ा तो बना सकता है। लेकिन महान नहीं। गांधी जी जिस तरह से व्यक्तिगत स्वतंत्रता के हामी थे, या फिर जो सादगी उनके पास थी, जिस तरह से वे ईमानदार थे, सार्वजनिक और राजनीतिक जीवन में उन सब चीजों ने मिल कर उन्हें महान बनाया। भारतीय परंपरा में अब से तकरीबन तीन दशक पहले जो संत कम से कम कपड़े पहन कर सादगी के साथ तपस्या में लगा रहता था वही महात्मा कहलाता था। तमाम आशाराम या फिर किसी और की तरह भौतिक साधनों का भयंकर इस्तेमाल करने वाला संत नहीं माना जाता था। गांधी का युग वही था। उन्होंने भी बहुत कुछ छोड़ा। वे एक सफल आंदोलन के महानायक के रूप में भारत आए थे। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में अपने नेतृत्व की शक्ति दिखा दी थी। उन्होंने यहां पर देखा कि मानव मानव में गहरा भेद है। थोड़े से अभिजात्य या ब्राह्मण जाति के लोग तो शूद्र की परछाई से भी दूर भागते हैं। वही शूद्र उनका मैला सिर पर उठा कर चल रहा है। हरिजनों कों मंदिर में प्रवेश करने का अधिकार नहीं है। गांधी जी ने बराबरी का नारा ही नहीं दिया, मंदिरों के दरवाजे हरिजनों के लिए खुलवाए। सबको बताया कि सभी मानव बराबर है। तब जा कर सुदूर बिहार के हरिजन टोले में भी “गान्ही बाबा” की टोली तैयार हो गई। हिंदू धर्म की सहिष्णुता को अपने जीवन में दिखा कर उन्होंने मुसलमानों का भी भरोसा हांसिल किया। अब ज्यादातर भारतीयों को वह छवि दिखने लगी, जो उन्हें आजादी दिला सकने वाले नेता में दिखनी चाहिए थी। तब जा कर लोगों ने ही उन्हें वह ताकत दे दी- जिससे वे महान हो सके। जिस ताकत से अंग्रेज फौज और अंग्रेजी हाक़िम डरें। ये गांधी जी ही थे, जिनके सम्मान में उन्हीं के विरुद्ध सुनवाई करने वाले जज ने खड़े हो कर कुछ पक्तियां कहीं। इसकी दूसरी मिसाल शायद ही इतिहास में कहीं और मिले। उनके प्रति लोगों के प्रेम का ही सबूत था कि उन्होंने एक आंदोलन शुरू करने को कहा और आंदोलन चल पड़ा। बाद में जब चौरा चौरी कांड हुआ तो तमाम खतरों के बावजूद उन्होंने आंदोलन वापस लेने में भी हिचक नहीं दिखाई। आंदोलन रुक भी गया। अगर हम गांधी को सिर्फ नेता मानते तो उनके कहने पर आंदोलन चला तो देते, उनकी एक आवाज पर आंदोलन रोकते नहीं। इसकी भी मिसाल कम ही मिलेगी।
गांधी जी के बारे में हम भारतीय तो बचपन से ही जानते हैं, फिर भी ये सब कुछ लिखने की वजह ये हुई कि कहीं कोई और अगर गांधी के बारे में सवाल करे तो हमारे पास उनके राष्ट्रपिता बनने के कारणों की दार्शनिक वजह भी रहे।

सोमवार, 20 अक्तूबर 2008

निशाने पर रिपोर्टर ...


खबरिया चैनलों की बढ़ती दुनिया में पत्रकारिता में कैरियर बनाने की इच्छा रखने वाले नौजवानों को सिर्फ और सिर्फ चमक-दमक ही नजर आती है। लेकिन इसके पीछे भी एक स्याह और मटमैली दुनिया है। रिपोर्टरों की मजबूरी है कि वे घटना का सीधा कवरेज करें। ना करें तो बॉस की गालियों की बौछार उसका दफ्तर में स्वागत करती है। घटनास्थल पर अमर सिंह जैसे दोमुहें नेताओं को कवर करें तो ओखला जैसी घटनाएं सामने आती है। टेलीविजन की दुनिया की इसी स्याह -सफेद तस्वीरों पर नजर डाल रहे हैं जी न्यूज के वरिष्ठ संवाददाता विनोद अग्रहरि
अठारह अक्टूबर की सुबह टीवी पर ब्रेकिंग न्यूज़ चल रही थी। ख़बर किसी और के बारे में नहीं, ख़ुद ख़बर देने वालों के बारे में थी। जामिया नगर में कई पत्रकारों पर भीड़ ने हमला बोल दिया। कुछ टीवी रिपोर्टर घायल हुए, कैमरामैनों को चोटें आईं। एक अगवा चैनल ने ख़बर को ज़ोर-शोर से उछाला जिसका अपना रिपोर्टर भी ज़ख्मी हुआ था। चैनल ने ख़बर दिखाने और पत्रकारों पर हमला करने वालों की जमकर मज़म्मत भी की। पत्रकार जामिया नगर में अमर सिंह की सभा को कवर करने गए थे। सभा ख़त्म होने के बाद जब वो अमर सिंह से जवाब-तलब कर रहे थे, तो वहां मौजूद स्थानीय नेता के समर्थकों को पत्रकारों के सवाल आपत्तिजनक लगे और उन्होंने पत्रकारों की धुनाई कर दी। तो ये है आज की पत्रकारिता का सूरते हाल।
वैसे ये पहली मर्तबा नहीं है, जब पत्रकारों पर हमले हुए हैं। अगर सिर्फ हालिया घटनाओं का ज़िक्र करें तो भी पिटने वालने पत्रकारों की एक लिस्ट तैयार की जा सकती है। ख़ासकर टीवी पत्रकार (रिपोर्टर और कैमरामैन) आए दिन लोगों के गुस्से का शिकार हो रहे हैं। लोगों का गुस्सा पूरे मीडिया जगत के ख़िलाफ होता है, लेकिन ज्यादातर हाथ लगते हैं टेलीविजन रिपोर्टर और कैमरामैन। ज़ाहिर है मीडिया का यही दोनों वर्ग लोगों से सबसे ज़्यादा सीधे तौर पर जुड़ा हैं, इसलिए मीडिया के ख़िलाफ बन रही आबोहवा का शिकार इन्हीं दोनों को होना पड़ रहा है। आज मीडिया के बारे में लोगों की सोच कितनी तेज़ी से बदल रही है, इसका सही जवाब या तो ख़ुद लोग दे सकते हैं, या फिर वो रिपोर्टर जो ख़बरों की कवरेज के लिए उनके पास जाता है। कई जगहों पर उसे लोगों की गालियां सुननी पड़ती है, बेइज्जत होना पड़ता है। कई बार मार खाने की नौबत आ जाती है। अगर रिपोर्टर विवेक से काम न लें तो हड्डियों का नुकसान हो सकता है।
इस नुकसान का ख़तरा सबसे ज़्यादा होता है टीवी में काम करने वाले सिटी और ‘जूनियर’ क्राइम रिपोर्टरों को। इन्हें प्रेस कॉन्फ्रेंस या पीआर टाइप स्टोरी करने का तोहफा नहीं मिलता। लोकेशन पर पहुंचने पर इनका कोई स्वागत नहीं करता, बिज़नेस कार्ड नहीं मांगता, बल्कि इन्हें बड़ी हिकारत की नज़र से देखा जाता है। ‘आ गए मीडिया वाले……..इन्हें तो बस मसाला चाहिए......टीवी पर तो ऐसे दिखाते हैं’ ......ऐसे ही कई चुभाने वाले तीर आते ही उन पर छोड़े जाते हैं। अब तो फिल्मों में भी रिपोर्टरों पर मज़ाक उड़ाने वाली लाइनें लिखी जाने लगी हैं। लेकिन रिपोर्टर अपना काम तो छोड़ नहीं सकता। जल्द ही उसे इन सबकी आदत पड़ जाती है और वो भीड़ में से ही किसी काम के शख्स की पहचान कर ख़बर की डीटेल लेनी शुरु कर देता है। घटना बड़ी हुई तो उसकी दिक़्क़त बढ़ जाती है। चुनौती अब ख़बर को ज़ोरदार बनाने की होती है। इसके लिए पीड़ित की बाइट जैसी अनिवार्य चीज़ें चाहिए होंगी। उसका जुगाड़ कैसे होगा, ...’वो तो किसी से बात भी नहीं कर रहे। क्या किया जाए, इसी उधेड़बुन में वो लगा रहता है। काम तो किसी तरह हो जाता है, लेकिन मन में एक अजीब सी अकुलाहट होती है, जिसे ख़ुद वही रिपोर्टर समझ सकता है। शायद उससे कहीं ज़्यादा एक्सपीरिएंस रखने वाला उसका बॉस भी नहीं। उनके दौर में हाल क्या रहा होगा, ये तो वही बेहतर जानते होंगे, लेकिन कहना ग़लत न होगा कि तब और अब की पत्रकारिता में जो महत्वपूर्ण बदलाव हुए हैं, उनमें से ये एक है।
कम से कम दिल्ली में तो मीडिया के प्रति लोगों का नज़रिया काफी बदला है। कभी टीवी रिपोर्टर जैसी उपाधि पर गर्व करने वालों के लिए आज कई जगहों पर अपनी पहचान छिपानी ज़रूरी हो जाती है। दिल्ली के महरौली बम धमाके की कवरेज करने गए एक शीर्ष न्यूज़ चैनल के रिपोर्टर को सिर्फ इसलिए अपना आई कार्ड अंदर रखना पड़ा क्योंकि उसी वक़्त उसके चैनल में चल रही एक ख़बर से स्थानीय लोग भड़क गए थे। अगर उसने फौरन वहां से भाग निकलने की समझदारी न की होती, तो भीड़ उस पर कोई भी क़हर बरपा सकती थी। दु:ख की बात ये है कि लोगों का ये रिएक्शन शायद चैनलों की दशा और दिशा तय करने वालों तक उतनी अच्छी तरह से नहीं पहुंच पा रहा, और अगर पहुंच भी रहा है तो वो इसके प्रति संजीदा नहीं है। आज अगर किसी मुद्दे पर आम लोगों की प्रतिक्रिया ‘वॉक्सपॉप’ लेना हो, तो रिपोर्टर ही जानता है कि उसे कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं। मीडिया से बात करने के लिए बड़ी मुश्किल से लोग तैयार होते हैं। वो दिन अगर बीते नहीं तो बहुत कम बचे हैं जब मीडियावाले लोगों की आंखों के तारे हुआ करते थे। आज तो लोगों को मीडिया तब अच्छी लगती है, जब उन्हें उसका इस्तेमाल करना हो। पड़ोसी से झगड़ा हुआ तो मीडिया बुला ली। एमसीडी ने अतिक्रमण हटाया तो चैनल के असाइनमेंट पर फोन कर दिया कि बदमाशों ने घर तोड़ दिया। शायद अब लोगों के लिए मीडिया की अहमियत इतनी ही रह गई है।
लेकिन इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है? मेरे ख़्याल से उनका नंबर तो कहीं बाद में आता है जो लोगों की नज़र में इसके लिए ज़िम्मेदार माने जाते हैं। आम धारणा यही है कि रिपोर्टर ही चैनल में ख़बर देता है और जो कुछ दिखाई देता है, अच्छा या बुरा, उसी की वजह से होता है। मगर टीवी में काम करने वाला जानता है कि हक़ीक़त क्या है। चैनल की पॉलिसी से लेकर दिन भर की ख़बरों का खाका तैयार करने में उसका अंशदान कितना है, ये टेलीविज़न में काम करने वाला समझ सकता है। तो फिर लोगों के गुस्से का शिकार अकेले निरीह रिपोर्टर और कैमरामैन ही क्यों हों?

रविवार, 5 अक्तूबर 2008

अब नौसिखुओं का कौन खयाल रखेगा...

वाराणसी के पत्रकार सुशील त्रिपाठी की असामयिक मौत सहारा समय उत्तर प्रदेश चैनल के सीनियर प्रोड्यूसर राजकुमार पांडेय के लिए व्यक्तिगत क्षति है। सुशील जी उनके गुरू भी रहे हैं और हम-प्याला, हम-निवाला मित्र भी। राजकुमार पांडेय ने अपने इस मित्र, गुरू और हमदम को भावभीनी श्रद्धांजलि पेश की है।
बगल में कुछ कागज़ात, बालों पर लगा चश्मा और कुछ सोचते हुए चलते जाना। ऐसे ही मैंने देखा सुशील जी को। तकरीबन 92-93 में मुझे आज इलाहाबाद में नौकरी मिली और सुशील जी वहां बड़े पत्रकार थे। साल भर तक सिर्फ नमस्कार बंदगी का ही संबध रहा। वे रिपोर्टिंग में बैठते थे और हम डेस्क के लोग लीडर प्रेस बिल्डिंग के हॉल में। डाक डेस्क पर काम था लिहाजा जब रिपोर्टिंग का काम शुरु हो रहा होता था उससे पहले डेस्क और खास तौर से डाक डेस्क का काम सिमट रहा होता था, क्योंकि सिर्फ दो या शायद चार पन्ने ही इलाहाबाद से छपते थे। बाकी का अखबार बनारस से आता था। वही बनारस जहां का आज अखबार था और सुशील त्रिपाठी भी। इस लिहाज से भी हम जैसे नए लोगों के लिए सुशील जी बहुत बड़े थे। बस नमस्कार करना और निकल लेना, इससे ज्यादा का ताल्लुक नहीं था।
एक दिन दोपहर में किसी कारण से मेरे डेस्क इंचार्ज ने कोई रिपोर्ट करने भेज दिया। शायद दफ्तर में कोई नहीं था। रिपोर्ट करके लाया। अगले दिन रिपोर्ट मेरे नाम से यानी बाई लाइन अखबार में छप गई। इससे पहले शायद आज अखबार में एक दो ही रिपोर्ट बाई लाइन छपी थी। अगले ही दिन मुझे अपने डेस्क इंचार्ज के जरिए फरमान मिला कि अब रिपोर्टिंग करनी है। बाद में पता चला कि डेस्क से रिपोर्टिंग में मुझे लाने का आदेश सुशील जी की पहल पर ही मिला था। बहरहाल मैं अपने मनचाहे काम पर लग गया था। धीरे धीरे वह बीट भी मिल गईं, जो इलाहाबाद में रहते हुए अहम होती हैं। फिर भी सुशील जी के कारण मेरे पास सिटी पेज बनवाने की जिम्मेदारी होती थी। आज में उन दिनों पेस्टिंग के जरिए ही पेज बनता था। इससे भी लगातार मुझे सीखने को मिलता रहा।
इस दौरान सुशील जी से निकटता बढ़ती रही और उनके बहुआयामी सृजनात्मक व्यक्तित्व को देखने के मौके मिलते रहे। मैने देखा कि किस तरह से वे छोटी छोटी सी चीजों पर भी अपना असर डालते थे। जब भी मेरी या किसी और युवा रिपोर्टर की कोई खबर उन्हें अच्छी लगती, वे उसी समय पेज पर खुद ही केरिकेचर बना देते थे और हम लोगों के लिए ये किसी इनाम से कम नहीं होता। मेरे एक और साथी राजेश सरकार को कभी -कभार ये पुरस्कार मिलता था। जब भी उनसे किसी नए मुद्दे पर कोई बात होती, कहते – अरे चिरकुट यही लिख क्यों नहीं देते।
और लगातार सुशील जी लिखते रहे। इलाहाबाद के बौद्धिक हलके में उनके तकरीबन हर रिपोर्ट की चर्चा जरुर होती थी। जब संघ परिवार के विशेष अनुरोध पर शिव परिवार दूध पी रहा था, उस दिन मेरा साप्ताहिक अवकाश होता था। मैं किसी काम से सिविल लाइंस में बैठा था। वहीं से दफ्तर फोन कर सुशील जी को नमस्कार किया। उन्होंने हाल चाल पूछते हुआ अपना तकिया कलाम पढ़ा- और... मैने कहा बहुगुणा जी भी दूध पी रहे हैं। उन्होंने फिर पूछा – अबे तुमने पिलाया या नहीं। मैंने सहजता से बता दिया- मां मंदिर में गई थी, लेकिन कह रही थी कि भीड़ में धक्के से दूध चम्मच से छलक गया, गणेश जी ने नहीं पिया। फिर सुशील जी ने लगभग हड़काया- अरे चिरकुट सब जगह हंगामा है आकर यही सब लिख डालो। मै दफ्तर पहुंचा। रिपोर्ट बनायी, जैसा देखा था, बहुगुणा के आदमकद प्रतिमा का दूध पीना और मां के चम्मच से दूध छलकना, वगैरह सब कुछ लिख डाला। अगले दिन मेरी रिपोर्ट तो बाटम के रूप में छपी, लेकिन बाई लाइन नहीं थी। अलबत्ता सुशील त्रिपाठी की रिपोर्ट पूरे पेज भर की थी और हमेशा की तरह 16 प्वाइंट की बाई लाइन थी। कोफ्त हुई और नाराज़गी भी। बाद में पता चला कि नगवा कोठी (आज के मालिकों के निवास स्थान) ने भी पर्याप्त मात्रा में गणेश जी को दूध पिलाया था। साथ ही किसी ने सुशील जी से इसका जिक्र भी कर दिया था। सुशील जी ने अपनी रिपोर्ट में ये भी तंज किया -जो जितना बड़ा है उसने उतना ही दूध पिलाया। पता चला कि सुशील जी का तो कुछ नहीं हुआ लेकिन अगर मेरी रिपोर्ट बाइ लाइन होती मेरी खैर नहीं थी। मैं तो निपटा ही दिया जाता।
फिर मैं दिल्ली आ गया और सुशील जी बरेली के रास्ते वापस बनारस पहुंच गए। उनसे लंबी मुलाकात इलाहाबाद के पिछले अर्धकुंभ मेले में ही हो पाई। उस दौरान भी उनका एक्टीविस्ट जगा हुआ था। उनका कहना था कि ये मेला बौद्धों का मेला था और इसे ब्राह्मणों ने कब्जा किया। इस पर उन्होंने काफी लिखा भी था। उनकी आखिरी रिपोर्ट भी बौद्ध चिह्नों के खोज पर ही थी। सुन कर लगा कि सुशील जी सच्चे पत्रकार थे और हमेशा खोज में लगे रहते थे। उनकी शख्सियत के दूसरे पहलू चित्रकारी में भी उनका यही रूप दिखता रहा है। उन्हें बनारसी परंपराए लुभाती तो थीं, लेकिन वे पोंगापंथी के विरोध में ही रहते थे। जब से उनके जाने की खबर सुनी तो हर मिलने वाले से उनकी ही बातें करने का मन होता रहा। वैसे भी जिसने उन्हें देखा है उसके लिए उन्हें भुला पाना मुमकिन ही नहीं है, क्योंकि कभी भी आवाज आ सकती है.. का बे या फिर का गुरु.......

शनिवार, 4 अक्तूबर 2008

नहीं रहे मस्तमौला बाबा


उमेश चतुर्वेदी
भड़ास मीडिया पर प्रकाशित इस रिपोर्ट को हूबहू हम प्रकाशित कर रहे हैं। सुशील त्रिपाठी से मेरी भी जानपहचान थी। भाई राजकुमार पांडे के जरिए मैं बाबा से कुल जमा तीन बार मिल पाया था। लेकिन हर मुलाकात में मेरा सामना एक मस्तमौला बनारसी से हुआ। ऐसा मस्तमौला बनारसी - जिसे काशी की पत्रकारिता के प्रतिमानों का पूरा खयाल था। बाबू राव विष्णुराव पराड़कर के साथ सुशील जी भले ही काम ना कर पाए हों- लेकिन उन्होंने ईश्वरचंद्र सिनहा और सत्येंद्र गुप्त जैसे विशुद्ध पत्रकार के साथ काम जरूर किया था। शायद यही वजह थी कि वह सरोकारों वाली पत्रकारिता को ही तरजीह देते थे। साहित्य, संस्कृति और बौद्ध दर्शन के प्रति गहराई तक लगाव महसूस करने वाले सुशील जी की मौत की वजह बौद्ध दर्शन से जुड़ी एक जानकारी की खोज ही बनी। उन्हें किसी से पता चला था कि नौगढ़- चकिया की पहाड़ियों में बुद्ध के पैरों के निशान हैं और उसी की खोज में वे गए थे तो सही - सलामत, लेकिन लौटे घायल होकर और अब वे पंचतत्व में विलीन हो चुके हैं। उनके शिष्य और दैनिक हिंदुस्तान वाराणसी के समाचार संपादक संदीप त्रिपाठी भी अलग टीम में उसी खबर के लिए गए थे। इस बैलौस बनारसी, सरोकार वाले पत्रकार को मीडिया मीमांसा की भावभीनी श्रद्धांजलि।

रिपोर्टिंग करते वक्त घायल हुए वरिष्ठ पत्रकार सुशील त्रिपाठी को बचाया नहीं जा सका। इस प्रतिभावान और सरोकार वाले पत्रकार की शहादत से सभी पत्रकार ग़मजदा हैं। पिछले 70 घंटे से कोमा में रहे सुशील त्रिपाठी अंततः होश में नहीं आ पाए। उन्हें सिर समेत शरीर के कई हिस्सों में गंभीर चोटें आईं थीं। वे दैनिक हिंदुस्तान के वाराणसी संस्करण के लिए रिपोर्टिंग करने प्रमुख संवाददाता की हैसियत से वाराणसी के पास नौगढ़-चकिया के दुर्गम इलाके में गए थे। वे एक एक्सक्लूसिव स्टोरी पर काम कर रहे थे।

वहां पहाड़ पर से उतरते वक्त उनका पैर फिसल गया और वे 100 फीट नीचे खाई में जा गिरे। उन्हें खाई से निकालकर अस्पताल में भर्ती कराने में काफी वक्त लग गया। बीएचयू मेडिकल कालेज के डाक्टरों की टीम ने उन्हें होश में लाने के लिए भरपूर कोशिश की पर कामयाबी नहीं मिली।

बीच-बीच में उनकी हालत खराब होती तो कभी अच्छी होती। आशंकाओं और उम्मीदों के बीच हिचकोले खाते सुशील जी के परिजन, मित्र, चाहने वाले उनके स्वस्थ होने की कामना करते रहे पर सुशील जी ने शायद इस दुनिया से विदा लेना ही बेहतर समझा। तभी तो वो अपने हजारों चाहने और जानने वालों को निराश कर अपनी विशिष्ट स्टाइल में अपने किसी मिशन पर किसी नई दुनिया की ओर निकल पड़े। सुशील जी के घर में उनका एक बेटा है और एक बिटिया हैं। बिटिया छोटी हैं और बेटा इंटर पास करने के बाद पत्रकारिता के क्षेत्र में आने की तैयारी कर रहा है।

52 वर्षीय सुशील त्रिपाठी बनारस समेत पूरे पूर्वांचल और हिंदी पत्रकारिता जगत में अपने सरोकार, तेवरदार लेखन, साहित्य से लेकर समाज तक की बनावट व बुनावट की गहरी समझ, बेलौस जीवन, फक्कड़पन वाले अंदाज, समाजवादी स्टाइल, बनारसी मस्ती और मिजाज को जीने के चलते हमेशा जाने जाएंगे। उन्होंने पूर्वी उत्तर प्रदेश की पत्रकारिता के लिहाज से कई नए ट्रेंड शुरू किए। दैनिक हिंदुस्तान के वाराणसी संस्करण की लांचिंग से ही इस अखबार की नेतृत्वकारी टीम में शामिल रहे सुशील त्रिपाठी की दमदार कलम के दीवाने पाठकों की काफी बड़ी संख्या रही है। बनारस के अस्सी की बैठकों को उसी अंदाज में पेश करने से लेकर गंगा तट की बतकही और समाज-देश की नब्ज को आम गंवई की निगाह से पकड़ कर उसकी ही भाषा में पेश करने की मास्टरी सुशील जी में थी। साहित्य, संगीत, संस्कृति से लेकर राजनीति तक के दिग्गज लोग सुशील त्रिपाठी के लेखन के फैन थे।

एक ईमानदार व्यक्तित्व, एक मिशनरी जर्नलिस्ट, एक सचेत नागरिक, एक मस्तमौला बनारसी...सब कुछ तो थे सुशील जी। हां, उन जैसे बहुत कम थे बनारस में, और अब वो भी नहीं रहे।

बुधवार, 20 अगस्त 2008

पार्टनर आपकी बीट क्या है !

उमेश चतुर्वेदी
पत्रकार क्या घटनाओं का साक्षी भर है या फिर उसका काम उसे निर्देशित करना भी है। पत्रकारिता जगत में इस सवाल पर बहस तभी से जारी है – जब पत्रकारिता अपने मौजूदा स्वरूप में उभरकर सामने आई है। दुनिया का पहला पत्रकार संजय को माना जाता है – पत्रकारिता की अकादमिक दुनिया ने इसे बार-बार पढ़ाया – बताया है। इस आधार पर देखें तो पत्रकार की भूमिका साक्ष्य को को ज्यों का त्यों पेश कर देने से ज्यादा की नहीं है। संजय की महाभारत के युद्ध में कोई भूमिका नहीं थी। उन्होंने युद्ध के मैदान में जो घटनाएं घटते हुए देखा- उसे ज्यों का त्यों महाराज धृतराष्ट्र को सुना दिया। पत्रकारिता की दुनिया में एक बड़ा वर्ग ऐसा रहा है – जिसका मानना है कि पत्रकार का काम घटनाओं को पेश करना भर है। पत्रकारिता की अकादमिक दुनिया में खबरों की वस्तुनिष्ठता की जो चर्चा की जाती है, उसका भी मतलब यह भी है। हिंदी में जो पारंपरिक पत्रकार हैं – जिनकी पीढ़ी आज वरिष्ठता की श्रेणी में है – उसका कम से कम यही मानना है। हिंदी के मशहूर संपादक राजेंद्र माथुर मानते थे कि पत्रकार घटनाओं का साक्षीभर होता है – ये जरूरी नहीं कि घटनाएं उसके ही मुताबिक घटें।
ऐसे में ये सवाल उठता है कि आज जो रिपोर्टिंग हो रही है – पत्रकारिता के इन मानकों पर कितना खरा उतरती है। ये सभी जानते हैं कि अखबारनवीसी और राजनीति का चोली दामन का साथ है। इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के आखिरी सालों की टेलीविजन पत्रकारिता इसका अपवाद हो सकती है। चैनलों का मानना है कि खबर वही है – जिसे वे दिखाते हैं। यानी भूत-प्रेत और चुड़ैलों की कहानी, यू ट्यूब पर पेश किए जाने वाले हैरतनाक वीडियो। लेकिन अखबारों की खबरों का सबसे बड़ा स्रोत आज भी राजनीति की दुनिया ही है। खबरें चाहें देश की राजधानी के स्तर की हो या गांव की पंचायत के स्तर पर – सियासी उठापटक और दांवपेंच, उससे प्रभावित और उसे फायदेमंद लोगों की दुनिया ही खबरों के केंद्र में है। और हो भी क्यों नहीं – अधिकारियों की ट्रांस्फर-पोस्टिंग से लेकर कोटा-राशन और ठेके तक में सियासत का ही दखल है। किसी की हत्या अगर घरेलू कारणों से भी हो गई तो हत्यारे को पकड़वाने से लेकर उसे छुड़ाने तक की खींचतान में सियासत हावी है। ऐसे पत्रकारिता भला सियासी रंगरूटों से लेकर कर्णधारों तक से कैसे दूर रह सकती है।
अगर पत्रकारिता के पारंपरिक विचारकों की मानें तो इस दुनिया में रहने के बावजूद पत्रकारों को चंदन के पेड़ की ही तरह रहना चाहिए। सांपों के लिपटे रहने के बावजूद वह अपनी शीतलता नहीं खोता। लेकिन प्रलोभनों और खींचतान की इस दुनिया में ऐसा रह पाना इतना आसान है। बीसवीं सदी के आखिरी दशक के शुरूआती सालों में ये सवाल देश के पत्रकारिता सबसे प्रमुख पत्रकारिता संस्थान के छात्रों को मथ रहा था। एक कार्यक्रम की कवरेज सीखने के लिए उन्हें भेजा गया। राजधानी दिल्ली के एक फाइवस्टार होटल में आयोजित इस कार्यक्रम में उन्हें महंगे गिफ्ट दिए गए। कार्यक्रम की कवरेज के बाद लौटे छात्रों का सवाल था कि क्या महंगे गिफ्ट उनकी खबर सूंघने की वस्तुनिष्ठता पर सवाल नहीं खड़े करती ! और हर जगह जारी इस गिफ्ट संस्कृति से कैसे निबटा जाय। सवालों की झड़ी को सुलझा पाना आसान नहीं रहा।
कुछ यही हालत सियासत को नजदीक और गहराई से कवर कर रहे पत्रकारों की भी है। उनकी विचारधारा चाहे जो भी हो – लेकिन जिस पार्टी को वे कवर करने लगते हैं – उनसे उनका रागात्मक लगाव बढ़ते जाता है। फिर उन्हें उस पार्टी की कमियां कम ही नजर आती हैं। ये तो भला हो डेस्क पर बैठे लोगों का – जो खबरों को सही तरीके से अखबारी नीति के मुताबिक पेश करने में भी अपने मूल दायित्व की अदायगी करते रहते हैं। इसका हश्र ठीक वैसा ही होता है – जैसा लंबे समय से किसी बीट पर तैनात पुलिस कांस्टेबल की बीट बदल जाती है। तब उसके दिल पर सांप लोटने लगता है। संपादकीय नीति के भी तहत कुछ पत्रकारों की बीट बदल दी जाती है तो उनकी भी हालत कुछ ऐसी ही हो जाती है। दिल्ली में खासतौर पर कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी कवर करने वाले पत्रकारों की बीट ब्यूरो चीफ या राजनीतिक संपादक बदल दे तो उनका दिल का चैन और रात की नींद खो जाती है। वैसे इन पंक्तियों के लेखक का कांग्रेस और बीजेपी बीट कवर करने वाले ऐसे पत्रकारों के पाला पड़ा है – जिन्हें देखकर भ्रम होने लगता है कि वे पत्रकार हैं या फिर उस पार्टी विशेष के कार्यकर्ता। कांग्रेस बीट कवर करने वाले प्रिंट मीडिया के पत्रकारों में एक ऐसा ग्रुप सक्रिय है- जो ना सिर्फ नए पत्रकारों- बल्कि अपने ग्रुप से बाहर के पत्रकारों को सवाल नहीं पूछने देना चाहता। सवाल अगर असहज हो तो फिर यह ग्रुप पार्टी और पार्टी प्रवक्ता को बचाने में पूरी शिद्दत से जुट जाता है। गलती से उसने अपने अखबार और इलाके की जरूरत के मुताबिक कोई सवाल पूछ लिया तो समझो- उसकी शामत आ गई। दिलचस्प बात ये है कि इस ग्रुप में वरिष्ठ पत्रकार भी शामिल हैं। ये पूरा ग्रुप भरसक में कोशिश करता है कि प्रवक्ता से असहज सवाल न पूछे जा सकें और गलती से ऐसा सवाल उछाल भी दिया गया तो प्रेस कांफ्रेंस को हाईजैक करने की कोशिश शुरू हो जाती है। ग्रुप में से कोई उस सवाल पर मुंह बिचकाने लगता है तो कई बार कोई वरिष्ठ सवाल पर ही सवाल उठा देता है - ह्वाट ए हेल क्वेश्चन यार। इसके बावजूद किसी ने सवाल पूछने पर जोर दिया तो हो सकता है इस ग्रुप का कोई पत्रकार सवाल पूछने वाले पत्रकार से मुखातिब ये भी बोलता पाया जाए- अरे चुप भी रहोगे।
1999 के चुनाव में कई बार एक मशहूर दैनिक की ओर से कांग्रेस कवर करते वक्त हुए अनुभव ने इन पंक्तियों के लेखक के पत्रकारिता जीवन की आंखें ही खोल दी। विज्ञान और तकनीकी मंत्री कपिल सिब्बल तब कांग्रेस प्रवक्ता का जोरदार तरीके से मोर्चा संभाले हुए थे। उनकी ब्रीफिंग के बाद उस ग्रुप के पत्रकार उनकी डीप ब्रीफिंग में पहुंच जाते थे और लगे हाथों उंगलियों से गिनकर बताने लगते थे कि कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभर रही है। कई तो उसे दो सौ का आंकड़ा पार करा देते तो कई सवा दो सौ। इस जमात के लोग आज भी कांग्रेस कवर कर रहे हैं। लेकिन कपिल सिब्बल इस जुगलबंदी का मजा तो लेते थे – लेकिन कभी-भी इस पर ध्यान नहीं देते थे। अपने ईमानदार आकलन से वे पूछने लगते कि ये आंकड़ा कहां से आएगा तो उस जमात के चेहरे पर हवाईयां उड़ने लगतीं। 1999 के चुनावी नतीजे गवाह हैं कि कपिल सिब्बल सही थे और कोटरी में शामिल पत्रकारिता की दुनिया के कर्णधारों का आकलन कितना हवाई था। यहां ये बता देना जरूरी है कि डीप ब्रीफिंग में पार्टियों के प्रवक्ता ऑफ द बीट जानकारियां देते हैं। उन्हें आप रिकॉर्ड पर उनके हवाले से नहीं पेश कर सकते। जब भी हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता की चर्चा होती है - अंग्रेजी के पत्रकारों को ज्यादा प्रोफेशनल बताया जाता है। लेकिन इस गिरोहबाजी में अंग्रेजी के कई वरिष्ठ पत्रकार शामिल हैं। कई बार असहज सवालों से ऐसे ग्रुप के पत्रकार प्रवक्ताओं और नेताओं को उबारने के लिए सवाल को ही घुमा देते हैं या बीच में ही टपककर दो कोनों से ऐसा सवाल पूछेंगे कि बहस की धारा ही बदल जाएगी। मजे की बात ये है कि अब टीवी के भी कई पत्रकार ऐसे ग्रुपों में शामिल हो गए हैं।
पत्रकारिता का ये कोरस गान क्राइम रिपोर्टिंग में भी बदस्तूर जारी है। वहां पुलिस की दी हुई सूचनाएं मानक के तौर पर पेश की जाती है। फिर अधिकांशत: उसे ज्यों का त्यों पेश कर दिया जाता है। अगर डेस्क चौकस ना हो तो तकरीबन हर क्राइम रिपोर्टर आज पुलिस प्रवक्ता की ही भांति काम कर रहा है। वहां खुद से पुलिस के दिए आंकड़ों को जांचने की कोशिश कम ही की जाती है। वैसे पत्रकारिता में एक वर्ग ऐसा भी है – जिसका काम सिर्फ सियासी दलों की हर भूमिका के पीछे नकारात्मकता की ही खोज करना है। कांग्रेस और बीजेपी कवर करने वाले पत्रकारों की जमात में ऐसे कई लोग शामिल हैं।
अगर राजेंद्र माथुर की ही बातों पर गौर करें तो पत्रकार का काम पानी में पड़े उस कांच की तरह होना चाहिए – जो देखे तो सबकुछ – लेकिन उस पर पानी का कुछ भी असर ना हो। दूसरे शब्दों में कहें तो अर्जुन की तरह उसकी निगाह सिर्फ चिड़िया की आंख यानी खबर पर होनी चाहिए। लेकिन सियासत की खींचतान ने पत्रकारिता को जो सबसे बड़ा उपहार दिया है – वह खींचतान और सियासी दांवपेच ही है।
सियासी सोहबत में पत्रकारिता किस तरह अपनी असल भूमिका को भूल जाती है – इसका बेहतरीन उदाहरण है 2004 का इंडिया शाइनिंग का नारा और उसे लेकर पत्रकारिता का सकारात्मक बोध। तब पूरे देश की पत्रकारिता को भी कुछ वैसा ही पूरा देश चमकता नजर आ रहा था – जैसे तब के शासक गठबंधन एनडीए को। एनडीए के बड़े-बड़े नेताओं की ही तरह मीडिया को भी एनडीए के दोबारा शासन में लौटने की पूरी उम्मीद थी। लेकिन 13 मई 2004 को खुले पिटारे ने इंडिया शाइनिंग की हकीकत तो बयां की ही – सियासी सोहबत में अपनी असल जिम्मेदारी – समाज को सही तौर पर देखने –समझने के मीडिया के दावे की पोलपट्टी खोलकर रख दी थी।
ऐसा नहीं कि सियासी सोहबत में अपनी बीट कवर करने वाले पत्रकारों को अपनी बीट के लोगों – विषयों और राजनीतिक दलों से इश्क ही हो जाता है और उसकी तरफदारी ही करते नजर आते हैं। कई राजनीतिक पत्रकार ऐसे भी हैं – जो अपनी बीट के राजनीतिक दल के लिए सिर्फ और सिर्फ विपक्षी की भूमिका निभाते हैं। जेम्स आग्सटस हिक्की की तरह अगर ये विरोध लोककल्याण के लिए है तो उसका स्वागत होना चाहिए। यही पत्रकारिता का धर्म भी है। लेकिन सिर्फ आलोचना के लिए ही आलोचना की जाय तो उसे मंजूर करना पत्रकारिता का धर्म कैसे हो सकता है।
ऐसे में सवाल ये है कि क्या पत्रकारिता के लिए ये प्रवृत्ति अच्छी है..क्या इससे पत्रकारिता की पहली शर्त वस्तुनिष्ठता बनी रह सकती है। जवाब निश्चित रूप से ना में है। ऐसे में जरूरत है कि इस कोटरी पत्रकारिता की अनदेखी की जाय। सियासी सोहबत में पत्रकारिता की मूल भावना पर कोई असर ना पड़े। इसके लिए मुकम्मल इंतजाम की जरूरत है। यह कैसे हो – इसे खुद पत्रकारिता को ही तय करना पड़ेगा।

शनिवार, 12 जुलाई 2008

मराठी टीवी पत्रकार चाहिए ....

प्रतिष्ठित मराठी दैनिक सकाल के जल्द शुरू होने जा रहे मराठी टेलीविजन चैनल साम मराठी के लिए दिल्ली ब्यूरो में काम करने के लिए पुरूष और महिला रिपोर्टरों की जरूरत है। शर्त बस इतनी सी है कि उम्मीदवार मराठी अच्छी तरह लिख-बोल सकता हो। ग्रेजुएट हो और दिल्ली में महाराष्ट्र से जुड़ी राजनीति और संस्कृति की अच्छी समझ रखता हो। जो अपनी सेवाएं देना चाहते हैं, वे उमेश चतुर्वेदी से uchaturvedi@gmail.com पर संपर्क करें। शालीन व्यक्तित्व वाले 20 से 25 साल की उम्र वाले नौजवानों/ नवयुवतियों को प्राथमिकता दी जाएगी।

सोमवार, 7 जुलाई 2008

अदम्य जिजीविषा की कहानियां

उमेश चतुर्वेदी
ये समीक्षा अमर उजाला में छप चुकी है।
कैथरीन मैन्सफील्ड ने 35 वर्ष की छोटी-सी ही उम्र में जो भी रचा, उसने अंग्रेजी साहित्य में इतिहास रच दिया। कैथरीन की कहानियों के ¨हिंदी अनुवाद गार्डन पार्टी और अन्य कहानियां को पढ़ते हुए कैथरीन की सोच और ¨जिंदगी के प्रति अदम्य आशावाद को देखना बेहद दिलचस्प है। कैथरीन ने जब लेखन की शुरुआत की उस दौर में कहानी को शास्त्रीय ढंग से लिखना और शास्त्रीय ढांचे में कथानक, कथोपकथन और विषयवस्तु जैसे छह उपादानों में फिट किया जाता था, कैथरीन ने नई सोच के साथ इस फ्रेम को तोड़ा। कैथरीन की कहानियां गार्डन पार्टी हो या फिर दिवंगत कनüल की बेटियां या फिर आदर्श परिवार, हर जगह ना तो कथानक है और ना ही ढांचे में बंधा हुआ कोई अंत। कहानी का अंत एकदम से अचानक भी नहीं होता। क्लाइमेक्स पर अचानक से खत्म होती कहानियों के साथ पाठक भी बिंब और भाव के धरातल पर टंगा रह जाता है। लेकिन कैथरीन की इन कहानियों को पढ़ते हुए कहीं से भी ये बोध जागृत नहीं होता।


कैथरीन का जन्म उन्नीसवीं सदी के आखिरी दिनों में न्यूजीलैंड में हुआ था। न्यूजीलैंड आज भी कोई तेज भागती ¨जदगी वाला देश नहीं है, जैसा कि आज यूरोप, अमेरिका और काफी हद तक भारत और चीन की हालत हो गई है। पंद्रह साल की उम्र में लंदन पढ़ने गई कैथरीन ने फिर दोबारा न्यूजीलैंड का रुख नहीं किया। उसकी ज्यादातर ¨जिंदगी लंदन-पेरिस या जर्मनी में गुजरी। लेकिन न्यूजीलैंड की स्मृतियां कैथरीन की रचनाओं में शिद्दत से उभरती रहीं। गार्डन पार्टी, मिस ब्रेल और उसका पहला नाच पढ़ते हुए न्यूजीलैंड के उस दौर की सुस्त ¨जिंदगी के एक-एक रूप सामने आते हैं।


कैथरीन की जिंदगी का पहला प्यार संगीत था। वह प्रोफेशनल चेलीवादक बनना चाहती थी। लेकिन समय के थपेड़े और अपनी उद्विग्न ¨जिंदगी की बदौलत नहीं बन पाई। लेकिन अपने लेखन में उसने अपने इस पहले प्यार को ¨जिंदा रखा है। उसका पहला नाच और संगीत का सबक जैसी कहानियों में कैथरीन ने अपने इस पहले प्यार को बखूबी बरकरार रखा है। इन कहानियों को पढ़ने के बाद ही पता चलता है कि कैथरीन को संगीत की बारीकियां किस कदर पता थीं। बहरहाल कैथरीन की इन कहानियों के जरिए पहले विश्वयुद्ध के दौर के यूरोपीय समाज और बौçद्धक वातावरण को समझने में मदद मिलती है। उम्मीद है कि ¨हदी के पाठक भी विश्व क्लासिक की इस कृति के जरिए ना सिर्फ अंग्रेजी साहित्य की इस महान कृतिकार की रचनाओं से परिचित होंगे, बल्कि बीसवीं सदी के शुरुआती दौर के यूरोपीय समाज और एक विद्रोही महिला के स्वभाव से भी परिचित हो सकेंगे।

संपादक-कात्यायनी
पुस्तक - गार्डन पार्टी और अन्य कहानियां
कैथरीन मैन्सफील्ड
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य- - 75 रुपये।

रविवार, 6 जुलाई 2008

ये है पुरस्कारों की हकीकत !

पंजाबी साहित्यकार श्याम विमल की यह चिट्ठी जनसत्ता में प्रेमपाल शर्मा के एक लेख के प्रतिक्रियास्वरूप जनसत्ता में प्रकाशित हुई थी। इस चिट्ठी से जाहिर है कि हिंदी में पुरस्कारों की माया कितनी निराली है। लेकिन हकीकत तो ये है कि हिंदी के इस सियासी शतरंज से दूसरी भाषाओं के पुरस्कार अलग हैं। पेश है इसी चिट्ठी के संपादित अंश -
पंजाबी भाषी होकर भी मराठी में लिखी अपनी कविताओं की पांडुलिपि उन्हाचे तुकड़े पर वर्ष 1980-82 का प्रतिस्पर्द्धा पुरस्कार पूर्वकालिक शिक्षा-संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार से मुझे घर बैठे पुरस्कार मिला था। अपने हिंदी उपन्यास व्यामोह के स्वत:किए संस्कृत भाषांतर पर साहित्य अकादम का राष्ट्रीय अनुवाद पुरस्कार 1997 में बिना किसी पहुंच और सिफारिश आदि के बाद मिला। जबकि हिंदी में दस के ज्यादा पुस्तकों पर न दिल्ली में रहते हिंदी अकादमी से न उत्तर प्रदेश में रहते किसी हिंदी संस्थान से एक रूपए का भी पुरस्कार नसीब हुआ।...
दिल्ली की हिंदी अकादमी के सम्मान-पुरस्कार के वास्ते एक बहुपुरस्कृत कवि-मित्र ने मेरा नाम प्रस्तावित करने के लिए आत्म परिचय मांगा। भेज दिया, साथ में संस्कृत की एक सूक्ति भी जड़ दी- 'गंगातीरमपि त्यजंति मलिनं ते राजहंसा वयम्'यानी यदि तुम्हें लगे कि पुरस्कार की देयता में कुछ मलिनता या दाग की प्रतीति है तो कृपया नाम मत भेजना। इसी अकादमी में एक अन्य हितैषी मित्र ने किसी प्रोफेसर आलोचक को अपनी सद्य:प्रकाशित पुस्तक भिजवा देने का जोर डाला। भिजवा दी। मित्र ने उन सेवानिवृत्त प्रोफेसर से, जैसा कि मुझे फोन पर बताया गया, कहा होगा कि मेरी प्रेषित संसमरण पुस्तक पर अपने दो शव्द लिख दें तो उन धवलकेशी प्रोफेसर ने मेरे मित्र से कहा था- 'तुम्हीं पोस्टकार्ड पर मुझे लिखकर दे दो, मैं उस पर हस्ताक्षर कर दूंगा। 'उन वामपंथी के इस रवैये पर मुझे अपनी वर्ष 1980 में लिखी कविता की दो पंक्तियां याद हो आईं -'मेरा बायां हाथ सुन्न है / खून का दौरा नहीं हो रहा।'
एक प्रायोजित युवा पुस्तक-समीक्षक ने बिना पूर्वग्रह से मुक्त हुए मेरी उक्त पुस्तक में छपे हिंदी में बदनाम पुरस्कार प्रसंग पर मसीक्षांत अपना थोथा निचोड़ यह दे डाला -' सिद्धांत (पात्र) को दुख इस बात का है कि सोलह किताबें लिखने के बाद भी पुरस्कार क्यों नहीं मिलता। अपने हासिल पर पुस्तक के अंत में लेखक ने मन भर आंसू बहाए हैं।'आंसू की नाप-तौल निर्धारण के उन्के प्रतिमान के क्या कहने।

शनिवार, 28 जून 2008

साहित्‍य के लिए जगह नहीं !

भाई लालबहादुर ओझा ने अपने ब्लॉग पर हिंदी के मशहूर कथाकार पलाश विश्वास की पीड़ा को जगह दी है। उसे यहां हम भी साभार इसलिए साया कर रहे हैं ताकि मीडियामीमांसा के पाठकों को भी पता चले कि आमलोगों के लिए लिख रहे लोगों के प्रति अपना हिंदी समाज और क्रांतिकारी मेधा का कैसा व्यवहार है।
अपनी ही रचनाओं को नष्‍ट कर देना एक रचनाकार के लिए घोर निराशा का क्षण है। लेकिन उसे इस निर्णय तक ले जाने में कही न कहीं से हम सब भी जिम्‍मेवार हैं। पुरस्‍कारों और फेलोशिप के इस समय में प्रतिभाशील लोगों का छूट जाना, उपेक्षित हो जाना एक निर्मम घटना है। पलाश विश्‍वास का यह पत्र इसका जीवंत दस्‍तावेज है
रचना समग्र को तिलांजलि
पलाश विश्वास

पिछले पैंतीस साल से हिन्दी में लिखते रहने की उपलब्धियां अनेक है। झारखण्ड, उत्तराखण्ड और छत्तीसगढ़ के जनसंघर्षों में भागेदारी। उत्तरप्रदेश और बिहार मे मिला भरपूर अपनापा। मध्य प्रदेश और राजस्थान के पाठकों से संवाद बना रहा। पर जनपक्षधर लेखन के लिए अब कहीं कोई गुंजाइश नहीं बनती। सम्पादक प्रकाशक पूछता नहीं। आलोचक पढ़ते नहीं। तमाम लघुपत्रिकाएं पार्टीबद्ध या व्यवसायिक। व्यवसायिक मीडिया और साहित्य बाजार के कब्जे में। पूरा भारतीय उपमहादेश, यह खणड विखण्ड भूगोल इतिहास बालीवूड, कारपोरेट और क्रिकेट में निष्णात। धोनी और ईशान्त शर्मा की उपलब्धियों के सामने फीके पड़ने लगे हैं अमिताभ, किंग खान, सचिन तेंदुलकर, राहुल, गांगुली और अनिल कुंबले। शेयर सूचकांक और विकास दर में उछाल वाले शाइनिंग इण्डिया में एक अप्रतिष्ठत अपतिष्ठानिक मामूली लेखक की क्या बिसात। किराये के मकान में बसेरा। हिन्दी सेवा के पुरस्कार स्वरुप जीवन में कोई व्यवहारिक कामयाबी नहीं है। मकान मालिक की धमकियां अलग। कूड़ा जमा रखने से आखिर क्या हासिल होगा? पांडुलिपियों से कफन का इंतजाम तो नहीं होना है। सो, बारह तेरह साल की मेहनत की फसल अमेरिका से सावधान की प्रकाशित अप्रकाशित पांडुलिपियां, तमाम पूरी अधूरी कहानियां, उपन्यास, कविताएं, पत्र, पत्रिकाएं आज कबाड़ीवाले के हवाले करके बड़ी शान्ति मिली। अब कम से कम चैन से मर सकूंगा। अब हमें पांडुलिपियों के साथ फूंकने की नौबत नहीं आएगी।

जनम से बंगाली शरणार्थी परिवार से हूं। पिताजी स्वर्गीय पुलिन कुमार विश्वास आजीवन दलित शरणार्थियों के लिए देशभर में लड़ते खपते रहे। तराई में तेलंगना की तर्ज पर ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह के नेता थे। पुतिस ने पीटकर हाथ तोड़ दिया था। घर में तीन तीन बार कुर्की जब्ती हुई। कम्युनिस्ट थे। पर किसानों से कामरेडों के दगा और तेलंगना और ढिमरी ब्लाक के अनुभव से वामपंथ से उनका मोहभंग हो गया। पार्टी निषेधाज्ञा के विरुद्ध सन साठ में असम दंगों के दौरान वहां शरणाज्ञथियों के साथ खड़े होकर वामपंथ से हमेशा के लिए अलग होकर अराजनीतिक हो गये। पर सत्तर दशक के परिवर्तन के ख्वाबों के चलते, उस पीढ की विरासत ढो रहा हूं नन्दीग्राम और सिंगुर के बावजूद।

जनम से बंगाली। एणए किया अंग्रेजी साहित्य से और पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी। पर राजकीय इण्टर कालिज, नैनीताल के गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी ने परीक्षा की कापी जांचते हुए जो कहा कि हिन्दी भी तुम्हारी मातृभाशा है, उस आस्था से अलगाव नहीं हो पाया अबतक। चूंकि अब कुछ भी स्थानीय नहीं है उत्तर आधुनिक गैलेक्सी मनुस्मृति व्यवस्था में और स्वर्गीय पिता की विरासत भी कन्धे पर है, तो ग्लोवल नेटवर्किंग के मकसद से हाल में अंग्रेजी में लिखना शुरु किया है। पर लेखक तो रहा हूं हिन्दी का ही। इन पैंतीस वर्षों में शायद ही कोई पपत्र प्त्रिका बची हो, जिसम छपा नहीं हूं। यह सिलसिला १९७३ में दैनिक पर्वतीय नैलीताल से शुरु हुआ। रघुवीर सहाय जैसे ने दिनमान में जगह देकर हि्म्मत बढ़ाई।

छात्र जीवन में चिपको आंदोलन से जुड़ा रहा। नैनीताल समाचार और पहाड़ टीम का हिस्सा रहा हूं कभी। ताराचंद जी का सबक हम आज भी नहीं भूले कि जनपक्ष में खड़ा होना है तो संवाद का माध्यम हिंदी ही होना चाहिए। अपने घर में साल भर रखकर उन्होंने हमें वैचारिक मजबूती दी।

अंग्रेजी से एणए करने के बावजूद मैंने हिंदी प्तर्कारिता को आजीविका का माध्यम बनाया। मजा भी आया खूब। झारखण्ड में १९८० से १९८४ तक दैनिक आवाज में काम करते हुए आदिवासियों की जीवन यंत्रणा का पता चला। वहीं से एके राय और महाश्वेता देवी जैसी हस्तियों से अपनापा बना। खान दुर्घटनाओं पर अंधाधुंध का किया। जिसकी फसल मेरे कहानी संग्रह ईश्वर की गलती है। फिर मेरठ में सांप्रदायिक दंगों से आमना सामना हुआ। मेरा पहला कहानी संग्रह अंड सेंते लोग इसीका नतीजा है। लघठु उपन्यास उनका मिशन भी। टिहरी बांध पर लिखा लघु उपन्यास नई टिहरी पुरानी टिहरी।

फिर खाड़ी युद्ध का पहला अध्याय। तब मैं अमर उजाला के खाड़ी डेस्क पर था। इसके तुरन्त बाद सोवियत विघटन। अमेरिकी साम्राज्यवाद के भविष्य से नत्थी भारतीय उपहादेश ककी नियति का डर सताना शुरु किया तो लिखना शुरु किया अमेरिको से सावधान। बड़ी प्रतिक्रया हुई सन १९९९ तक। हजारों पत्र मिले। दैनिक आवाज में दो साल धारावाहिक छपा- जमशेदपुर और धनबाद में। बड़ी संख्या में लघु पत्रिकाओं ने अंश छापे। करीब बारह तेरह साल तक मैं इसी में जुटा रहा।

मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री बनते ही भारत में नवउपनिवेशवाद चालू। फिर आये वाजपेयी। अब प्रणव मुखर्जी वास्तविक प्रधानमंत्री। मेरी दिलचस्पी न शरणार्थी आंदोलन में थी न दलित आंदोलन में। हमारी पूरी आस्था मार्क्सवाद, वर्ग संघर्ष और क्रांति में रही है। दुनियाभर का साहित्य और विचारधाराओं के अध्ययन के बावजूद मैंने कभी अंबेडकर को नहीं पढ़ा।

१९९० में कोलकाता आने पर यहां काबिज ब्राह्मवादी व्यवस्था से हर कदम पर टकराव होने लगा। फिर मैंने बंगाल और भारतीय उपमहादेश की जड़ों को टटोलना शुरू किया। अंबेडकर को भी पढ़ना शुरु किया। इसी बीच सन २००१ में पिता को िधन हो गया। उन्होंने अपना सबकुछ जनसेवा में न्यौछावर कर दिया। विरासत में हमें संपत्ति नहीं, संघर्ष और अपने लोगों के हक हकूक के लिए खड़ा हो जाने की प्रतिबद्धता मिली। माकपाइयों से संबंध मधुर रहे हैं। थी मामलात में पश्चम बंगाल का समर्थन भी मिलने लगा। फिर अचानक २००१ में उत्तरांचल पर काबिज भाजपा सरकार ने बंगाली दलित शरणार्थियों को यकायक विदेशी नागरिक करार दिया। वहां भारी आंदोलन हुआ तो पश्चम बंगाल से पूरा समर्थन भी मिला। किंतु २००३ में गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने नागरिकता संशोधन बिल पेश किया संसद में गुपचुप। द्वैत नागरिकता के बहाने पू्रवी बंगाल से आये और भारतभर में छितरा दिये गये विभाजन पीड़ितों को रातोंरात विदेशी नागरिक बना दिया गया। यह बिल संसदीय कमिटी के अध्यक्ष प्रणव मुखर्जी ने बिना किसी सुनवाई के मंजूर कर दिया। संसद में बहस नाममात्र हुई। तब मनमोहन सिंह विपक्ष में थे और उन्होंने विभाजन पीड़ित शरणार्थियों को नागरिकता देने की पुरजोर पेशकश की, जिसे प्रधानमंत्री बनते ही वे भुल गये। सबसे बड़ा हादसा यह था कि शरणार्थी, दलित, पिछड़ा आदिवासी और सर्वहारा की बात करने वोले वामपंथियों ने इस बिल को कानू बनाने में भजपाइयों को हर संभव सहयोग दिया।

रही सही कसर पश्चिम बंगाल में शहरी करण, औद्यौगीकरण और पूंजीवादी विकास अभियान ने पूरी कर दी। इस बीच कांग्रेस के केंद्रीय सत्ता में आते ही प्रणव मुखर्जी ने दलित बंगाली शरणार्थियों के खिलाफ देशबर में युद्धघोषणा कर दी। दरअसल नवउदारवाद के बहाने समूचे देश को आखेटगाह बना दिया गया। मूलनिवासियों का कत्लेआम होने लगा। और भारतीय उपमहादेश अंततछ अमेरिकी उपनिवेश बन गया। नंदीग्राम, सिंगुर, कलिंगनगर, विदर्भ, झारखंड, छत्तीसगढ़, पूर्वोत्तर भारत, कश्मीर, तमिलनाडु. आंध्र, गुजरात, नवी मुंबई और महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा और समूचे उत्तर भारत को श्मशान में तब्दील करने की साजिशें बेनकाब होने लगी। कल कारखाने , काम धंधे चौपट? न शिक्षा न रोजगार। शिक्षा, चिकित्सा का निजीकरण। मूल निवासी आजीविका और जीवन से बेदखल होने लगे।

अखारो और मीडिया में विदेशी पूंजी निवेश। क्रकेट कार्निवाल। बालीवूड की उछाल। मोबाइल, कंप्यूटर. टीवी के जरिए नीली क्रांति। साहित्य साफ्ट पोर्न में तब्दील। मनोगंजन ही कला का एकमात्र सरोकार। तमाम लेखक बुद्धिजीवी संगठन सत्तादलों के साथ। सत्तावर्ग का चेहरा बेनकाब। दिल्ली में सत्ता साहित्य और संस्कृति का केन्द्रीयकरण। जनपदों का सफाया। कृषि और कृषकों का सत्यानाश।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अब मानवाधिकार, लोकतंत्र और नागरिक अधिकार, संविधान, संप्रभुता और कानाल न्याय की तरह वायवीय अवधारणा मात्र। सर्वत्र बाजार संप्रभू।

सत्तापक्ष और विपक्ष एकाकार। जनांदोलन हैं ही नहीं। प्रतिरोध का क्रूरतापूर्वक दमन। मीडिया, मनी और माफिया का राज। ऐसे में साहित्य के लिए कहीं कोई स्पेस नहीं बचा।

यह कोई भवुक फैसला नहीं है। टाइम, स्पेस और मनी से हारे एक मामूली कलमकार के जीने का अंतिम राह है।

मेरे पाठकों , मुझे माफ करना।

शनिवार, 21 जून 2008

भोजपुरी हमार, बोली बाजार

उमेश चतुर्वेदी
दिल्ली, मुंबई से लेकर कोलाकाता तक उपहास और उपेक्षा का पात्र रहा भोजपुरी समाज अचानक क्षमतावाला बाजार हो गया है. इस संभावित और अनछुए बाजार में इतनी ताकत नजर आ रही है कि मीडिया की दुनिया में उतर रहे बड़े खिलाड़ी बाकायदा खबरिया चैनल लाने की तैयारी में जुट गए हैं। जबकि मीडिया और इंटरटेनमेंट की दुनिया के नामीगिरामी हस्तियां मनोरंजन चैनल लेकर बाजार में उतरने की तैयारी में हैं।

करीब दो दशक पहले पत्रकारों की जिदगी को केंद्र में रखकर नईदिल्ली टाइम्स नाम की फिल्म बना चुके पी के तिवारी के दिमाग की उपज है महुआ चैनल। महुआ चैनल के समाचार प्रमुख अंशुमान त्रिपाठी के मुताबिक इस चैनल में जहॉ भोजपुरी में खबरें होंगी, वहीं दमदार प्रोग्रामिग भी जोर रहेगा। इसके लिए अंशुमान त्रिपाठी की टीम शिद्दत से जुटी हुई है। वहीं हमार टीवी के भी आन एयर होने की तैयारी शुरू हो चुकी है। इस चैनल को पूर्व मंत्री मतंग सिंह की कंपनी लाने जा रही है। मतंग सिंह नरसिंह राव सरकार में मत्री रह चुके हैं। असम से राज्यसभा के लिए चुने जाते रहे मतंग सिंह की मूलत- बिहार के रहने वाले हैं. शायद यही वजह है कि उनकी दिलचस्पी भदेसपन की भाषा में खबरिया चैनल लाने की है। इस चैनल के प्रमुख हैं कुमार संजाìय सिंह। कभी कुमार सजय सिंह के नाम से जाने जाते रहे संजाìय का टेलीविजन और प्रिंट पत्रकारिता में अच्छा खासा अनुभव है। फिलहाल ये चैनल तैयारियों में जुटा हुआ है। इसके अलावा पुरूवा नाम का एक चैनल भी भोजपुरी खबरों की दुनिया में दस्तक देने की तैयारियों में जुटा हुआ है। इसी तरह एक ग्रुप गंगा नाम से भी चैनल लाने की तैयारी में जुटा हुआ है।

आखिर क्या वजह है कि भदेसपन की इस भाषा को लेकर मीडिया दिग्गज़ों और नए खिलाड़ियों को अपने मीडिया साम्राज्य के लिए काफी संभावनाएं नजर आ रही हैं। दरअसल पिछले दो साल में भोजपुरी फिल्मों ने जिस तरह सफलता के नए मानदंड स्थापित किए हैं उससे एक वर्ग को लगता है कि मीडिया और इंटरटेनमेंट की दुनिया के लिए भोजपुरी का बड़े बाजार के तौर पर उभरना अभी बाकी है। इन मीडिया हाउसों को लगता है कि अगर उन्होंने शुरूआती बाजी मार ली और बाजार पर अपनी पकड़ बना ली तो सफल होना आसान होगा। वैसे भी काफी कम बजट में बनी भोजपुरी फिल्में करोड़ों का बिजनेस कर लेती हैं।

दो साल पहले बनी भोजपुरी फिल्म ससुरा बड़ा पैसे वाला ने सफलता के वे झंडे गाड़े कि भोजपुरी में लोगों को बड़ा बाजार नजर आने लगा। ये फिल्म महज 27 लाख रूपए में बनी थी और उसने छह करोड़ का बिजनेस किया। इसके बाद तो मनोज तिवारी की फिल्म दरोगा बाबू आई लव यू समेत कई फिल्मों की बाढ़ आ गई। अवधीभाषी रवि किशन भी भोजपुरी सिनेमा के सुपर स्टार हो गए। भोजपुरी का जलवा ही कहेंगे कि अमिताभ बच्चन और मिथुन चक्रवर्ती भी सिल्वर स्क्रीन पर भोजपुरी बोलते नजर आने लगे। नगमा को भी भोजपुरी बोलने से परहेज नहीं रहा। ऐसे में मीडिया और इंटरटेनमेंट के दिग्गज भला क्यों पीछे रहते। सूचना और प्रसारण मत्रालय से छन कर आ रही खबरों पर भरोसा करें तो मीडिया की दुनिया में अपनी सफलताओं का परचम लहरा चुके जी टेलीफिल्म और श्री अधिकारी ब्रदर्स भी भोजपुरी में इंटरटेनमेंट चैनल लाने की तैयारी में जुट गए हैं। पूर्व सूचना और प्रसारण सचिव रतिकॉत बसु की कंपनी भी भोजपुरी में नया चैनल लाने की तैयारी में है। खबरिया चैनल की दुनिया में हाल ही में कदम रख चुकी हरियाणा के पूर्व मंत्री विनोद शर्मा की कंपनी इंडिया न्यूज भी भोजपुरी में न्यूज चैनल लाने की तैयारी में जुटी है।

वैसे हिंदी में राष्ट्रीय कहे जाने वाले कम से दस चैनल हो गए हैं। कुछ एक अभी भी आने की तैयारी में हैं। लेकिन ये भी सच है कि हिंदी की राष्ट्रीय टेलीविजन पत्रकारिता में इससे ज्यादा स्पेस की गुंजाइ?श फिलहाल नहीं दिखती। लिहाजा इन दिनों क्षेत्रीय चैनलों की भी जोरदार तैयारियॉ चल रही हैं। वैसे इसकी शुरुआत इनाडु टीवी ने उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड, बिहार-झारखंड, मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ और राजस्थान के लिए अलग से चार क्षेत्रीय चैनल लाकर क्षेत्रीय टीवी पत्रकारिया की हिंदी में शुरूआत की थी। गुजराती, बॉग्ला, मराठी, तेलुगू, तमिल और कन्नड़ की टीवी पत्रकारिया में इनाडु ने ही पहले-पहल कदम बढ़ाया। अब तो जी और स्टार के भी गुजराती, मराठी, बॉग्ला और तेलुगू में अपने स्वतंत्र चैनल हैं।

अब इन क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों के अपने स्वतंत्र चैनल हो सकते हैं तो सवाल ये है कि 19 करोड़ लोगों की भाषा भोजपुरी में अपना कोई चैनल नहीं हो सकता है। टीआरपी की दुनिया में सबसे बड़ा बाजार मुंबई है। आज हालत ये है कि मुंबई में भी पूरबिये लोगों की संख्या करीब चालीस लाख हो है। टीआरपी के लिहाज से दूसरे बड़े बाजार दिल्ली में भी करीब चालीस लाख भोजपुरीभा?षी और पूरबिए हैं। कोलकाता की 56 फीसदी जनसंख्या गैर बॉग्लाभाषी है। जिसमें सबसे ज्यादा लोग पूवी उत्तर प्रदेश और बिहार के भी लोग हैं। मध्यवर्गीय बाजार में इनकी भी हैसियत कोई कम नहीं है। इसके साथ ही मारीशस, फिजी, गुयाना जैसे देशों में भी भोजपुरी भाषियों की संख्या लाखों में हैं। जाहिर है- इस भाषा में भी एक बड़ा बाजार इंतजार कर रहा है। और मीडिया के नए-पुराने खिलाड़ियों की इसी बाजार पर निगाह है।

लेकिन सबसे बड़ी आशंका इन चैनलों के कंटेंट को लेकर है। साठ के दशक में भोजपुरी में बनी पहली फिल्म गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबो में एक सामाजिक संदेश भी था। लागी नाहीं छूटे राम से लेकर दूल्हा गंगा पार के और रूठ गइले संइया हमार जैसी फिल्मों में ये परंपरा जारी रही। लेकिन हाल के दिनों में बनी भोजपुरी फिल्में कंटेंट और कथ्य के स्तर पर कुछ खास छाप नहीं छोड़ पाई हैं। यही हाल इस इलाके के लिए रिकार्ड किए जा रहे म्यूजिक की भी है। सबसे बड़ा खतरा ये है कि खबरों में भले ही ये प्रवृत्ति ना दिखे, भोजपुरी चैनलों की प्रोग्रामिग पर इसका असर दिख सकता है। ऐसे में ये चैनल कहीं हंसी का पात्र ना बन जाएं, इसका खास खयाल रखा जाना होगा जरूरी होगा, तभी खबरिया चैनलों की दुनिया में भदेसपन की भाषा के ये चैनल भोजपुरी लोगों के विकास के साथ ही उनकी सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं को मुखर आवाज देने में सफल होंगे।

शनिवार, 14 जून 2008

जाति न पूछो साधु की ...

उमेश चतुर्वेदी
हिंदी ब्लॉग जगत में इन दिनों मीडिया में पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक लोगों की कमी को लेकर कुछ लोग हलकान हुए जा रहे हैं। उन्हें लगता है कि अगर मीडिया में पिछड़े, अल्पसंख्यक और दलितों की भागीदारी ज्यादा होती तो शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण और ऐसे ही दूसरे मसलों पर मीडिया की भूमिका कुछ और ही होती। नरेंद्र मोदी समेत हिंदू( फासिस्टों ) संगठनों को लेकर मीडिया की सोच कुछ और ही होती। दलितों के अधिकारों को जोर-शोर से उठाया जाता। इन लोगों को लगता है कि लालू यादव और मायावती जैसे पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक तबके के नेताओं के प्रति भी सवर्ण मीडिया का रूख कुछ दूसरा ही होता। यानी इस चर्चा का प्रमुख लब्बोलुबाब ये है कि मीडिया की आज की अतिवादिता के लिए यह सवर्णवाद ही जिम्मेदार है।
यहां एक बात बता देना मैं जरूरी समझता हूं। आमतौर पर समाजवादियों और वामपंथियों में तमाम मुद्दों पर वैचारिक मतभेद रहते हैं। लेकिन इस सवर्णवाद की चर्चा दोनों तबके ने मिलकर शुरू की। इसे लेकर सबसे पहला सर्वेक्षण मेरे क्लासफेलो वामपंथी एक्टिविस्ट जितेंद्र कुमार, वरिष्ठ वामपंथी पत्रकार अनिल चमड़िया और समाजवादी विचारक और चुनाव विश्लेषक योगेंद्र यादव ने किया। इस सर्वेक्षण का उद्देश्य समानता का दावा करने वाले पत्रकारिता और मीडिया संस्थानों का आइना दिखाना था। लेकिन ब्लॉग पर जिस तरह ये चर्चा मीडिया की अतिवादिता का इसे कारक बनाने को लेकर होती जा रही है - शायद इस सर्वेक्षण का ये उद्देश्य भी नहीं था।
यह सच है कि मीडिया की भर्तियों में अपनी तरह का एक खास वर्गवाद जोरों पर है। लेकिन मैं कम से कम इससे असहमत हूं कि इसमें सवर्णवाद का बोलबाला है। नाम से ही जाहिर है कि मैं ब्राह्मण परिवार से आता हूं। लेकिन इसका मुझे तो कोई फायदा कम से कम इस नाम पर नहीं मिला। जबकि मैं कई बड़े ब्राह्मण पत्रकारों के यहां नौकरी पाने का दरबार लगाता रहा हूं। लेकिन उन्होंने उन लोगों को पसंद किया -जो किसी और विरादरी के थे। मैं नाम नहीं गिनाना चाहता, वक्त आएगा तो इससे भी परहेज नहीं रहेगा। अखबारों में छपने के लिए ब्राह्मणवाद ने भी मेरी मदद नहीं की। जबकि कई अखबारों में छापने की स्थिति में कई ब्राह्मण नामधारी पत्रकार रहे। अपने बीच के संघर्ष के दिनों में ब्राह्मण पत्रकारों ने तो मुझे जमकर टरकाया।
जहां तक मैंने देखा है कि मीडिया संस्थानों में नौकरी सिर्फ ब्राह्मण या दलित के नाम पर नहीं मिलती है। वहां नौकरी पाने के लिए विचारधारा और चंपूगिरी अहम भूमिका निभाती है। अगर नौकरी देने की स्थिति में दक्षिणपंथी पत्रकार होते हैं तो उन्हें अपनी ही विचारधारा के पत्रकार पसंद आते हैं। अगर भर्तियां करने की हालत में वामपंथी विचारक रहे तो उन्हें आईसा और एसएफआई से जुड़े संघर्षशील ही पसंद आते हैं - भले ही उन्हें एक लाइन ठीक से लिखना न आता हो और ना ही उन्हें समाचार की समझ हो। इसे आप क्या कहेंगे। ऐसी सूचनाएं आपको हर चैनल और हर अखबार में मिल जाएंगी। ऐसे में मारा जाता है - बेचारा वह संघर्षशील, जो अपने छात्र जीवन में ना तो एबीवीपी या आईसा से जुड़ा नहीं रहा। उसे नौकरी मिल भी गई और ग्रुप में शामिल नहीं हुआ तो उसके इक्रीमेंट और प्रोमोशन का भगवान ही मालिक है।
रही बात मीडिया के कंटेंट सुधरने की - तो मित्रों आपके आसपास कई ऐसे रसूखदार लोग होंगे- जो सुधार और उदारीकरण का जमकर विरोध करते रहे हैं। लेकिन अपने अखबार या टीवी चैनल में प्रबंधन की इच्छा के नाम पर भूत नचाते रहते हैं, सेक्स की छौंक दर्शकों को परोसते रहते हैं। जब चैनल चलाने या अखबार निकालने की बारी आती है तो उनकी सारी क्रांतिधर्मिता धरी की धरी रह जाती है। वैसे इसका भी कोई ठोस सबूत नहीं है कि प्रबंधन ने उन्हें ऐसा करने के लिए कहा ही हो - लेकिन प्रबंधन के नाम पर ऐसा करने में उन्हें अपनी क्रांतिधर्मिता में कोई कमी नजर नहीं आती। दक्षिणपंथी पर तो आरोप लगते ही हैं, वह बेचारा बना ही ऐसा है। लेकिन क्रांति करने वाले लोग क्यों झुक जाते हैं, ये अब तक मेरी समझ में नहीं आया। आपको नजर नहीं आ रहा हो मित्रों इस नजरिए से अब मीडिया संस्थानों की ओर देखिए। आपको इस बहस का औचित्य समझ में आ जाएगा।

मंगलवार, 10 जून 2008

आखिरकार मुंशी जी को मिली फुर्सत

आखिरकार भारतीय जनसंचार संस्थान के पत्रकारिता के छात्रों को डिप्लोमा देने के लिए सूचना और प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दास मुंशी ने वक्त निकाल ही लिया। दीक्षांत समारोह 12 जून को किया जा रहा है। जिसमें मुख्य अतिथि के तौर पर विदेशमंत्री प्रणव मुखर्जी भी हिस्सा ले रहे हैं। बंगाल के दो-दो महाशय इस बार दीक्षांत समारोह की शोभा बढ़ाएंगे। छात्रों के डिप्लोमा की मियाद पिछले 30 अप्रैल को ही खत्म हो गई है। लेकिन मुंशी जी की डायरी में पत्रकारिता के छात्रों की औकात कुछ खास नहीं थी। लिहाजा वे वक्त ही नहीं निकाल पा रहे थे। रही बात संस्थान की अफसरशाही की - तो उसकी औकात कहां बिना अपने मंत्री के इशारे के कोई कदम उठाए। वैसे दावा तो किया जाता है कि ये संस्थान स्वायत्त है। लेकिन मंत्री की मर्जी के बगैर यहां शायद ही कभी पत्ता हिलता हो। वैसे वामपंथी दल अक्सर भारतीय इतिहास अनुसंधान संस्थान और एनसीईआरटी की स्वायत्तता की रक्षा के लिए संसद से लेकर बाहर तक तलवार निकालते रहते हैं। लेकिन इस संस्थान की स्वायत्तता को बनाए रखने की ओर उनका ध्यान नहीं जाता।
वैसे भी पहले ये कार्यक्रम सुबह साढ़े दस बजे होना प्रस्तावित था। लेकिन मंत्री जी को कुछ नया काम निकल आया - लिहाजा अब ये कार्यक्रम सुबह नौ बजे ही होगा। संस्थान के इतिहास में ये पहला मौका है - जब इतनी देर से दीक्षांत समारोह आयोजित किया जा रहा है।

मंगलवार, 27 मई 2008

संचार क्रांति की दस्तक !

भारत के ग्रामीण इलाकों में भी तेज ब्राडबैंड सुविधाएं मिलने का दिन नजदीक आता जा रहा है। केंद्र सरकार ने ग्रामीण इलाकों में ब्राडबैंड सेवा के विस्तार के लिए दो सौ करोड़ रूपए के कोष का ऐलान किया है। इसमें सरकार के साथ ही निजी कंपनियों का भी हिस्सा होगा। केंद्रीय संचार राज्य मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के मुताबिक इसमें से 150 करोड़ की रकम जहां निजी क्षेत्र से इकट्ठा किया जाएगा- वहीं 50 करोड़ की रकम भारत सरकार मुहैय्या कराएगी। सिंधिया ने एक साल के भीतर पूरे देश में एक लाख बारह हजार ब्राडबैंड केंद्र स्थापित करने का भी भरोसा दिलाया है। सरकार की घोषणा से ये जाहिर है कि आने वाले दिनों में भारतीय भाषाओं की वर्चुअल दुनिया का तेज विस्तार होने वाला है। अगर ऐसा रहा तो तय मानिए- भारत में नई संचार क्रांति ही होगी।

मंगलवार, 20 मई 2008

गांवों में भी इंटरनेट का बढ़ रहा है जोर

भारत में इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या पिछले साल 4 करोड़ 90 लाख रही। जिसमें सबसे ज्यादा शहरी लोगों ने सर्फ किया। ये संख्या करीब चार करोड़ रही- जबकि ग्रामीण इलाकों के लोगों की संख्या करीब नब्बे लाख रही है। महीने में करीब एक बार सर्फ करने वालों की संख्या लगभग 3 करोड़ 50 लाख रही। जिसमें से तीन करोड़ लोग शहरी इलाकों से थे- जबकि पचास लाख लोग गाम्रीण इलाकों से रहे। ये आंकड़े अनुसंधान तथा ऑनलाइन सलाहकार फर्म जस्टकंसल्ट ने जारी किए हैं। भारत ऑनलाइन 2008 नामक सर्वेक्षण के मुताबिक भारतीय शहरों में हर 10 में से एक यानी करीब 10 फीसदी आबादी इंटरनेट से जुड़ी है। सबसे दिलचस्प बात ये है कि इसमें से भी करीब 70 प्रतिशत लोगों की पसंद भारतीय भाषाओं में सर्फ करना है। जाहिर है कि देश में देसी भाषाओं के इंटरनेट का भविष्य बेहतर है। जस्ट कंसल्ट की इस रिपोर्ट के बाद उम्मीद की जा रही है कि देसी भाषाओं के इंटरनेट उपभोक्ताओं में और उछाल आ सकता है।

गुरुवार, 15 मई 2008

तो नंबरों के खेल में शामिल है गिफ्ट...

अब तक ये ही माना जाता था कि अखबार और पत्रिकाएं ही गिफ्ट दे-देकर अपना सर्कुलेशन बढ़ाते हैं। इसके लिए उनकी आलोचना भी होती रही है। लेकिन अब खुलासा हो गया है कि टीआरपी की माया के पीछे भी गिफ्ट महाराज का हाथ है। ट्राई की ओर से टीआरपी की वैकल्पिक रणनीति तैयार करने के लिए ट्राई ने 15 मई को एक बैठक बुलाई थी। इसी बैठक में खुद
टेलीविजन ऑडिएंस मीजरमेंट यानी टैम के सीईओ एल वी कृष्णन इजहार किया कि जिन घरों में टीआरपी के मीटर लगे हुए हैं-उनके सदस्यों को गिफ्ट दिया जाता है। सबसे बड़ी बात ये कि ऐसा करने में उसे कोई बुराई भी नजर नहीं आती। ऐसे में क्या गारंटी है कि टेलीविजन चैनलों के कर्ता-धर्ता गिफ्ट देकर या टैम अधिकारियों के जरिए टीआरपी मीटर वाले घरों के सदस्यों तक गिफ्ट पहुंचा कर अपनी रेटिंग में कमीबेशी नहीं कराते होंगे।
जब इंडियन रीडरशिप सर्वे में ये सब संभव है तो टीआरपी में ऐसा क्यों नहीं हो सकता ..पिछले साल राजस्थान के दो प्रमुख हिंदी अखबारों का विवाद सामने आया था। एक का आरोप था कि दूसरे ने आईआरएस के सर्वेक्षकों को पटाकर - घूस देकर अपनी पाठक संख्या ज्यादा दिखाई है। अब हमें तैयार रहना होगा कि प्रतिद्वंदी चैनलों के बीच भी ऐसे आरोप-प्रत्यारोप के दौर शुरू हो सकते हैं।

मंगलवार, 13 मई 2008

पार्टनर आपकी बीट क्या है ....

उमेश चतुर्वेदी
जानकार कहते हैं कि अगर पुलिस कांस्टेबल की कमाऊ बीट बदल दी जाय तो उसके दिल पर सांप लोटने लगता है। कुछ ऐसा ही हाल दिल्ली में राजनीतिक दलों को कवर कर रहे कुछ पत्रकारों का भी है। खासतौर पर जो लोग कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी कवर करते हैं, उनमें से कुछ लोगों की हालत ये है कि अगर उनकी ये बीट ब्यूरो चीफ या राजनीतिक संपादक बदल दे तो उनका दिल का चैन और रात की नींद खो जाती है।
कांग्रेस बीट कवर करने वाले प्रिंट मीडिया के पत्रकारों में एक ऐसा ग्रुप सक्रिय है- जो हर नए आने वाले पत्रकार और अपने ग्रुप से बाहर के पत्रकारों को सवाल नहीं पूछने देना चाहता। गलती से उसने अपने अखबार और इलाके की जरूरत के मुताबिक कोई सवाल पूछ लिए तो समझो- उसकी शामत आ गई। इनमें वरिष्ठ भी हैं और गरिष्ठ पत्रकार भी हैं। पूरे ग्रुप में से कोई हो सकता है , उस सवाल पर मुंह ही बिचका ले। कोई वरिष्ठ या गरिष्ठ ये भी कह सकता है - ह्वाट ए हेल क्वेश्चन यार ...हो सकता है इस ग्रुप का कोई पत्रकार सवाल पूछने वाले पत्रकार से मुखातिब ये भी बोलता पाया जाए- अरे चुप भी रहोगे।
1999 के चुनाव में कई बार दैनिक भास्कर की ओर से मुझे भी कांग्रेस की ब्रीफिंग कवर करने जाना पड़ता था। विज्ञान और तकनीकी मंत्री कपिल सिब्बल तब प्रवक्ता का जोरदार तरीके से मोर्चा संभाले हुए थे। उनकी ब्रीफिंग के बाद उस ग्रुप के पत्रकार उनकी डीप ब्रीफिंग में पहुंच जाते थे और लगे हाथों उंगलियों से गिनकर बताने लगते थे कि कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभर रही है। कई तो उसे दो सौ का आंकड़ा पार करा देते तो कई सवा दो सौ। इस जमात के लोग आज भी कांग्रेस कवर कर रहे हैं। मैं उन्हीं दिनों से कपिल सिब्बल का कायल हूं। अपने ईमानदार आकलन से वे पूछने लगते कि ये आंकड़ा कहां से आएगा तो उस जमात के चेहरे पर हवाईयां उड़ने लगतीं। 1999 के चुनावी नतीजे गवाह हैं कि कपिल सिब्बल सही थे और कोटरी में शामिल गिरोहबाजों का आकलन कितना हवाई था। यहां ये बता देना जरूरी है कि डीप ब्रीफिंग में पार्टियों के प्रवक्ता ऑफ द बीट जानकारियां देते हैं। उन्हें आप रिकॉर्ड पर उनके हवाले से नहीं पेश कर सकते।
जब भी हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता की चर्चा होती है - अंग्रेजी के पत्रकारों को ज्यादा प्रोफेशनल बताया जाता है। लेकिन इस गिरोहबाजी में अंग्रेजी के कई वरिष्ठ पत्रकार शामिल हैं। मेरी तो संसद के कमरा नंबर 53 की एक ब्रीफिंग में इस गिरोह से भिड़ंत भी हो चुकी है। उस वक्त राबड़ी देवी की बिहार में सरकार थी। वहां कहीं जनसंहार हुआ था। संयोग से उसके पहले के जनसंहार के दौरान कांग्रेस ने बयान दिया था कि अगर बिहार में जनसंहार रोकने में राबड़ी सरकार बिफल हुई तो कांग्रेस समर्थन वापस ले लेगी। उस वक्त बिहार में राबड़ी सरकार का कांग्रेस समर्थन कर रही थी। संयोग से उसी दिन जयराम रमेश ने कांग्रेस की आर्थिक नीतियों की आलोचना की थी। बहरहाल उस दिन की ब्रीफिंग में कांग्रेस के पुराने बीटधारी पत्रकारों ने इसी पर बहस-मुबाहिसा तब की कांग्रेस प्रवक्ता मार्गरेट अल्वा से शुरू कर दिया था। इसी बीच हमारे मित्र जितेंद्र कुमार ने मार्गरेट अल्वा से सवाल पूछा कि क्या कांग्रेस अब राबड़ी सरकार से समर्थन वापस लेगी। जितेंद्र तब प्रभात खबर के दिल्ली ब्यूरो में काम करते थे। अब दैनिक हिंदुस्तान के रांची में वरिष्ठ संवाददाता हैं। जितेंद्र का सवाल आया नहीं कि कांग्रेस बीटधारियों ने उन्हें हूट करना शूरू किया। इसके बाद मुझसे रहा नहीं गया और झड़प हो गयी।
कई बार असहज सवालों से ऐसे ग्रुप के पत्रकार प्रवक्ताओं और नेताओं को उबारने के लिए सवाल को ही घुमा देते हैं या बीच में ही टपककर दो कोनों से ऐसा सवाल पूछेंगे कि बहस की धारा ही बदल जाएगी। मजे की बात ये है कि अब टीवी के भी कई पत्रकार ऐसे ग्रुपों में शामिल हो गए हैं।
सवाल ये है कि क्या पत्रकारिता के मानदंडों के लिए ये प्रवृत्ति अच्छी है..क्या इससे पत्रकारिता की पहली शर्त वस्तुनिष्ठता बनी रह सकती है। जवाब निश्चित रूप से ना में है। ऐसे में जरूरत है कि इस कोटरी पत्रकारिता की अनदेखी की जाय और ये काम नए पत्रकार ही कर सकते हैं।

शनिवार, 10 मई 2008

Two things have died in the media - outrage and compassion

P. Sainath
ये पहला मौका है जब मीडिया मीमांसा पर अंग्रेजी में कोई लेख पेश किया जा रहा है। वरिष्ठ पत्रकार और द हिंदू के एडिटर एग्रीकल्चर अफेयर पी साईनाथ ने एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया द्वारा आयोजित राजेंद्र माथुर स्मृति व्याख्यान के तहत पेश किया था।
We are in the middle of the greatest agrarian crisis seen in this country
since the Green Revolution. Millions have left their villages for other
villages, towns and cities in search of jobs which are not there. Eighty
lakh people quit farming between 1991 and 2001.
Did the Indian media do this story? Here are the basic assertions I make in
connection with the media and the agrarian crisis. One, the fundamental
feature of the media of our times is the growing disconnect between the mass
media and the mass reality. Two, there is a structural shutout of the poor
in the media. Three, there is a corporate hijack of media agendas. Four, of
the so-called four estates of democracy, media is the most exclusive and the
most elitist.

The moral universe of the media has shifted. Two things have died-outrage
and compassion. You have a lot of drawing-room outrage, but not over issues
that moved earlier generations of journalists. The structural shutout of the
poor is evident in the way beats are organised in newspapers. You have
fashion, design and glamour correspondents. In a country with the largest
number of rural poor, you do not have one full-time correspondent on the
beat of rural or urban poverty.

In a country whose unemployment is simply stunning, the labour correspondent
is extinct. 2006 was the worst year of farmer suicides. How many national
media journalists were covering the agrarian crisis in Vidarbha? There were
six. But there were 512 journalists covering the Lakme Fashion Week in
Mumbai.

What were the girls displaying at the Fashion Week? Cotton garments. One
hour's flight away from Mumbai, the men and women who grew that cotton were
committing suicide at the rate of six a day. Wasn't that a story? There is
journalism and there is stenography; 80 per cent of journalism you are
reading or viewing today is stenography. Everyone knows there is a crisis of
credit. Thanks to the loan waiver. How many of your newspapers or channels
have told you that the guys who are claiming that they have expanded credit
have closed down 4,750 bank branches in the last 15 years?

The Census and the National Sample Survey narrow down migration to mean
people leaving the villages for the city. Since 1990s, migrations are more
complex. There is rural-to-rural, rural-to-metro migration,
rural-to-semi-urban, urban-to-urban and finally urban-to-rural migration.
Yes, urban-to-rural migration is there because wages have collapsed in the
countryside and small businesses are moving there to utilise cheap labour.

In Gondia, Maharashtra, every morning hundreds of urban women journey into
rural Vidarbha for work. There is the economic survey put by the finance
minister in Parliament every Budget session. What has stopped the media from
picking up the story it tells you? Per capita availability of foodgrain has
fallen from 510gm a day in 1991 to 422gm in 2005-a fall of 88gm for one
billion people for 365 days a year! That means your average family is
consuming 100kg less of foodgrain than it consumed a decade ago. Where is
your outrage?

You have a price rise. There is a differential impact of this on different
classes of society. But look at some of the stories that are coming-that in
a middle class family, the son cannot take cricket coaching because of the
price rise!
Where we should have told stories, we sold products. Where we needed
scepticism, we exercised sycophancy. Where we needed journalism at its best,
we produced stenography at its worst. We continued to cordon the elite and
turn our backs on millions experiencing despair. We turned the great
principle of journalism upside down which was to comfort the afflicted and
afflict the comfortable.

गुरुवार, 8 मई 2008

मंत्री जी का इंतजार है ...

भारत सरकार के एक स्वायत्तशासी संस्थान में मंत्री जी के हस्तक्षेप को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित कर दिया। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के निदेशक पद पर पी वेणुगोपाल की फिर से बहाली के बाद से उम्मीद बढ़ गई है कि इस संस्थान में मंत्री जी और सरकार की दखलंदाजी पर रोक लगेगी। लेकिन भारत सरकार के ही एक संस्थान के छात्रों का कोर्स खत्म हुए हफ्ते बीत गए। लेकिन दीक्षांत समारोह होना बाकी है। इसलिए- क्योंकि मंत्री जी को फुर्सत ही नहीं है कि वे छात्रों का डिप्लोमा बांट सकें।
भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय के स्वायत संस्थान भारतीय जनसंचार संस्थान के पत्रकारिता और विज्ञापन के छात्रों का कोर्स बीते हफ्ता से भी ज्यादा हो गया है। तीस अप्रैल को सत्र भी खत्म हो गया। लेकिन छात्रों को डिप्लोमा नहीं दिया जा सका है। दरअसल सूचना और प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दास मुंशी को तीस अप्रैल को ही डिप्लोमा देना था। लेकिन वक्त की कमी के चलते उन्होंने ये कार्यक्रम रद्द कर दिया। संस्थान भले ही स्वायत्तशासी हो- लेकिन संस्थान के अधिकारी स्वायत्त नहीं है। वे मंत्री जी की मिजाजपुर्सी का भला मौका क्यों चूकें। लिहाजा छात्र इंतजार कर रहे हैं।
मीडिया का प्रमुख प्रशिक्षण संस्थान होने के बावजूद भारतीय जनसंचार संस्थान यानी आईआईएमसी के साथ सरकार का रवैया हमेशा टालू रहा है। कई महीने से निदेशक का पद खाली है। मंत्रालय के एक संयुक्त सचिव महोदय निदेशक की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। सूचना सेवा के अधिकारी जयदीप भटनागर रजिस्ट्रार बन गए हैं। संस्थान की गा़ड़ियां संस्थान की बजाय मंत्रालय के काम आ रही हैं। मंत्रालय के अफसर उन पर तफरी कर रहे हैं। एक प्रमुख विभाग के प्रोफेसर और अध्यक्ष संस्थान के उपकरणों का मनमाने ढंग से इस्तेमाल कर रहे हैं। उन्हें हिंदी वालों को पढ़ाने से एलर्जी है और फिर भी वे वर्षों से इस संस्थान में जमे हुए हैं। संस्थान की अफसरशाही का ये हाल है कि संस्थान की पत्रिकाओं के लेखकों का पारिश्रमिक का भुगतान बिना मंत्रालय की अनुमति के नहीं कर पा रहे हैं।
क्या आप सोचते हैं कि आईआईटी और आईआईएम में ऐसा होता तो मीडिया चुप रहता। लेकिन मीडिया के शिशुओं को ट्रेनिंग देने वाले संस्थान के साथ ऐसा हो रहा है और मजे की बात ये है कि मीडिया चुप है। लाख टके का सवाल ये है कि आखिर क्यों चुप है मीडिया.. और यक्ष प्रश्न ये है कि कब टूटेगी ये चुप्पी और कब सुधरेगा भारत सरकार का ये प्रीमियर संस्थान।

बुधवार, 7 मई 2008

पुरस्कारों की माया...

उमेश चतुर्वेदी
करीब आठ साल पहले की बात है। मेरे तब के बॉस शरद द्विवेदी ने एक दिन मुझसे कहा कि तुम्हें भी एक पुरस्कार दिला देते हैं। उन दिनों मैं दैनिक भास्कर के दिल्ली ब्यूरो में बतौर राजनीतिक संवाददाता काम कर रहा था और दिल्ली की पत्रकारिता जगत में दद्दा के नाम से विख्यात शरद द्विवेदी हमारे बॉस थे। दिल्ली में मुझे भले ही अब तक कोई पुरस्कार नहीं मिला, लेकिन जब तक मैं बलिया में पढ़ता था, तब तक मुझे कई पुरस्कार मिल चुके थे। भोजपुरी कहानी लेखन, बाल साहित्य लेखन और लघुकथा लेखन के लिए मुझे कई पुरस्कार मिल चुके हैं। बलिया में रहते वक्त मैं संकोची और अनाम सा लेखक था, लेकिन पुरस्कार चल कर मेरे दरवाजे तक आए। गोरखपुर रेडियो में प्रोग्राम का न्यौता भी मिला। तब तक मैंने कहीं कोई अप्रोच नहीं किया था। दुख की बात ये है कि रोजी-रोटी के दबाव में अब न तो लघुकथा ही लिख पाता हूं ना ही भोजपुरी कहानियों की रचना के लिए धैर्य बचा। यही हाल बाल साहित्य लेखन के साथ भी है। शरद जी ने जब ये प्रस्ताव दिया तो मुझे खुशी भी हुई और लगा कि कुछ फायदा हो जाएगा। तब मैं भले ही दैनिक भास्कर में काम करता था, लेकिन वेतन इतना कम था कि बमुश्किल ही गुजारा हो पाता था। इसलिए मुझे इधर-उधर काफी फ्रीलांसिंग करनी पड़ती थी। तब जाकर दिल्ली में जीने लायक पैसों का जुगाड़ हो पाता था। ऐसे में शरद जी का प्रस्ताव मेरे लिए सुखद अहसास जैसा था। मुझे लगा कि मेरे किसी लेख पर कोई संस्था प्रभावित हुई है और उसने मुझे पुरस्कृत करने का निर्णय लिया है। लेकिन जब शरद जी से पता चला कि ये पुरस्कार एक संस्था थोक के भाव से हर साल देती है और वह सिर्फ पुरस्कार देने के लिए नामों का चुनाव करती है। जिसमें ज्यादातर लोग संस्था के कर्ता-धर्ता के परिचित हैं तो मैंने ऐसा पुरस्कार लेने से साफ इनकार कर दिया। कहना ना होगा, इस संस्था के जरिए हर साल कई अनाम लोग किसी मंच पर पुरस्कृत होने का सुकून और सुख पा लेते हैं और फिर से अनाम की तरह विलीन हो जाते हैं।
यहीं पर याद आती है एक पत्रकार मित्र की गर्वोक्ति। हमारे ये जानकार पत्रकार एक प्रोडक्शन हाउस के सर्वेसर्वा हैं। अजित सिंह समेत पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई राजनेताओं से उनका परिचय है। परिचय ही नहीं-घरापा है। एनडीए शासन के दौरान एक शाम अपने दफ्तर में वे मुझे बताने लगे कि मेरे पास भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार के तहत बाल साहित्य की रचनाएं परखने के लिए आई हैं। लगे हाथ वे ये भी बताने से नहीं हिचके कि उनके पास वक्त की कमी है- लिहाजा उन किताबों को वे नहीं देख पा रहे हैं। मुझे लगा कि मेरे मित्र बाल साहित्य में भी गहरी पैठ रखते हैं। लेकिन जब उन्होंने खुद ये बताया कि बाल साहित्य में ना तो उनकी रूचि है ना ही वे कभी ऐसा साहित्य पढ़ते हैं। बाल साहित्य में कभी उन्होंने अपनी कलम भी नहीं आजमाई है। तो चौंकने की बारी मेरी थी। दरअसल वे महज रूतबे के लिए परीक्षक बन गए थे और उनके चाहने वाले राजनेताओं ने उनका नाम सुझा दिया था।
हिंदी साहित्य में पुरस्कारों पर अक्सर सवाल उठाए जाते रहे हैं। मजे की बात ये है कि ये सवाल अक्सर पत्रकारों की ही ओर से मीडिया में जोरशोर से उठाए जाते हैं। लेकिन अब ये ही सब पत्रकारिता में भी हो रहा है। चहेते लोगों को पुरस्कार और फेलोशिप दी जा रही है और पत्रकारिता के गिरते स्तर के लिए चिंता भी जताई जा रही है। यानी रोग के मूल में जाने की कोशिश नहीं हो रही है। लेकिन रोग पर चिंताएं भी खूब जताई जा रही हैं। अभी हाल तक हिंदी की एक महिला पत्रकार जगह-जगह अपने संपादक को इसलिए गाली देती फिर रही थीं कि उनकी बजाय उनकी एक सहकर्मी को जगह-जगह पुरस्कृत किया जा रहा है। रसरंजन के बाद वे अपने संपादक को गाली देने से भी नहीं चूकती थीं। लेकिन उनके नजदीकी लोगों का कहना है कि अब उनका गुस्सा शांत हो गया है। उन्हें भी फेलोशिप मिल गई है। संपादक जी को अब भी गाली देती हैं- लेकिन गाली की वजह बदल गई है।
ऐसे में पत्रकारिता का कितना भला होगा - ये समझना आसान है। ऐसा नहीं कि मूल्यों और प्रतिबद्दता की पत्रकारिता करने वाले लोग नहीं हैं। लेकिन पुरस्कार और फेलोशिप देने की हैसियत में उनके कोई परिचित नहीं हैं। लिहाजा वे हाशिए पर हैं। माफ कीजिएगा, कथित मुख्यधारा में वे हाशिए पर हैं। लेकिन पाठकों की दुनिया में सही मायने में उनका ही राज है। क्योंकि फेलोशिप और पुरस्कार से दूर वे सिर्फ और सिर्फ सरोकारों की पत्रकारिता में जुटे हुए हैं।

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2008

तो चीन है इंटरनेट उपभोक्ताओं की खान ...

इंटरनेट उपयोगकर्ताओं के मामले में चीन ने अमेरिका को पछाड़ दिया है। ताजा आंकड़ों के अनुसार चीन में अब 22 करोड़ 10 लाख लोग इंटरनेट का उपयोग कर रहे हैं। चीन की सरकारी समाचार एजेंसी जिनहुआ के अनुसार साल 2007 के अंत तक इंटरनेट उपयोगकरने वाले लोगों की संख्या 21 करोड़ थी। ताजा आंकड़े `चाइना इंटरनेट नेटवर्क इनफोरमेशन सेंटर´ ने जारी किए हैं। गौरतलब है कि चीन की कुल जनसंख्या की तुलना में अभी भी देश में इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या दुनिया के दूसरे देशों के मुकाबले आनुपातिक रूप से कम है। ताजा आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2007 के अंत में की चीन की कुल आबादी का 16 फीसदी ही इंटरनेट का उपयोग करता था जबकि विश्व में इंटरनेट उपयोगकर्ताओं का औसत उस समय 19.1 प्रतिशत था।

टीआरपी पर सवाल उठाना अब खतरे से खाली नहीं

दासमुंशी को मिली धमकी !
टीआरपी को दुरूस्त करने की कवायद शुरू करने वाले सूचना और प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी को ऐसा न करने के लिए धमकी दी गई। इसका खुलासा खुद दासमुंशी ने गुरुवार को लोकसभा में किया तो सदन में जैसे सन्नाटा छा गया। उन्होंने यह कहकर हड़कंप मचा दिया कि उन्हें 5 बार धमकी दी गई कि वह टीवी चैनलों की टीआरपी रेटिंग में हो रही धांधली को दुरुस्त करने के चक्कर में नहीं पड़ें।

सदन में नाराज दिख रहे दासमुंशी ने कहा कि टीआरपी एक गेमप्लान है। सौ करोड़ के देश में केवल कुछ घरों में मीटर लगाए गए हैं। इनमें भी आश्चर्यजनक रूप में पूरे बिहार, पूर्वाचंल और पूर्वोत्तर को शामिल नहीं किया जाता। सूचना और प्रसारण मंत्रालय के चालू वर्ष की अनुदान मांगों पर बहस का जवाब देते हुए दासमुंशी ने कहा कि मुझे पांच बार धमकी दी गई। उन्होंने विपक्ष में बैठे बीजेपी के सदस्यों की तरफ इशारा करते हुए कहा कि आपके ही एक सदस्य ने मुझे टीआरपी की गड़बड़ी के बारे में बताया था। उस सदस्य को भी धमकी मिली है।
बहस में सदस्यों द्वारा मीडिया को अनुशासित करने की मांग का जिक्र करते हुए दासमुंशी ने कहा कि सरकार सख्ती से नियंत्रण करने के पक्ष में नहीं है, बल्कि वह बातचीत के माध्यम से रास्ता निकालना चाहती है। कानून या सख्ती स्थायी समाधान नहीं हैं। मंत्री ने कहा कि हम डंडे से काम नहीं लेंगे। उन्होंने कहा कि टेलिविजन अधिनियम में थोड़ा दखल देने की जरूरत है। लेकिन इसकी निगरानी की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है। मीडिया में अश्लीलता और अभद्रता के बारे में उन्होंने कहा कि इस मामले में वे पूरी सख्ती बरत रहे हैं। ऐसे मामलों में 280 नोटिस दिए गए हैं।
अब ये देखना दिलचस्प रहेगा कि दासमुंशी को धमकी देने वालों की जांच कराने में सरकार दिलचस्पी दिखाती है या नहीं। लेकिन अगर ऐसा हुआ है तो इसकी जांच होनी चाहिए और लोगों के सामने दूध का दूध और पानी का पानी आना चाहिए। नहीं तो इससे ना सिर्फ टेलीविजन मीडिया उद्योग – बल्कि सरकार से भी लोगों का भरोसा उठते देर नहीं लगेगी।

गुरुवार, 24 अप्रैल 2008

चाबी की जगह दिखाती मीडिया टुडे

पुस्तक समीक्षा
पुस्तक - मीडिया टुडे
लेखक - विभूति नारायण चतुर्वेदी
प्रकाशक - फ्लेयर बुक्स
सी-6, वसुंधरा एंक्लेव,
दिल्ली-110096
मूल्य - 160 रूपए

प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सूचना सलाहकार रहे एच वाई शारदा प्रसाद ने भारतीय जनसंचार संस्थान के निदेशक रहते वक्त छात्रों से कहा था-मैं आपको कुछ सिखा नहीं सकता, लेकिन आप सीख सकते हैं। पत्रकारिता के छात्रों के लिए एच वाई शारदा प्रसाद की कही गई बातें तकरीबन सभी कलाओं पर लागू होती है। पत्रकारिता आज भले ही एक पेशा बन गई है-इसे सिखाने का दावा करने वाले ढेरों संस्थान भी अचानक उग आए हैं-लेकिन शारदा प्रसाद की बातें आज भी उतनी ही खरी हैं-जितनी करीब तीस साल पहले थीं।
इस पुस्तक की भूमिका में वरिष्ठ पत्रकार मधुकर उपाध्याय ने इस कथन का उल्लेख करके एक बार फिर इसी तथ्य को साबित करने की कोशिश की है कि चाहे पत्रकारिता हो या फिर रूपंकर कलाएं-सीखी तो जा सकती हैं,लेकिन उन्हें सिखाया नहीं जा सकता। मधुकर ने जाने-अनजाने इस मीडिया टुडे की उपयोगिता को जाहिर भी किया है तो उसके औचित्य पर प्रश्नचिन्ह भी लगा दिया है। हकीकत ये है कि विभूति चतुर्वेदी ने अपनी इस पुस्तक में पत्रकारिता के छात्रों को पत्रकारिता के दैनंदिन जीवन में आने वाले तथ्यों की आधारभूत जानकारी देने की कोशिश की है-कुछ उसी अंदाज में-जिस तरह हम पूजा करते वक्त अपने देवताओं को पल्लव से जल छिड़क कर उन्हें अर्पित किया हुआ मान लेते हैं। प्रिंट पत्रकारिता की दैनंदिन की जरूरतों और उसमें काम आने वाली शब्दावली और तकनीक की जानकारी देने का प्रयास है ये पुस्तक। उन्होंने ये बताने की कोिशश की है खबर क्या होती है,खबर का मुखड़ा क्या होता है, रिपोर्टर और उप संपादक क्या होते हैं और उनका काम क्या है। रिपोर्टिंग चाहे आर्थिक हो या फिर राजनीतिक या अपराध की-उसमें कब कौन सी सावधानियां बरतनी चाहिए। विभूति ने ये बताने की कोशिश की है। विभूति चूंकि एजेंसी पत्रकारिता में सक्रिय हैं-लिहाजा एजेंसी की कार्यप्रणाली और उसकी पत्रकारिता की सीमाओं पर भी खासतौर पर कलम चलाई है।
पत्रकारिता पर मीडिया टुडे को सूचनात्मक किताब मान सकते हैं। जाहिर है इसका उद्देश्य पत्रकारिता के अध्येताओं तक पहुंचना नहीं,बल्कि पत्रकारिता के छात्रों को पत्रकारिता की उबड़-खाबड़ जमीन की पहचान कराना है। यही किताब की सीमा है और उपलब्धि भी। भूमिका लेखक मधुकर उपाध्याय ने किताब की इस खूबी और खामी को बेहतरी से पहचाना है-शायद यही वजह है कि उन्होंने इस किताब को कुछ-कुछ शारदा प्रसाद के वक्तव्य के मुताबिक पढ़ने की सलाह दी है।
किताब की सबसे बड़ी खामी है - प्रूफ की भयानक गलतियां । पत्रकारिता जहां भाषाई अनुशासन पर खास जोर की अपेक्षा की जाती है-वहां ऐसी गलतियां कम से उस पाठक वर्ग को तो गुमराह कर ही सकती हैं-जिन्हें ध्यान में रखकर ये किताब तैयार की गई है।
उमेश चतुर्वेदी

सोमवार, 21 अप्रैल 2008

क्या सचमुच बन पाएगा वॉयस ऑफ इंडिया !

त्रिवेणी मीडिया का बहुप्रतीक्षित चैनल लांच होने की तैयारी में है। वॉयस ऑफ इंडिया नाम से आ रहा ये चैनल भारत की आवाज कितना बन पाएगा- ये तो वक्त ही बताएगा। बहरहाल चैनल के लांचिंग की तैयारी के साथ ही त्रिवेणी ग्रुप एक साथ पांच और चैनल भी लांच करने जा रहा है। बंगला में वॉयस ऑफ बांग्ला और गुजराती में वॉयस ऑफ गुजराती के साथ ही वॉयस ऑफ यूपी,वॉयस ऑफ राजस्थान और वॉयस ऑफ मध्यप्रदेश के नाम से ये चैलन लांच किए जा रहे हैं। इसके साथ ही कंपनी की योजना अंग्रेजी में लाइफ स्टाइल और म्यूजिक के भी चैनल लांच करने की भी है। मुख्यत: रियल स्टेट और ऑटोमोबाइल की दुनिया में सक्रिय इस कंपनी की मीडिया टीम की अगुआई रामकृपाल सिंह कर रहे हैं। जो नवभारत टाइम्स के संपादक के अलावा आजतक चैनल के इनपुट संपादक भी रहे हैं। यहां आउटपुट की जिम्मेदारी किशोर कुमार मालवीय संभाल रहे हैं-जबकि इनपुट संपादक की जिम्मेदारी अनूप सिन्हा के पास है। किशोर कुमार मालवीय नवभारत टाइम्स के बाद जी न्यूज होते हुए नेपाल वन और इंडिया टीवी में काम कर चुके हैं। जबकि अनूप सिन्हा ऑर्गनाइजर के बाद जी न्यूज होते हुए आजतक में अपनी सेवाएं दे चुके हैं।

शनिवार, 19 अप्रैल 2008

संपादकों की औकात, खुशवंत की जुबानी

बात बहुत पुरानी नहीं है, जब हमारे यहां अख़बार इस लिए जाने जाते थे कि उनके संपादकों का कद कितना बड़ा है। ब्रिटिश राज के वक्त तो कई सरकारी अख़बारों, जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया और स्टेट्समैन के संपादकों को नाइटहुड की उपाधि तक से सम्मानित किया गया। आजादी के बाद भी अख़बारों के एडिटर को समाज में काफ़ी सम्मान प्राप्त था। फ्रेंक मोरेस, चलपति राव, कस्तूरी रंगन अयंगर, प्रेम भाटिया आदि नामों से पाठक भली भांति परिचित थे। अस्सी के दशक में टाइम्स ऑफ़ इंडिया के संपादक रहे दिलिप पदगांवकर का तो यहाँ तक कहना था कि देश में प्रधानमंत्री के बाद सबसे महत्वपूर्ण काम उन्हीं के ज़िम्मे है। सरकार के ग़लत नीतियों की सकारात्मक आलोचना विपक्ष से नहीं बल्कि इन्ही काबिल संपादकों के बदौलत होती थी।


लेकिन टेलीविजन के आते ही हालात बदलने लगे। जो चीजें टीवी के परदे पर दिखने लगी, उसे लोग पढ़ने की जहमत नहीं उठाना चाहते थे। संपादकीय पढ़ने वालों की तादाद घटती गई। अख़बारों के मालिकान यह सोचने लगे कि संपादक नाम का प्राणी तो बोझ है और उनके बिज़नेश मैनेज़र ही टेलीविजन की चुनौतियों का बेहतर ढ़ंग से सामना कर सकते हैं। जरूरत थी तो सिर्फ़ छड़हरी बदन वाली मॉडलों, गॉशिप, विंटेज वाईन और लज़ीज़ व्यंजनों से अख़बारी पन्नों को भर देने की। और इस फार्मूला को चार फ से परिभाषित किया गया - फिल्म, फैशन, फुड और फक द एडिटर (पता नहीं हिंदी में इसका मतलब क्या हो सकता है!)। अपने जमाने के कई मशहूर कलमकार (संपादक) चौथे फ यानि फक द एडिटर के शिकार हो गए। इनमें से कुछ के नाम काबिल-ए-गौर है - फ्रेंक मोरेस (द नेशनल स्टैंडर्ड जो बाद में इंडियन एक्सप्रेस बना), गिरिलाल जैन (टाइम्स ऑफ इंडिया), बी जी वर्गिज़ ( मैग्सेसे पुरस्कार विजेता - टाइम्स ऑफ इंडिया), अरुण शौरी (इंडियन एक्सप्रेस), विनोद मेहता (वर्तमान संपादक ऑउटलुक), इंदर मलहोत्रा (टाइम्स ऑफ इंडिया), प्रेम शंकर झा (हिंदुस्तान टाईम्स)। आज अगर आप पूछें कि टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाईम्स या फिर टेलिग्राफ के संपादक कौन हैं, दस में से नौ लोग शायद न बता पाएं। दिलिप पदगांवकर.....ये कौन है?


दरअसल,भारतीय पत्रकारिता की यह विडंबना है कि यहाँ मालिकान संपादक से ज्यादा अहमियत रखते हैं। पैसा, प्रतिभा पर भारी पड़ती है। पैसे के इस खेल में सबसे ताजा उदाहरण एम जे अकबर का दुर्भाग्यापुर्ण तरीके से एशियन ऐज़ से निकाला जाना है। अकबर, शायद जुझारू पत्रकारीय विरादरी के सबसे काबिल सदस्य हैं। उन्होंने कलकत्ता से निकलने वाले आनंद बाजार पत्रिका ग्रुप के सहयोग से संडे और टेलिग्राफ जैसी नामी अख़बार निकाला था। वे लोक सभा के लिए भी चुने गए और तक़रीबन आधे दर्जन किताबों के लेखक भी रहे हैं। पंद्रह साल पहले अपने कुछ मित्रों के साथ मिलकर उन्होंने द एशियन एज का प्रकाशन शुरु किया था। यह एक कठिन कार्य था और अकबर ने इसे बख़ूबी से अंजाम दिया। एशियन एज़ भारत के लगभग हर मेट्रो से साथ ही लंदन से भी छपने लगा। इस अख़बार में नाम मात्र का विज्ञापन होता था लेकिन पठनीय सामग्री काफी मात्रा में थी-जो नामी ब्रिटिश और अमरीकन अखबारों से भी ली जाती थी।कुल मिलाकर यह एक मुकम्मल अखबार था।इसके आलावा, इसमें ऐसे भी लेख छपते थे जो हुक्मरानों को नागवार गुजरते थे।और शायद यहीं वजह थी जिसने अखबार में अकबर के व्यवसायिक पार्टनर को नाराज कर दिया, क्योंकि इससे उनकी राजनीतिक आकांक्षा को ठेस पहुंच रही थी।बस फिर क्या था-बिना किसी चेतावनी के ही अकबर को एशियन एज के मुख्य संपादक के पद से हटा दिया गया ।पैसे ने एक बार फिर से अपना नग्न और घिनौना चेहरा सामने दिखा दिया। यह कहना अभी मुश्किल है कि बदले में अब अकबर उस आदमी के साथ क्या करेंगे जिन्होने उनके और पत्रकारिता दोनों के साथ बड़े ही अपमानजनक व्यवहार किया। लेकिन अकबर को यह वाकया लंबे समय तक जरुर सालता रहेगा। वो अभी सिर्फ सत्तावन साल के हैं और न तो किसी घटना को भूलते हैं न ही अपने विरोधियों को माफ करते हैं।


जब मैं इलिस्ट्रेटेड वीकली का संपादन कर रहा था तब अकबर उस छोटी सी टीम का हिस्सा थे जिसकी मदद से इलिस्ट्रेटेड वीकली का प्रसार 6,000 से बढ़कर 400,000 तक जा पहुंचा था। यह कितनी बड़ी बिडंवना है कि मुझे भी उसी तरीके से उस पत्रिका से निकाल दिया गया जिस तरीके से अकबर को इस साल एशियन एज से। तब तक टाइम्स ऑफ इंडिया समेत बेनेट कोलमेन के तमाम प्रकाशनों का मालिकाना हक सरकार द्वारा जैन परिवार को सौंपा जा चुका था। ज्योंही जैन परिवार ने कमान अपने हाथ में ली, उन्होने मेरे काम में अड़ंगा डालना शुरु कर दिया। मेरे करार को खत्म कर दिया गया और मेरे उत्तराधिकारी की घोषणा कर दी गई। मुझे एक सप्ताह के भीतर इलिस्ट्रेटेड वीकली छोड़ देना था। मैंने वीकली के लिए भारी मन से भावुक होकर अपना आखिरी लेख लिखा और पत्रिका के भविष्य की सुखद कामना की। लेकिन वो कभी नहीं छपा। जब मैं सुबह अपने ऑफिस में आया तो मुझे एक चिट्ठी थमा दी गई और तत्काल चले जाने को कहा गया। मैंने अपना छाता लिया और घर वापस आ गया। मुझे बड़े ही घटिया तरीके से ज़लील किया गया। यह अभी भी रह-रह कर मुझे परेशान करता है। जैन परिवार द्वारा किया गया वह अपमान मैं आज तक नहीं भूल पाया हूं। आज भी मेरे सम्मान में जब कोई समारोह होता है-भले ही उसकी अध्यक्षता अमिताभ बच्चन, महारानी गायत्री देवी या खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ही क्यों न करें-उसकी रिपोर्ट तो टाइम्स ऑफ इंडिया में छपती है लेकिन उसमें न तो मेरा फोटो छपता है न ही नाम होता है।और यह उदाहरण साबित करता है कि पैसा और सत्ता के मद में चूर छोटे दिमाग बाले आदमी कैसे हो सकते हैं।

खुशवंत सिंह

(किस्सागोई से साभार)

बधाई हो यशवंत जी

वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार यशवंत व्यास को केके बिड़ला फाउंडेशन की ओर से 17 अप्रैल, 08 को श्री बिहारी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। जयपुर में आयोजित एक समारोह में राजस्थान के राज्यपाल एसके सिंह ने उन्हें लाख रुपए नकद पुरस्कार और प्रशस्ति पत्र दिया। यह पुरस्कार व्यास को उनके उपन्यास कामरेड गोडसे के लिए दिया गया है। उपन्यास पत्रकारिता के अनुभवों के आधार पर व्यंग्य-रूपक शैली में लिखा गया है। यशवंत व्यास दैनिक भास्कर समूह की पत्रिका अहा जिंदगी के संपादक हैं।

और शहीद हो गया एक मीडिया कर्मी !

19.4.08

प्रति,

श्री अरूण आनंद,
कार्यकारी संपादक
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस,
1बी-, रावतुला राम मार्ग,
नई दिल्ली-110022ण्

महाशय,
कल रात दिनांक 10 मार्च 2008 को डेस्क प्रभारी संजीव स्नेही जी का फोन आपके हवाले से आया कि मैंने कहीं अन्य जगह नौकरी कर ली है। उन्होंने आपके हवाले से यह भी कहा कि मैं इस्तीफा दूं। इस बावत मुझे कार्यालय से नोटिस भेजे जाने की भी तैयारी हो रही है। मेरे बीमार पड़ने से और छुट्टी पर जाने से नये लोगों पर नकारात्मक असर पड़ेगा। संजीव जी से कल रात 10-15 मिनटों की बात के कुछ मुख्य बातों में से यह बातें सार हैं।

बीमार पड़ने पर कुछ दिनों की छुटि्टयां लेकर घर में आराम करने से किसी को नौकरी मिल जाती हो तो मेरे ख्याल से हम और आप सभी बीमार पड़ते रहे हैं। आपको भी कुछ समय पहले कमर में दर्द था और आपने छुट्टी की थी तो क्या आप भी कहीं नौकरी का प्रयास तो नहीं कर रहे थे! कोई पत्रकार इतना संवेदनाविहीन कैसे हो सकता है! खैर, आपने मुझसे इस्तीफे की मांग की है। मैं आपकी इस मांग को पूरा कर रहा हूं और त्याग-पत्र भेज रहा हूं।

मैंने इंडो-एशियन न्यूज सर्विस की हिन्दी सेवा में लगभग सवा तीन महीने काम किए परंतु दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि मुझे इस दौरान कभी भी आपके संस्थान में काम करने का उचित माहौल महसूस नहीं हुआ। हिन्दी सेवा के कार्यकारी संपादक अरूण आनंद को अपने साथ काम करने वाले पत्रकार कर्मचारियों के साथ कभी भी मुफीद (उचित) व्यवहार करते हुए मैंने नहीं पाया। कार्यकारी संपादक का स्वभाव बहुत हद तक व्यापारिक मानसिकता से ग्रस्त है। वह अपने साथ काम करने वालों को एक ग्राहक की तरह देखते हैं और उनसे ऐसा ही वर्ताव करते हैं। उन्हें खबरों की गिनती का बहुत शौक है। आप खबरों की गिनती में विश्वास करते हैं न कि गुणवत्ता में। साक्षात्कार के समय और नियुक्ति के कुछ दिनों बाद तक आप (अरूण आनंद) बहुत ही सहिष्णु बने रहते हैं और कर्मचारियों की नब्ज टटोलते हैं। इस संस्थान की अंग्रेजी सेवा में आपके एक जूनियर साथी की भाषा में कहूं तो कार्यकारी संपादक अपने सामने अपने कर्मचारियों को समर्पित करवाने चाहते हैं। माफ कीजिए, यह सब नौकरीपेशा में एक हदतक सभी को स्वीकार्य होता है लेकिन लंबे समय तक इस गुलाम बनाने की मनोवृत्ति को ढो पाना किसी भी गैरतमंद इंसान के लिए मुिश्कल होता है। इसके बहुत से नजीर माननीय अरूण जी के सेवाकाल में देखने को मिले हैं।

आईएएनएस से मेरी जानकारी में कुछ लोग मेरी नियुक्ति के पहले भी छोड़कर जाते रहे हैं या उन्हें छोड़कर जाने को बाध्य किया जाता रहा है। मेरे इन सवा तीन महीनों के दौरान भी चार लोगों ने इनके व्यवहार के कारण नौकरी छोड़ी है। हालांकि उन्होंने नौकरी छोड़कर जाने की कई घटनाओं के बाद अपनी शैली में परिवर्तन लाया है। यह उनकी जरूरत है। उम्मीद करता हूं कि यह नई शैली उनकी आदतों में शुमार हो जाए। यह दिक्कत श्रीमान कार्यकारी संपादक के अंदर किस कारण विकसित हुआ है, यह तो कोई मनोविश्लेषक ही बता सकता है। कार्यकारी संपादक का कहना है- ‘’journalism should flow in your blood.’’ क्या पत्रकारिता कार्यकारी संपादक की धमनी और िशराओं में बहने लगे तो उनके स्वास्थ्य पर इसका विपरीत असर तो नहीं पड़ेगा।

पत्रकारिता का लेना, देना केवल पैसों, नियुक्ति दे सकने का सामथ्र्य रखने, महज कुछ समर्थ लोगों से अपने संबंध बेहतर बनाकर रखने या खबरों की गिनती रखने से नहीं होता है। भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में पत्रकारिता की नींव रखने और उसे सींचने वाले लोगों का मन शायद इन क्षणिक महत्व रखनेवाली बातों में कभी नहीं गया था। पत्रकारिता को सींचने वाले लोगों में संवेदनाएं कूट-कूटकर भरी हुई थीं। कार्यकारी संपादक में इसका सर्वथा अभाव है। हमारे कहने से, लिखने से और संस्थान छोड़ देने से उनका हृदय परिवर्तित हो जाएगा, मैं ऐसा नहीं मानता हूं। माननीय कार्यकारी संपादक को इसके लिए बहुत मेहनत की जरूरत होगी ठीक उसी तरह जिस तरह मुझे अपनी कॉपी बेहतर से बेहतर बनाने के लिए कहा जाता रहा है। शायद इससे भी ज्यादा मेहनत की जरूरत होगी। मैं आपके व्यवहार के कारण बहुत पहले ही संस्थान छोड़ देता लेकिन मैं भागने वालों में से नहीं हूं। मैं आपसे मेेरी अपनी कॉपी के लिए अच्छे रिमार्क्‍स देने को मजबूर करवाना चाहता था। मेरी कॉपी के लिए आप ‘excelent copy’ कह चुके हैं। मैं अपनी चुनौतियों से पार पा गया हूं। अनुवाद विशेषकर खबरों का मेरे लिए नया काम था। नये काम में समय लगता है, सो मुझे भी लगा।

‘original copy’ आपके हिसाब से मैं बहुत अच्छी लिखता हूं। ऐसा डेस्क प्रभारियों ने भी कई मौकों पर कहा है। खैर, इसके लिए मुझे आपके प्रमाण-पत्र की जरूरत नहीं है। आपके साथ काम करते हुए मुझे दो बड़े संस्थानों ने आईएएनएस से बेहतर पगार और पद की पेशकश की थी लेकिन मैं अपनी चुनौतियों से पीछे नहीं हटना चाहता था। सो, मैंने इन प्रस्तावों को तव्वजो नहीं दी। आपने नियुक्ति के समय senior-sub editior की पेशकश की थी और बाद में जब नियुक्ति पत्र देने की बात आई तब आपने मेरा पद कम करके sub-editor कर दिया। अपनी बात से पीछे हटना आपकी फितरत है। नियुक्ति के समय 10-12 खबरों का अनुवाद तथा 8 घंटे काम करवाने की बात आपने की थी लेकिन दो हफ्तों के बाद आपने अपने काम करवाने की परिभाषा ही बदल डाली और मेरे एक सहकर्मी से कहा-``पत्रकारिता में कार्यालय आने का समय होता है लेकिन कार्यालय से जाने का कोई समय नहीं होता है।´´ मुझे लगता है कि कार्यकारी संपादक को working journalist act जरूर पढ़ लेना चाहिए।

आप बात-बात में लोगों को यह धमकी देते हैं कि यहां से नौकरी से निकाले जाने के बाद कहीं नौकरी नहीं मिलेगी। यह एक किस्म का फतवा है। आपने जिन लोगों को आईएएनएस से बाहर का रास्ता दिखाया है या बाहर का रास्ता देखने को मजबूर किया है, माफ कीजिए वे सारे लोग देश के नामी-गिरामी संस्थानों में अपनी बेहतर सेवा दे रहे हैं। कुछ लोग पत्रकारिता में व्यवहारिक होकर नौकरी खोजकर संस्थान छोड़कर चले गए। मैं नौकरी और भविष्य की चिंता किए बगैर आपकी नौकरी से इस्तीफा दे रहा हूं। पत्रकारिता में कुछ साल या बहुत साल बिताने से पत्रकारिता और मानवीयता की समझ नहीं आ जाती है। जिसको पत्रकारिता और मानवीयता की समझ आनी होती है उसे कुछ समय में ही आ जाती है। शायद मैं अपनी बात आपको समझा पाया हूं। इसी उम्मीद के साथ।

आपका शुभेच्छु
स्वतंत्र मिश्र
11 मार्च 2008
सी-1/118, मुस्कान अपार्टमेंट सेक्टर-17, रोहिणी, दिल्ली-110089, मो,-09868851301
------------
(कारवां से साभार)

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2008

टीआरपी क्या है बला !...2

उमेश चतुर्वेदी
यहां ये जान लेना जरूरी है कि टैम के किसी भी अधिकारी ने कभी-भी आधिकारिक तौर पर अपने इन डब्बों की जानकारी ना तो मीडिया को ना ही चैनलों को मुहैय्या कराई है। जबकि अखबारों की प्रसार और पाठक संख्या मापने के तौर –तरीकों की जानकारी इंडियन रीडरशिप सर्वे और नेशनल रीडरशिप सर्वे अखबारों को मुहैय्या कराते हैं।
अब ये जानने की कोशिश करते हैं कि टैम किस तरह चैनलों की रेटिंग तय करता है। टैम की रेटिंग में मनोरंजन, खेल, खबरिया और लाइफस्टाइल समेत हर तरह के चैनलों की रेटिंग गिनी जाती है। जहां टैम के डब्बे लगे हैं, उस परिवार में टैम का रेटिंग सिस्टम सिर्फ चार सदस्यों को मानता है। सबके हिस्से में एक-एक बटन होता है.. जब जो टीवी देखे, अपने हिस्से का बटन दबा दे। यहां ये सवाल उठता है कि कई बार अपना पसंदीदा चैनल परिवार का एक सदस्य देख रहा होता है। इसी बीच वह काम से उठ जाता है। और घर के दूसरे सदस्य बैठक में आ जाते हैं। उन्हें भी वह कार्यक्रम पसंद आता है। लेकिन वे बटन बदलते नहीं और पहले की ही तरह ये कार्यक्रम चलता रहता है। लेकिन टैम का पैमाना उसे एक ही हिट मानता है।
टैम ने चैनलों के बाजार को दो भागों में बांट रखा है। पहली श्रेणी में आते हैं एक लाख से दस लाख की जनसंख्या वाले शहर और इलाके, जबकि दूसरी श्रेणी में आते हैं दस लाख से ज्यादा जनसंख्या वाले शहर। महानगरों को इसी श्रेणी में रखा गया है। जिन राज्यों में टीआरपी के बक्से लगे हैं – उन्हें मोटे तौर पर इसी तरह दो हिस्सों में बांट रखा गया है। इसी वजह से हर हफ्ते उनकी स्थिति में बदलाव भी होता रहता है। इससे भी दिलचस्प बात ये है कि डीटीएच के बढ़ते विस्तार के इस दौर में उसके ग्राहक टैम की रेटिंग से वैसे ही गायब हैं- जैसे गधे के सिर से सींग। दूरदर्शन की टेरिस्ट्रियल प्रसारण सेवा यानी घरों तक इसकी सीधी पहुंच भी टीआरपी से दूर है। यानी टैम सिर्फ केबल देखने वालों से ही किसी कार्यक्रम की सफलता और असफलता की गणना करता है।
सबसे मजेदार ये है कि टैम मानता है कि उसका एक डब्बा पूरे मुहल्ले का प्रतिनिधित्व करता है। टैम ने गणना के लिए आम तौर पर 15 से 45 साल के बीच के लोगों को ही रखा है, यानी अपने पसंदीदा कार्यक्रम को देखते हुए टीआरपी का बटन सिर्फ इसी आयुवर्ग के लोग दबा सकते हैं। गिनती भी मिनट के हिसाब से की जाती है.. 'अ' ने 5 मिनट देखा, 'ब' ने 2 मिनट देखा, 'स' ने एक ही मिनट देखा और तब उस कार्यक्रम विशेष या टाइम स्लॉट की REACH निर्धारित की जाती है। फिर गिनती भी सिर्फ कार्यक्रम विशेष या टाइम स्लॉट की ही होती है, पूरे चैनल की नहीं। टीआरपी मापने के लिए समय को मौटे तौर पर तीन हिस्से में बांटा गया है.. सुबह 8 बजे से 4 बजे दिन तक, 4 बजे से रात 12 बजे तक(प्राइम टाइम) और रात 12 बजे से सुबह के 8 बजे तक।

रेटिंग प्वाइंट्स में सबसे बड़ा खेल मिनट का होता है.. इस रेटिंग प्वाइंट के मुताबिक अगर किसी कार्यक्रम को औसतन 5 मिनट देख लिया गया तो वो कार्यक्रम धन्य है.. मतलब उस कार्यक्रम की पहुंच इसी हिसाब से तय होती है कि कितने लाख घरों तक इस कार्यक्रम की पहुंच है। सबसे बड़ी बात ये कि हर दिन की रेटिंग अलग-अलग होती है। वैसे मोटे तौर पर ये तीन हिस्सों में होता है - सोमवार से शुक्रवार, शनिवार और रविवार।
जिन साप्ताहिक आंकड़ों के दम पर चैनल खुद को नंबर 1 या नंबर 2 होने का दम भरते हैं उसे जांचने का तरीका भी जान लेना मौजूं होगा। टैम का सॉफ्टवेयर हफ्ते भर की रेटिंग के लिए एक समय विशेष को चुनता है.. जैसे 7 बजे किस चैनल पर कितने लोग ट्यून्ड थे और इसके हिसाब से गिनती होती है। इस वक्त का चुनाव भी हर हफ्ते रैंडमली किया जाता है। अगर एक हफ्ते ये समय 7 बजे शाम का हो तो अगले हफ्ते ये समय 10 बजे रात का भी हो सकता है। टैम का दावा है कि उसका सॉफ्टवेयर हर मिनट की गिनती करता है। इसी आधार पर वह बता सकता है कि कितने बजे कितने लोग उसके डब्बे के बटन को दबाए हुए थे और उसके हिसाब से कितने लोग उस समय विशेष पर कौन सा चैनल देख रहे थे।
टैम की इस गिनती और आंकड़ेबाजी से सबसे बड़ा सवाल ये उठता है कि जिस देश में कम से कम आठ करोड़ घरों तक दूरदर्शन की सीधी पहुंच है। दूरदर्शन, डिश टीवी और टाटा स्काई समेत तमाम डीटीएच सर्विस प्रदाताओं के चलते डीटीएच की संख्या भी करोड़ घरों की संख्या छूने को है, उनका पैमाना महज 69 हजार लोगों की पसंद के आधार पर ही कैसे तय किए जा सकते हैं। लेकिन आज के दौर में ये चल रहा है। विज्ञापनदाता इसी पर मेहरबान हैं और इसके दबाव में चैनलों के कर्ता-धर्ता अपना ब्लड प्रेशर बढ़ाने को मजबूर हैं। क्योंकि टीआरपी गई नहीं कि चैनल के कर्ताधर्ता की नौकरी दांव पर लग जाती है।
वैसे चैनलों की रेटिंग नापने का काम एक और कंपनी कर रही है। दिल्ली के रवि अरोड़ा की एमैप नाम की ये कंपनी विज्ञापन एजेंसियों और ब्रॉडकास्टरों को लुभाने की कोशिश कर रही है। लेकिन उसे टैम जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के सामने अब तक सफलता नहीं मिल पाई है। शायद यही वजह है कि सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दास मुंशी ने टीआरपी मापने का अलग से पैमाना निर्धारित करने को कहा है। जिसके लिए भारतीय प्रसारकों की प्रतिनिधि संस्था इंडियन ब्रॉडकास्टर फेडरेशन तैयार भी हो गई है। लेकिन क्या ये संस्था हकीकत में बन पाएगी। मीडिया संगठनों और सरोकारों से साबका रखने वाले लोगों को इसका शिद्दत से इंतजार है।
( इस लेख में ज़ी बिजनेस के संवाददाता अमित आनंद की भी मदद ली गई है। क्योंकि ये आंकड़े टैम अधिकारियों से निकालना आसान काम नहीं था। )

मंगलवार, 15 अप्रैल 2008

हरिभूमि की जबलपुर में दस्तक !

हरियाणा की धरती पर हरिभूमि ने खास धमक भले ही न बना पाई हो, लेकिन छत्तीसगढ़ में उसने अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करा दी है। रायपुर और बिलासपुर से प्रकाशित होने के बाद अब हरिभूमि नर्मदा की भूमि जबलपुर में जून में दस्तक देने जा रहा है। इसके लिए प्रबंधन ने तैयारियां शुरू कर दी हैं। मशीन मंगाई जा रही है। जनरल मैनेजर और एकाउंटेंट तैनात कर दिए गए हैं। संपादक की खोज जारी है। कंपनी के वाइस प्रेसिडेंट एस एस कटारिया के मुताबिक अगर सबकुछ ठीकठाक रहा तो मई के आखिर में संपादकीय समेत दूसरे विभागों के कर्मचारियों की तैनाती शुरू कर दी जाएगी और पंद्रह जून तक आते-आते अखबार का पांचवां संस्करण प्रकाशित होना शुरू हो जाएगा। अभी ये अखबार रोहतक, दिल्ली, रायपुर और बिलासपुर से प्रकाशित हो रहा है। इसके बाद जबलपुर में चढ़ाई की तैयारी है। इसके बाद मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से अक्टूबर - नवंबर से अखबार को प्रकाशित किए जाने की तैयारी है। यानी पत्रकारों के लिए कुछ और अवसर जल्द ही मिलने वाले हैं।

सोमवार, 14 अप्रैल 2008

टीआरपी क्या है बला ! -1

उमेश चतुर्वेदी
हिंदी के खबरिया चैनलों की इन दिनों नाग नचाने और बेवजह राखी सावंत के चुंबन दृश्यों के साथ ही कपड़ा उतारू लटके-झटके दिखाने के लिए जब-जब आलोचना की जाती है, बचाव में खबरिया टीवी चैनलों के कर्ता-धर्ताओं का एक ही जवाब होता है कि उन्हें ये सब टीआरपी यानी टैम रेटिंग प्वाइंट के दबाव में ऐसा करना पड़ता है। हिंदी के प्रमुख समाचार चैनल आजतक के संपादकीय प्रमुख क़मर वहीद नक़वी ने 16 मई 2007 को भारतीय जनसंचार संस्थान के एक कार्यक्रम में ये स्वीकार किया था कि उन्हें बिना ड्राइवर की कार दिखाने का शौक नहीं है। पटना के लव गुरू प्रोफेसर मटुकनाथ और उनकी शिष्या से प्रेमिका बनी जूली की प्रेम कहानी का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि उन्होंने इस प्रेम कहानी को चैनल पर न दिखाने का फैसला किया और इसका खामियाजा टीआरपी में गिरावट के रूप में भुगतना पड़ा। एनडीटीवी इंडिया को छोड़ दें तो हिंदी के तकरीबन सभी खबरिया चैनलों के प्रमुख हमेशा ऐसी ही मजबूरी गिनाते रहते हैं। लेकिन खबर की दुनिया में विचरण करने वाले प्रोफेशनल लोगों से लेकर आम आदमी तक को ये पता नहीं है कि आखिर टीआरपी क्या है। खबरिया चैनल जो दिखा रहे हैं – वह गलत है या सही, इसकी चर्चा बाद में। पहले ये जान लेते हैं कि आखिर टीआरपी है क्या !
टीआरपी दुनिया की मशहूर कंपनी टैम का भारत में दर्शकों की पहुंच चैनलों तक नापने का पैमाना है। जिसे भारतीय ब्रॉडकास्टरों के सहयोग से करीब एक दशक पहले शुरू किया गया था और देखते ही देखते इसे ना सिर्फ मीडिया इंडस्ट्री, बल्कि विज्ञापनदाताओं के प्रमुख संगठनों ने मान्यता दे दी। आज हालत ये है कि दर्शकों की ज्यादा संख्या तक पहुंच की बजाय क्वालिटी के दर्शकों तक टेलीविजन कार्यक्रमों की पहुंच ही विज्ञापन देने और पाने का अहम जरिया बन गया है। यही वजह है कि टीआरपी यानी टैम रेटिंग प्वाइंट के पैमाने में कोई पीछे नहीं रहना चाहता। अगस्त-सितंबर 2007 तक देशभर में टैम के सिर्फ 4555 पीपुल्स मीटर लगे हुए थे। लेकिन अब देशभर में इसके पीपुल्स मीटरों की संख्या 9970 तक पहुंच गई है। टैम की ओर से देशभर में लगे इन टीआरपी नापने वाले डब्बों को ही पीपुल्स मीटर कहते हैं। सबसे ज्यादा मुंबई में 1245 पीपुल्स मीटर लगे हुए हैं। जबकि दिल्ली में 1186। कोलकाता में इनकी संख्या 881 है। लेकिन इन शहरों की तुलना में जरा राज्यों की हालत देखिए। पूरे गुजरात में सिर्फ 993 पीपुल्स मीटर ही लगे हैं, जबकि जनसंख्या के लिहाज से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में 1273 पीपुल्स मीटर लगाए गए हैं। वहीं महाराष्ट्र में इनकी संख्या 1019 है। यहां ये भी गौर करने वाली बात है कि टीआरपी के पैमाने में पंजाब, हरियाणा,चंडीगढ़ और हिमाचल प्रदेश चारों राज्य एक इकाई हैं और यहां कुल 1165 पीपुल्स मीटर ही लगे हैं। इसी तरह मध्य प्रदेश में 722, पश्चिम बंगाल में 703, राजस्थान में 441 और उड़ीसा में 342 पीपुल्स मीटर लगे हैं। TAM (टैम) के वैल्यू के हिसाब से ये 9970 डब्बे लगभग 69 हजार लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। मजे की बात ये है कि ये सारे के सारे डब्बे सिर्फ और सिर्फ घरों में लगे हुए हैं। वैसे तो आदमी अपनी जिंदगी का काफी ज्यादा वक्त ऑफिस और बाहर भी गुजारता है। लेकिन दिलचस्प बात ये है कि टीआरपी मापने वाले ये डब्बे किसी दफ्तर,होटल, रेस्तरां, रेलवे स्टेशन या एयरपोर्ट जैसी जगहों पर नहीं लगे हैं। टैम की रेटिंग के मानकों के मुताबिक उत्तर पूर्वी, दक्षिणी भारत और पश्चिम बंगाल को छोड़कर पूरा इलाका हिंदी भाषी माना जाता है। उत्तरी पूर्वी राज्यों के नेताओं और मंत्रियों के साथ ही आम आदमी की शिकायत रहती है कि हिंदी के खबरिया चैनलों पर उनके इलाके की खबरें नहीं रहतीं। जब वहां उनकी टीआरपी मापी ही नहीं जाती तो कोई साहसी चैनल ही उत्तर पूर्वी राज्यों की खबरों को दिखाने की हिम्मत दिखा पाएगा। उड़ीसा, गुजरात, महाराष्ट्र और पंजाब को भी गैर हिंदी भाषी राज्यों की श्रेणी में रखा गया है। लेकिन ये राज्य उत्तर पूर्वी राज्यों के मुकाबले भाग्यशाली हैं। क्योंकि इनकी खबरों को गाहे-बगाहे और कई बार ज्यादा भी जगह मिल जाती है। टैम की रेटिंग में दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, हैदराबाद और बंगलुरू को महानगरों की श्रेणी में रखा गया है, लेकिन हिंदीभाषी महानगर सिर्फ दिल्ली, मुंबई और कोलकाता को ही माना गया है।
लोगों को शिकायत है कि हिंदी के खबरिया चैनलों पर तीन सी और एक एस यानी क्राइम, क्रिकेट और सिनेमा के साथ सेक्स का ही बोलबाला है। उनमें भी बॉलीवुड की खबरों की बहुतायत है। इसकी भी वजह टीआरपी की रेटिंग का पैमाना ही है। इसके मुताबिक मुंबई हिंदी खबरिया चैनलों का सबसे बड़ा बाजार है, दूसरे स्थान पर दिल्ली आता है, जबकि तीसरे स्थान पर कोलकाता है। बाजार के लिहाज से टैम के मुताबिक गुजरात हिंदी खबरिया चैनलों का चौथा बड़ा बाजार है और उत्तर प्रदेश पांचवां। हालांकि सिवा मुंबई और दिल्ली की हालत में, हर हफ्ते इस नंबर में हेरफेर होता रहता है । हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं के लिए बिहार भले ही बाजार नंबर एक कहा जाता हो, लेकिन आपको ये जानकर ताज्जुब होगा कि बिहार में टीआरपी मापने वाला एक भी बक्सा नहीं है। यही हालत उत्तरी पूर्वी राज्यों की भी है। क्रमश: