रविवार, 9 दिसंबर 2007

पत्रकारिता पर दो विचार-1

आजादी के बाद की पत्रकारिता: दो विचार
नवभारत टाइम्स के संपादक स्वर्गीय राजेंद्र माथुर ने कहा था कि पत्रकार महज घटनाओं के साक्षी होते हैं, उनके निर्माता नहीं। उनका दायित्व महज रिपोर्ट करना होता है, उन्हें घटनाओं की भूमिका नहीं तैयार करनी होती। कुछ ऐसा ही मानना है वरिष्ठ गांधीवादी पत्रकार देवदत्त का। आजादी के साठ साल बाद भारतीय और खासतौर पर हिंदी पत्रकारिता कहां ख़ड़ी है। इसी मसले पर हमने उनसे बात की तो ये विचार उभरकर सामने आए। इस सिलसिले में हमने वरिष्ठ पत्रकार जितेंद्र गुप्त से भी बात की। दोनों ने अपनी –अपनी तरह से पत्रकारिता की बदलती भूमिका का विश्लेषण किया है। लेकिन दोनों एक विंदु पर सहमत हैं कि मौजूदा दौर में गंभीर पत्रकारिता का स्पेस लगातार घटा है। पेश है दोनों से बातचीत के अंश
वरिष्ठ गांधीवादी पत्रकार देवदत्त से उमेश चतुर्वेदी की बातचीत।
आजादी के इन साठ सालों में पत्रकारिता, खासतौर पर हिंदी पत्रकारिता में आपको क्या बदलाव नज़र आता है ?
देखिए, आपके इस सवाल का मतलब मैं समझ गया हूं। आपका मतलब ये है कि आजादी के पहले जिस तरह की पत्रकारिता थी, उससे आज की पत्रकारिता कहां तक अलग है। हमें ये नहीं भूलना चाहिए की इन साठ सालों में दुनिया की राजनीतिक व्यवस्था, सामाजिक मानदंडों और अर्थव्यवस्था में तमाम तरह की तब्दीलियां आ गई हैं। विज्ञान और तकनीक ने दुनिया का नक्शा ही बदलकर रख दिया है। जाहिर है ऐसे में आजादी के बाद की पत्रकारिता, आजादी के पहले की पत्रकारिता जैसी कैसे हो सकती है। आजादी के पहले की पत्रकारिता का एक मानक था। गणेश शंकर विद्यार्थी, बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, सदानंद, रामाराव, गांधी जी- इन सबने पत्रकारिता के मानदंड स्थापित किए। ये सब प्रात:स्मरणीय लोग हैं। लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि आज उनके मानदंडों पर पत्रकारिता नहीं की जा सकती।
क्यों ? आखिर क्या वजहें हैं।
उस दौर में पत्रकारिता एक सामाजिक आदर्श था। चूंकि उस दौर में सबसे अहम मसला था देश को अंग्रेजी की गुलामी से मुक्त कराना, लिहाजा लोग अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों, निजी आकांक्षाओं को एक हद तक तिलांजलि दे देते थे। लेकिन आज का पत्रकार ऐसा नहीं कर सकता। उसे जीवनयापन भी करना है। तब पत्रकारिता पर मिशनरी पक्ष हावी था, आज प्रोफेशन हावी है। दूसरी बात ये कि आप गांधी की पत्रकारिता से आज की पत्रकारिता की तुलना नहीं कर सकते। अव्वल तो गांधी पत्रकार थे ही नहीं। मूलत: वे राजनेता थे और उनकी राजनीतिक जरूरतों को पूरा करने में उनकी पत्रकारिता सहयोगी थी। गांधी के मूल्यों को जिंदगी में अपना सकते हैं, लेकिन सिर्फ उसी के आधार पर जिंदगी की गाड़ी आगे नहीं बढ़ सकती। खासतौर पर पत्रकारिता की दुनिया तो मौजूदा हालात, मूल्य और ताकतों से अछूती रह ही नहीं सकती। एक और बात मैं कहना चाहूंगा। मीडिया में आज चार माध्यम हो गए हैं। प्रिंट का करीब दो सौ साल का इतिहास है। रेडियो की जिंदगी 70-75 साल की है। टेलीविजन की दुनिया पच्चीस-एक सालों की है और इंटरनेट की उम्र महज दस साल है। जाहिर है चारों का स्वभाव, चरित्र और प्राथमिकताएं अलग ही होंगी, कुछ वैसे ही जैसे अलग उम्र वर्ग के लोगों की अपनी सोच और जरूरत होती है। लेकिन सभी को एक ही कसौटी पर कसा जा रहा है। मैं इसे ठीक नहीं मानता।
तो पत्रकारिता के पूरे परिदृश्य को आप किस तरह देखते हैं ?
यहां एक बात और बता देना चाहता हूं कि आज राज्यों और राष्ट्रीय अखबारों का भी अपना चरित्र है, अपना चाल-चलन है। अंग्रेजी मीडिया आज भी अभिजात्य के अहंकार से ग्रस्त है। उसका हिंदी मीडिया से कोई तालमेल नहीं है। और हकीकत तो ये है कि इसे जवाहरलाल नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक ने संरक्षण दिया है। आपने देखा होगा कि अंग्रेजी पत्रकारों के सवालों का जवाब प्रधानमंत्री पहले देता है और हिंदी या दूसरी भाषाओं के पत्रकारों पर उसकी कम ही निगाह रहती है।
तो क्या आज के दौर में आजादी के पहले के मानदंडों पर पत्रकारिता करना मुश्किल है ?
इसे मैं एक उदाहरण से समझाता हूं। आज आर्थिक और कारपोरेट का जमाना है। इस दौर में आर्थिक ताकतों की अंदर के घोटालों को उजागर करना अंग्रेजी के आर्थिक पत्रकारों के लिए कठिन है। क्योंकि उन्हें कारपोरेट के अंदर से ही इसकी जानकारी मिल सकती है। और अगर वह उसकी तस्दीक भी करना चाहेगा तो उसके लिए भी उसे कारपोरेट पर ही निर्भर करना पड़ेगा। कारपोरेट भी ऐसी खबरें किसी खास मकसद से ही देता है। कई बार लेन-देन का भी चक्कर होता है। ऐसे में वह पुराने मूल्यों के आधार पर काम नहीं कर सकता। कोई दूसरा मैकेनिज्म नहीं है कि पत्रकार इस पर नजर रख सके। आप कल्पना करिए कि सारे कारपोरेट घरानों में एकता हो गई तो क्या कोई आर्थिक घोटाले बाहर आ सकेंगे। हमारे यहां ऐसा ना तो मैकेनिज्म विकसित हुआ है और ना ही ऐसे कामों के लिए फंडिंग करने वाली संस्थाएं हैं। लेकिन अमेरिका में ऐसी संस्थाएं हैं। वे बुश के चुनाव फंड में चंदा भी देती हैं तो इराक या वियतनाम में काम करने वाले पत्रकार को अमेरिकी प्रशासन की विफलताओं की पोल खोलने में भी मदद देती है। तो मेरा ये मानना है कि मजबूत विपक्ष के बिना मीडिया भी वाचडॉग की भूमिका नहीं निभा सकता। यही वजह है कि आज भी हमारे यहां मीडिया की स्वतंत्रता में भरोसा करने वाले संस्थानों की जरूरत बनी हुई है।
आज मीडिया का एजेंडा कौन तय कर रहा है, मीडिया संस्थान, राजनीति या फिर बाजार की ताकतें ?
इस सवाल का जवाब देखने के लिए हमें ये भी देखना होगा कि आज राष्ट्रों का एजेंडा कौन तय कर रहा है। वैश्वीकरण, एक ध्रुवीय व्यवस्था होने, आर्थिक, वैज्ञानिक और तकनीकी साधनों की कमी की वजह से आज एजेंडे तय हो रहे हैं। पार्टियां अपनी वोट राजनीति के हिसाब से एजेंडा तय करती हैं, बाजार की ताकतें अपने हितों के चलते एजेंडा तय कर रही हैं। अव्वल तो मीडिया का एजेंडा तय करने में मीडिया का अपनी खास भूमिका नहीं है। लेकिन इनके विरोधाभासों को उजागर करने में मीडिया का अहम योगदान है। मीडिया एजेंडा तय तो नहीं करता, लेकिन संक्रमण के दौर में , संकट के समय में वह एजेंडे पर असर जरूर डालता है। सच तो ये है कि एजेंडा तय करने में मीडिया का संस्थागत भूमिका नहीं है। एजेंडे की दिशा बदलने में उसकी भूमिका बेहद कम है। हालांकि आज का पत्रकार ये जरूर सोचता है कि इस संदर्भ में उसका रोल बड़ा है। हां, आजादी के पहले एजेंडा तय करने और बदलने में मीडिया की भूमिका ज्यादा थी। शायद यही वजह रही कि गांधी जी ने भी उस दौर में मीडिया का भरपूर उपयोग किया।
कहा जा रहा है कि आम आदमी के सरोकारों की चिंताएं आज का मीडिया नहीं कर रहा है। आप इससे कहां तक सहमत हैं?
मैं इससे इत्तेफाक नहीं रखता। प्रिंट माध्यम का जहां तक सवाल है, वह आम आदमी, दलित और महिलाओं की चिंताएं करता है। उसकी वजह भी है। हां, ये भी पार्टियों के हिसाब से तय होता है। पार्टियां जिस तरह आम आदमी को पेश करती हैं, अपनी जरूरतों के मुताबिक आम आदमी की हालत पेश करती हैं और मीडिया उसे ही लपक लेता है। सच तो ये है कि आज भी पत्रकारिता पक्की सड़क से आगे नहीं जाती। सही मायने में देहाती पत्रकारिता आज तक शुरू नहीं हो पाई है। इसीलिए ये भी सच है कि हाशिए पर बैठे व्यक्ति के सरोकारों और उनके हालात की चिंताएं मीडिया उतनी शिद्दत से नहीं कर रहा, जितनी होनी चाहिए। लेकिन मीडिया सीमित ही सही, अपनी भूमिका निभा रहा है। यही वजह है कि व्यवस्था भी सचेत रहती है। इसके साथ हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि हर कोई पी साईंनाथ नहीं हो सकता।
फिर भी कई मसले ऐसे हैं- जिनको छुआ नहीं जाता। आर्थिक दौर का फायदा क्या सचमुच आम लोगों तक पहुंच पाया है? लेकिन मीडिया को इसकी चिंता नहीं है।
एक हद तक मैं इससे सहमत हूं। देखिए आज चर्चा हो रही है कि मुद्रा स्फीति अब तक सबसे कम है। यानी करीब तीन फीसदी। हकीकत ये है कि मुद्रा स्फीति कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स यानी सीपीआई और होलसेल प्राइस इंडेक्स यानी एचपीआई दोनों से तय होती है। आज जो कम मुद्रा स्फीति है, वह एचपीआई से तय हो रही है। आम आदमी से सामान और जरूरत की चीजें आज भी दूर हैं। लेकिन इसे ना तो कोई अखबार उठा रहा है और ना ही इसकी चिंता दिख रही है। जबकि सबसे बड़ी बात ये है कि मु्द्रास्फीति कम होने का फायदा आम आदमी को नहीं मिल पा रहा है। लेकिन इसे कोई नहीं उजागर कर रहा। हां, अंग्रेजी और आर्थिक अखबार इस उलटबांसी को उजागर कर रहे हैं। लेकिन उन्हें आम आदमी तो पढ़ता ही नहीं है।
आखिर ऐसा क्यों हो रहा है ?
संपादकों की बौद्धिक तैयारी की कमी की वजह से। फिर आज का मालिक ही संपादक है। उसकी चिंताओं में आम आदमी की ये असल परेशानियां नहीं हैं। आप कुछ हद तक कह सकते हैं कि इन अर्थों में अपने स्वार्थों से एजेंडा तय हो रहा है। 1926 से 1932 के दौरान डॉलर में जो ऐतिहासिक मंदी आई, उसकी मार आज तक कई लैटिन अमेरिकी और अफ्रीकी देश भुगत रहे हैं। एक बार फिर डॉलर में मंदी का दौर है। लेकिन इस पर चिंता नहीं जताई जा रही है। किसी को इसकी फिक्र नहीं है। जबकि हकीकत ये है कि आज दुनिया की अर्थव्यवस्था डॉलर आधारित ही है और इसके असर दूरगामी होंगें। यही क्यों, न्यूक्लियर टेक्नॉलजी की आज खूब चर्चा हो रही है। अमेरिका के साथ करार पर प्रधानमंत्री का जोर है कि अगले बीस सालों में इससे ऊर्जा जरूरतें पूरी की जाएंगी। लेकिन ये कोई बताने वाला नहीं है कि यूरोप और अमेरिका खुद परमाणु ऊर्जा से दूर जा रहे हैं। गैस और पानी आधारित ऊर्जा प्लांट लगा रहे हैं। पवन बिजली बना रहे हैं। इतना ही नहीं, तकनीक ने दुनिया को किस कदर बदल दिया है। इसका जो विध्वंसक रूप है, उसकी चर्चा भी नहीं है। हकीकत तो ये है कि आज के पत्रकार और पत्रकारीय संस्थानों के बौद्धिक फलक और संवेदना का दायरा लगातार संकुचित होता जा रहा है। यही वजह है कि आज की भारतीय पत्रकारिता में तात्कालिक चिंताएं तो दिखती हैं- लेकिन दूरगामी असरों के बारे में चर्चा नहीं होती।
मौजूदा संदर्भों में आप भारत में पत्रकारिता का कैसा भविष्य देखते हैं?
देखिए, तात्कालिकता पर ज्यादा जोर रहेगा। रीडरशिप लगातार बढ़ रही है। इसकी जिम्मेदारी अखबारों पर ज्यादा है। वैसे आज की पाठकों की जरूरतें भी ज्यादा हैं। जाहिर है, ऐसे में उन्हें जानकारी देने के लिए अखबारों पर दबाव रहेगा। सूचना देने और जानकारी देने की अखबारों की भूमिका बढ़ेगी, संस्था के रूप में नए संदेशों को देने में भूमिका रहेगी। लेकिन मीडिया को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि वह निर्णायक भूमिका निभाएगा।